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Showing posts from February, 2024

*949 समझ मन बावला रे तेरा अब तैरने का दांव।।433।।

                             433 समझ मन बावला रे, तेरा अब तरने का दाव।। हीरा बीच बाजार में, लिए फिरे साहूकार। जब तक सतगुरु ना मिले रे, तब तक मती खराब।। रण में सूरा जाए के रे, किसकी देखे बाट। आगे को ही बढ़ता रहे, आप कटे चाहे काट।। जैसे सती बैठ चिता पर, रटे पिया पिया। तन मन अपना मारके रे, जल बल हो गई खार।। घीसा संत मिले सूरमा, जीता करे विचार। जो सतगुरु के साथ रहे रे, हो भवसागर पार।।

*948 कोई राम राम कोई हरि हरि।।433।।

                               433 कोई राम राम कोई हरि हरि बकता है संसार।                         मनवा रटा करो निराधार।। जो जो करता देख जरा आंख खोल गुन ज्ञानी रे। कॉल बली ने एक ना छोड़ा पल में कर दई घानी रे।      परम संतो की एक ना मानी यो बकता मूड गवार।। एक है तुम सुनियो साधो, भगत जगत में पूरा तूं। कोई चेला बन के वचन मांग ले शब्द जपन का पूरा तू।      खुद भी नूर जहूरा तो कर दो एक पल में पार।। एक है तुम सुनो साधु सबसे ऊंचा ज्ञान तेरा। कोई खोजी बनकर खोज पूछ ले ऐसा गुप्त निशान तेरा।      थोड़ा सा उनमान तेरा यो रहना है दिन चार।। गुरु परमानंद ने खोज बताई, मोज मगन के माही रे। दासानंद तेरे दर का भिखारी प्रेम की धूनी लाई है।     जोत से जोत मिलाई है हुआ भाव सागर से पार।।      

*947 मेरा मन मन सुक्रम ले रे।।433।।

                              434 मेरा मन सुकर्म कर ले रे। आवेगा तेरे काम अगत में, राम सुमर ले रे।। दुनियादारी है बड़ी काली इससे बच ले रे। यो भी मेरा वह भी मेरा इसी में खप ले रे।। धन और दौलत तेरे काम ना आवे यहीं पर रहले रे। जिस दिन में तो करें घुमाना, यही सपढ़ ले रे।। राम नाम और गुरु वचन को, हृदय धर ले रे। सुबह शाम दो टेम नियम कर राम सुमर ले रे।। साध संगत और गुरु का आदर निश्चय कर ले रे। प्रकाशनंद जब मिले शब्द में, जीवत मरले रे।।

*946 मन लोभी तू तो लूट गया रे संसार में।।432।।

                          432 मन लोभी तूतो लूटगया रे संसार में, जाने कब तू गुरुभजेगा। अजगर लेटी पड़ी धरनि में वह भी पेट भरे। अलल पंख बलवान जानवर दिन भर भूख मरे।। सिरसागढ़ हरनंदी कहिए वा भी आश करें। गुरु नाम पे नरसी चलने पल में भात भरें।। रविदास जी सत के स्वामी नैया पार करें। रामदास गुरु समनदास जी के चरणों में ध्यान धरें।।

*945 मन में सोच विचार बुलबुला पानी का।।432।।

                             432 मन में सोच विचार बुलबुला पानी का।           दो दिन में ढल जाए नशा जवानी का।। यह जीवन तेरा ऐसे, पानी में बताशा जैसे। जब मार पड़ेगी जबकि तेरी जान बचेगी कैसे।           तेरी शैतानी का 2 दिन में ढल जाए।। उठ जाग क्यों करता देरी यह सुंदर काया तेरी। बन जाएगी राख की ढेरी मत कर तू हेरा फेरी।          तेरी दीवानी का, 2 दिन में ढल जाए।। यह पिंजरा हुआ पुराना इस पंछी ने उड़ जाना। सतनाम सुमर ले प्यारे यह मौका हाथ नहीं आना।         तेरी जिंदगानी का, 2 दिन में ढल जाए।। तूं सहमत रहना भाई तूने मिलेगी खोज कमाई। संत शरण में आकर तेरा जन्म सफल हो भाई।        मने उच्च ज्ञानी का।।

*944 देख तमाशा डाट रे मन ने।।432।।

                                432 देख तमाशा रे डाट लोभी मन ने, कोई दिना की चहल बाजी। लाख चतुराई कर ले एक दिन जाएगा,                          सच कहूं रे सत्य क्यों ना आती।। माया ने देख के तूं हुआ रे तू दीवाना,                        कट गया शील कुब्ध जागी। देख कुटुंब फंदे में फंस गया,                       घाल मरा रे मोह की फांसी।। हरि के भजन बिन रीता रे रह गया,                       जल बिन मशक पड़ी रे खाली।। उदय अस्त का राज करे थे,                       वह भी छोड़ गए रे गद्दी। मूर्ख सो गया नींद भरम की,                           भर गया पेट हुआ रे राजी।। जो जन्मा सो आया रे मरण में,                          अमर नहीं पंडित का जी। पीर पैगंबर हुए हैं फना अरे,                           आया हेला अगम जासी।। मात-पिता तेरा कुटुंब कबीला,                            जागा अकेला ना कोई साथी।। कहे कबीर सुनो भाई साधो,                            भजन बिना जागा चौरासी।।

*943 तन खोज्या मन पाया रे।।432

                                  432 तन खोज्या मन पाया रे साधो। मन ही श्रोता मन ही वक्ता, मन ही निरंजन राया।।     मन गुण तीन पाँच तत्व रे, मन का ये सकल पसारा।     जैसे चन्दा उदक में दरसै, है माहीं पर न्यारा।। जागृत सपन सुसुप्ति तुर्या,  ये सब मन की झांई। दस अवतार अनसधर धोला, मन है द्वितीय नाहीं।।      शशी कर मण्डल रहें एक रस,घट बढ़ कर न लखाया।     जैसे कंचन के आभूषण, बहु विध नाम धराया।। आदि था सो अब भी होगा, सद्गुरु भेद लखाया। कह कबीर कंचन आभूषण, एक भया तब भाया।।

*942 अलख निरंजन मन का मंजन मन की करो सफाई।।431।।

                                 431 अलख निरंजन मन का मंजन मन की करो सफाई। बिन सतगुरु तेरा मैल कटे ना कैसे हो रोशनाई।। मन को मंजा रविदास ने सतगुरु पदवी पाई। सतगुरु मिल गए शंसय मिट गई उल्टी गंगा बहाई।। गंगा जाते पंडित मिल गया, सुन पंडित मेरे भाई। एक कोड़ी मेरी भी ले जा, गंगा को दे भेंट चढ़ाई।। नहाय धोए के पंडित सोचे बात समझ में आई। यह कोडी दी रविदास ने ले ले गंगा माई।। हाथ बढ़ा कर गंगा बोली सुन पंडित मेरे भाई। मेरा कंगन भी ले जा तूं, गुरु को भेंट चढ़ाई।। घीसा दास संत मिले पूरी जिसने युक्ति बताइ। जीता दास शरण सतगुरु की हरदम बहुत सहाई।।

*941 मन ना रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा।।431।।

                            431 मन ना रंगाया, रंगाए जोगी कपड़े।। काम क्रोध ने डेरा डाला, मांग मांग के खाए टुकड़े।। घर-घर जाकर अलख जगाया गलियों के भौंसाए कुतडे।। बन खंड जाकर धुना लाया, दिल ना जलाया जलाए गठरे।। आजकल के नए-नए साधु जोहर पर जाके खिंडाए फफड़े।। कहे कबीर सुनो भाई साधो सतनाम के ना लाए रगड़े।।

*940 करो रे मन वा दिन की तदबीर।।430।।

                                                            430 करो रे मन वा, दिन की तदबीर।। भँवसागर एक नदी अगम है, जल बाढ़े गम्भीर। गहरी नदियां नाव पुरानी, खेवनिया बेपीर।। यम के दूत पकड़ ले जावै, तनक धरै ना धीर। मारैं सोंटा प्राण काढ़ लें, बहे नैन से नीर।। जब यमराजा,लम्बे बांधै, व्याकुल भयो शरीर।।  कह कबीर सुनो भई साधो, अब न करेंगें तकसीर।।

*939. दिल दे दिया सतगुरु प्यारे नू।।430

      दिल दे दिया सतगुरु प्यारे नू।। दिल देंदा सो प्याला लेंदा, चलना अमर अखाडे नू।।       शब्द महल मुकाम हमारा आए हैं दिन चारे नू।। घट के अंदर देख तमाशा पटक पाप दे भारे नू।।      दिल दरिया इश्क दा बेड़ा मिलो सजन मतवाले नू।। नित्यानंद महबूब गुमानी निरखो नूर नजारे नू।।

*938 साफ कर दिल के शीशे को साहेब मन में बसता है।।429।।

                             429 साफ कर दिल के शीशे को साहब मन में बसता है। मम्मी बता राम पत्थर में चाहे दिन-रात करो पूजा।       आपके भीतर यही एक खास रस्ता है।। फिर क्यों पहाड़ जंगलों में मरो क्यों भूख और प्यासा।         लगाकर चोगिर्दे धूनी तू अग्नि में क्यों जलता है।। नाहक वेदों में पचता, वह इनसे भी न्यारा है।        चाहे दिन रात पड़ गीता ना सुनने राम आता है।। भरम का पाढ़ दे पर्दा दुई को दूर कर प्यारे।       कपट की भक्ति अच्छी ना देख मालिक हंसता है।। लेकर नाम सतगुरु का, ध्यान अंदर लगाता जा।        बैठ जा सकती के पल्ले में बराबर  वो ही करता है।। सतगुरु राम सिंह मेरे पिलावत प्यार का प्याला।        सतगुरु ताराचंद जोड़े हाथ राधास्वामी कहते हैं।।

*937 देख तेरे ही मन मन्दिर में।।429।।

                               देख तेरे ही मन मन्दिर में, बसा हुआ भगवान।                                               अरे तूँ कर उसकी पहचान।। है घट घट में बास उसी का, सूरज में प्रकाश उसी का। जीवन में है साथ उसीका, सबके सिर पर हाथ उसीका।           भूल उसे क्यों भटक रहा है,                              डगर डगर इंसान।। चेत अरे माया के अंधे, डाल रहा यम सिर पर फंदे। हरि चरणों में आजा बन्दे, तज दे जग के गोरखधंधे।               हो जाएगी राम नाम ले,                            सब मुश्किल आसान।। अबतो आवागमन मिटाले, मानव जीवन सफल बनालें। ज्ञान गंग में आज न्हा ले, ब्रह्म जोत में जोत जलाले।               कह सेवक तूँ गुरू कृपा से,                         पावै पद निर्वाण।।

*936 सफा न देखा दिल का।। 429।।

                                                            429 सफा न देखा दिल का, साधो भाई सफा।।      काजी देखा मौला देखा, पंडित देखा छल का।      औरों को बैकुंठ बतावै, आप नरक में सड़ता।। पढ़े लिखें न गुरू मन्त्र को, करै गुमान तुं मत का। बैठे नाहीं साध की संगत, करे गुमान वर्ण का।।     मोह की फांसी पड़ी गले में, भाव करे कामिन का।     काम क्रोध दिन रात सतावै, लानत ऐसे तन का।।  सत्त ज्ञान की मूठ पकड़ले, छोड़ कपट सब दिल का। कह कबीर सुनो भई साधो, पहर फ़कीरी खिलका।।

*935 मेरे मन अब तो समझ के चाल 257।।

मेरे मन अब तो समझ कर चाल।। बाल्य गयो जोबन बीतो श्वेत भये सब बाल। जो ना तजे तूं इन विषयन को आन छुडासी काल। जाना दूर मुसाफिर तुझको पास नहीं कुछ माल।। ब्रह्मानंद मिलने के कारण छोड़ जगत जंजाल।।

*934. यह तरने का घाट भूलने मनवा।।

       यह तरने का घाट भले मनवा समझए मेरे भाई।। करनी के सूरे घने थोथे बांधें अखियां हथियार। रण में तो कोई डटे सूरमा जहां बाजे तलवार।।       सुरा रण में आय कर रे किसकी देखे बाट।      ज्यों ज्यों पग आगे धरे रे आप कटे चाहे दे काट।।

*933 सेवा करले गुरु की भूले मनवा।। 428

सेवा करले रे गुरु की भूले मनवा।। ब्रह्मा विष्णु राम लखन शिव और नारद मुनि ज्ञानी। कृष्ण व्यास और जनक ने महिमा गुरु सेवा की जानी।                    गाथा पढ़ ले रे गुरु की बोले मनवा।। कर सत्संग मेट आपा, फिर द्वेष भाव को छोड़ो। राग द्वेष आशा तृष्णा माया का बंधन तोड़ो।                    यही भक्ति है गुरु की बोले मनवा।। ध्यान करो गुरु की मूर्ति का सेवा गुरू चरणन की। कर विश्वास गुरु वचनों का मिटे कल्पना मन की।                    कृपा दीखेगी गुरु की।। संत शरण में जाकर बंदे आवागमन मिटेगा। जो अज्ञानी बन रहा चोरासी सदा फ़सेगा।                    मुक्ति हो जाएगी रूह की।।

*932 वा दिन की कुछ सुद्धि कर मनवा।।427।।

                           वा दिन की कुछ सुधि कर मनवा। जा दिन ले चल ले चल होइ। ता दिन संग चले ना कोई। मातपिता बन्धु सुत रोय, माटी के संग दियो समोय।।                सो माटी काटेगी तनवाँ।। उल्फत नेहा उल्फत नारी, किसकी दीदी किसकी बांदी। किसका सोना किसकी चान्दी, जा दिन है यम ले बांधी।                   तेरा जाए, पर वह बनमां।।  टांडा तुमने लादा भारी, बनज किया पूरा व्यापारी। जुआ खेला पूंजी हारी, अब चलने की भई है तैयारी।                   हित चित अब कुछ लाओ मनवा।। जो कोई गुरू से नेह लगाए, बहुत भांति सोई सुख पावै। माटी की काया माटी मिल जाए,कबीर आगे गहराए।                    साँचा साहिब के लगजा सँगमां।।

*931 मन का मैल ना जावे।।427।।

                    428 मन का मैल ना जावे गुरु बिन मन का। जनम जनम के दोष सारे सतगुरु छुड़वावे।। सतगुरु धोबी सत्य का साबुन जो इसने धो लावे। त्रिगुण मेल लगा जुग-जुग का गुरु बिन कौन छुड़ावे।। साध संगत की घूम चढ़ाले, सभी मेल कट जावे। शील शिला पे दे फटकारा सतगुरु धो बतलावे।। मैंल कुचेल रहे नहीं कोई जब ऊजलाई आवे। घीसा संत मिले पूरे धोबी जीता दास छुडावे।।

*930 ऐसी सैन समझ मन मेरा।।427।।

ऐसी सैन समझ मन मेरा, समझाये घर पावै जी। बहुत सन्त हुए ओर होंगे, सारा ए समझ सुनावै जी।। जागयाँ बिना नींद ना जावै, बिन पारख पच हारै जी। जागै क्यूँ ना भूल में सोता, बोलै जन्म गंवावै जी।। जागे बिना जुगत ना दरसै, हर मरहम मण्डरावै जी। अपने दिल को क्यूँ ना खोजै, गैल्या ज्ञान गुणावै जी।। जाग्या वही जुगां जुग जीता, समझदार दिखावै जी। जैसा होवै वैसा घर पावै, फेर जन्म ना आवै जी।।  हर गुरु सन्त एक कर जाणै, दुतिया दूर भगावै जी। कह बन्ना नाथ सुनो भइ साधो, अमरापुर में जावै जी।।

*929 मन तू माने ना।।426।।

                              426 मन तूँ मानै ना-२, तनै मेरी मति मारी। सुमरन तू करता ना-२, तूँ लेता फिरैं उडारी।। सत्संग में तूँ कदे न जावै, नए बहाने रोज बनावै।       सन्तों की सुनता ना, तनै लागै बात वो खारी।।   जन्म जन्म के पापों का बोझ, घटता नहीं यो बढ़ जावै रोज।         कर्म कैसे कटेंगे, या तनै नहीं विचारी।। किसे केभी नाकाबू आवै। सन्तों के बिन कौन पीछा छुड़ावै।          सन्त कब मेहर करे, तेरी काटें अकड़ या सारी। मेजर साहब की शरण में जाले, कृष्ण खोया भाग जगाले।        गुरु का बनजा तूँ, या छोड़ दे दुनियादारी।।

*928 चल मन हरि चटसाल पढ़ाऊं।।426।।

                             426 चल मन हरि चटसाल पढ़ाऊं। गुरु की सांटी ज्ञान का अक्षर,                    बिसरे तो सहज समाधि लाऊ। प्रेमकी पाटी सूरतकी लेखनी,                    ररो ममो लिखलिख आंख लखाऊं यही विधि मुक्त भए सनकादिक,                   हरदे विचार प्रकाश दिखाऊं ।। कागज कलम मती मसि कर निर्मल,                   बिन रसना निशदिन गुण गाउ।। कह रविदास राम भाई, संत राख दे फेर ना आऊं।।

*927 बसा हुआ भगवान सबके मन मंदिर में।।426।।

                               426 बसा हुआ भगवान सबके मन मंदिर में। हरि का देवस्थान सबके मन मंदिर में।। एक जगह है ना उससे खाली पत्ता पत्ता डाली डाली। नूर उसी का रूप उसी का पशु पक्षी इंसान।। सारा जग विस्तार उसी का सबको है आधार उसी का। जन्मे पाले संहारे व्यापक ईश महान।। सबके अंतर्मन की जाने गली गली घर घर के जाने। सब में सबका होकर रहता सबका एक समान।। ऊंच-नीच अंतर नहीं माने भाव भक्ति देखे पहचान। दोषी या निर्दोष भले ही करता है कल्याण।।

*926 हरि हर भजता नाही रे।।425।।

                                   425 हरिहर भजता नाही रे, यह मन भया दीवाना। काम क्रोध मद लोभ मोह का घट में ही कुफराना।। बाहर बुगला ध्यान लगावे भीतर पाप समाना। भला बुरा भीतर बाहर का साहब से नहीं छाना।। सुर असुर ऋषिस्वर लूटे, मुनिवर मार गिराना। जोगी जति तपी सन्यासी भूले भगत ठिकाना।। प्रेम पंथ पग धरन न देवें, तजा ज्ञान और ध्याना। कुमति रूप में यो गिर जावे, जैसे नीर निवाना।। मन्मुख पंडित मन्मुख मंडित मन्मुख राजा राणा। नित्यानंद जैसे महबूब गुमानी, गुरुमुख मार्ग जाना।।

*925 मन करले साहेब से प्रीत।।425।।

मन करले साहेब से प्रीत। शरण आए सो सब ही उतरे, ऐसी उनकी रीत।। सुंदर देह देख मत फूलो,                   जैसे तृण पर सीत।। काची देह गिरैं आखिर को,                    ज्यूँ बालू की भींत।। ऐसो जन्म फेर नहीं आवै,                      जाए उम्र सब बीत।। दास गरीब चढ़े गढ़ ऊपर,                         देव नगाड़ा जीत।।

*923 इस ने मैं कैसे समझाऊं।। 425।।

                                                              425 इस ने मैं कैसे समझाऊं, मेरा यो मन मानता नहीं।।     एक देव की पूजा मानूँ, दूजा ना ध्याऊँ।     घट में बसते आप कुदरती, नित उठ दर्शन पाऊँ।। भाई व्रत करूँ तो पीछे रोऊँ, दोज़ख में जाउँ। नहीं काम कोय पूजा का, न कोय तीर्थ नहाऊं।।    वन जाउँ तो कांटे लागैं, दूना दुःख पाऊँ।    धूना लाऊँ तो जीव जलें रे, कैसे मुक्ति पाऊँ।।  धर्म करूँ तो फेर देह धारूँ, चौरासी में जाउँ। अधर्म करूँ तो मिलूं जोत में, लौ में लौ मिल जाऊं।      कह कबीर सुनो भई साधो, सुरत निरत में नहाऊं।     इस काया ने छोड़ के रे, अमरापुर चला जाऊं।।

*922 है कोई मन मूर्ख।।424।।

है कोई मन मूर्ख समझावै।। यो मन मूढ़ कह्या नही माने, राम भक्ति नहीं भावै।। प्रेम की बात पिछाने नाही, दसों दिशा उठ ध्यावै। भाव प्रीत गुरु ज्ञान काण तज, जित बरजू तीत जावै।। सत्य शब्द से सुख नही माने, आल जाल उठ गावे। जो धुन लाय ध्यान में राखूं, आतुर अति अकुलावै।। कब हूं बढ़े आकाश शिखर को, दीर्घ देह बढ़ावै। पल में होय पवन से पतला, ढुंढ रहूं नहीं पावै।। विषय विकार डार बुगलों की, नित का संग सुहावै। मानक मान सरोवर त्यागै, भव जल गोता खावै।। अस्थिर करत बहुत दिन बीते, चेतन घर नही आवैं। नित्यानंद महबूब गुमानी, तुम बिन कौन छुड़ावै।।

*921 मन की तरंग मार लो बस हो गया भजन।।423।।

                               423 मन की तरंग मार लो बस हो गया भजन। आदत अपनी सुधार लो बस हो गया भजन।। आए हो तुम कहां से जाओगे तुम कहां।               इतना तो दिन विचार लो बस हो गया भजन। कोई तुम्हें बुरा कहे तुम सुन करो क्षमा।             वाणी का सुर संभाल लो बस हो गया भजन।। नेकी सभी के साथ में बन जाए तो करो।          मत सि रबदी का भार लो बस हो गया भजन।। कहना है साफ साफ यह सतगुरु कबीर का।             निज दोष को निहार लो बस हो गया भजन

*920 धीरे धीरे मोड़ तूँ।।423।।

                                   423 धीरे धीरे मोड़ तूँ इस मन को। इस को रे इस मन को। मन मोड़ा फिर डर नहीं, कोई दूर पृभु का घर नहीं।। मन लोभी मन कपटी, मन है चोर। कहते आए ये पल पल में और। बेइमान तूँ नादान तूँ, गफलत ऐसे कर नहीं।। जप यप तीर्थ सब होते बेकार,   जब तक मन में रहते भरे विकार। कुछ जान ले पहचान ले, होना है विचलित नहीं।। जीत लिया मन फिर ईश्वर नहीं दूर, जान बूझ कर इंसां क्यूँ मजबूर। अभ्यास से वैराग्य से, कुछ भी है दुष्कर नहीं।।

*919 मानत नहीं मन मेरा रे साधु भाई।।423।।

                                  423 मानत नहीं मन मेरा रे साधु भाई माने ना मन मेरा।। बार बार यह कह समझावे, जग में जीवन थोड़ा रे।। या काया का गर्व न कीजिए क्या सांवल क्या गोरा रे। भक्ति तन काम में आवे कोट सुगंध चबोरा रे।। या माया जिसे देख रे भूलो क्या हाथी क्या घोड़ा रे। जोड़ जोड़ धन बहुत बिगुचे, लाखन कोट करोड़ा रे।। दुविधा दुरमति और चतुराई जन्म गयो नर बोरा रे। अज हुं आन मिलो सतसंगत, सतगुरु नाम नेहोरा रे।। लेत उठाएं पड़त भूमि गिर गिर, ज्यो बालक बिन कोरा रे। कहे कबीर चरण चित रखो ज्यों सुई बिच डोरा रे।।

*918 समझ समझ गुण गाओ रे।।422।

                              422 समझ-२ गुण गाओ रे प्राणी, भूला मन समझाओ रे।          बालू के बीच बिखर गई बूरा, सारी हाथ न आवै जी।         ऐसा हो परदेसी म्हारा मनवा, चींटी बन चुग जावै जी।। जैसे कामनी चली कुएं को, घड़ा नीर भर लावै जी। धीरज चाल चले मतवाली, सुरत घड़े में लावै जी।।          जैसे सती चढ़े चिता पे, सत्त के वचन सुनावै जी।          उसकी सूरत रहे जलने में, डिगे ठौर ना पावै जी।। जैसे ध्यानी बैठा ध्यान में, ध्यान गुरु में लावै जी। शरण मछँदर जति गोरख बोले, सत्त छोड़ पत जावै जी।।

*917 मन रे अब की बार।।422।।

                                                                                                 422  मनरेअबकीबार सम्भालो। जन्म अनेक दगा में खोयो, गुरु बिन बाजी हारो।।      बालापन ज्ञान नहीं तन में, जब जन्मे तब बारो।     तरुणाई सुख वास में खोयो, बाजो कूच नगारो।। सुत दारा मतलब के साथी, जिनको कहत हमारो। तीन लोक औऱ चोदह भुवन में, सभी काल को चारो।।     पूर रहो जगदीश गुरुवर, वा से रहो न्यारो।।    कह कबीर सुनो भई साधो, सब घट देखन हारो।।

*916 मन्मुख मन चाहे मत मान।।421।।

                              421 मनमुख मान चाहे मत मान। बिन सतगुरु उपदेश जीव का होता ना कल्याण।। ऋषि मुनि ज्ञानी ध्यानी गए माला फेर फेर। जप तप यज्ञ किया अग्नि में घी गेर गेर मन काबू में आया कौन्या, हार गए हेर हेर       गयाजी प्रयागराज तीर्थ किया बार-बार।       त्रिवेणी इलाहाबाद नहाए गोता मार मार।        दान पुण्य पूजा पाठ खूब किया सार सार।                                 हो देखा पूज पूज पाषाण।।               हरिद्वार मथुरा काशी में मिले नहीं भगवान।। त्रिकाली में संध्या तर्पण व्रत और उपवास किया। पंच धूनी में खड़ा तपा जंगल के मा वास किया। जल का झरना लेकर योग मुद्रा का अभ्यास किया।       रेचक पूरक कुंभक क्रिया खूब किया प्राणायाम।         माघ पौष और सूर्य की, खूब सही सर्दी धाम।        मंत्र शक्ति की युक्ति से मुक्ति का मिला ना धाम।                       मिला ना वह सर्वशक्तिमान।।         ब्रह्मा विष्णु शिव जी भी खुद धर धर देखें ध्यान।। आ रही उतर के नीचे धार जोया राम की। सिंध से भी हुई नहीं, बूंद सत नाम की। माया में भरमाई रही भूल गई धाम की।         संत का अवतार धार काल ने उपाया भेष।        

*915 मनवा मान रे कहीं।।421।।

                                  421 मनवा मान रे कहीं। जग में जीना है दिन चार काफिर ऐसा दांव नहीं।। धन जो बन ने देख देख तू नाचे थई थई। तूं काल के आगे न्यू उड़ जा ज्यों तांत के आगे रूई।। हाथी घोड़ा पालकी दाता ने तुझे दई। आंख खोल कर देख लिए यह संग ना किसी के गई।। माया मिल गई जो मुझे खर्ची ना खाई गई। वह दाब जमीन में गया वह काम ना किसी के रही।। अब तो मनवा मान जा तन बहुत सी कही। कह कबीर सुनो भाई साधो ना डूबेगा मझ मई।।

*914। मनुआ मान रहे कह्यो।।421।।

                 मनवा मान रे कह्यो।     सतनाम एक सार जगत में भूल क्यों गयो।। बंद कोठरी बीच अंधेरा नो दस मास रह्यो।  बाहर आन के भूल गया क्यों जर में लिपट रह्यो ।।      भांति भांति के भोजन चाहिए, वस्त्र नित नयो।      घड़ी पलक का दुख अंधियारों क्यों ना जाए सह्यो।। ना तो तन मन वश में किया तृष्णा ने आन गह्यो। काम क्रोध की मझधारा में अब क्यों जात बहयो।।       मान मान मत करें मान जा लंकापति गयो।       साहेब कबीर के शब्दों से पापीको भी गर्व गयो।।

*913. मनवा रे राम भजन जगतार 420

           मनवा रे राम भजन जग तार।। बड़े-बड़े पृथ्वी के राजा छोड़ गए दरबार।।        चार दिवस जग बीच निवासा वृथा सकल पसार।। कंचन जैसी सुंदर काया पल में होवत जार।।      ब्रह्मानंद करो हरि सुमिरन उतरो भवजल पार।।

*912. देख तेरे ही मन मंदिर में।।420

देख तेरे ही मन मंदिर में बसा हुआ भगवान।                        अरे तू कर उसकी पहचान।। है घट घट में वास उसी का सूरज में प्रकाश उसी का। जीवन में है साथ उसी का सबके सिर पर हाथ उसी का।             भूल उसे क्यों भटक रहा है डगर डगर इंसान।। जीत अरे माया के अंधे डाल रहा यम सिर पर फंदे। हरि चरणों में आजा बंदे तज दे जग के गोरखधंधे।             हो जाएगी राम नाम ले , सब मुश्किल आसान।। अब तो आवागमन मिटाले मानव जीवन सफल बना ले। ज्ञान गंगा में आज नहा ले ब्रह्म ज्योति में जोत जला ले।             कह सेवक तूं गुरु सेवा से पावे पद निर्माण।।

*911 चलो रे मन यहां नहीं रहना।। 420

             चलो रे मन यहां नहीं रहना।। धोखे की दुनिया है यहां कोई नहीं अपना।         जब रे मना तेरा निकलेंगा प्राण ले चादर ढकना।। ने गज धोती सवा गज डोवटी यही मिलेगी दक्षिणा।।          चार जने मिल डोली उठाई जाए जंगल रखना।। चुनचुन लकड़ी चिता रे बनाई फिर लगा दी अगना।।          कहे कबीर सुनो भाई साधो नाम गुरु का जपना।।

*910 रे मन मुसाफिर।।420।।

                                                                  420 रे मन मुसाफिर निकलना पड़ेगा,                   काया कुटी खाली करना पड़ेगा।। चमड़े के कमरे को तूँ क्या सम्भाले,      जिस दिन तुझे घर का मालिक निकाले।            इसका किराया भी भरना पड़ेगा।। आएगा नोटिस जमानत न होगी,      पल्लू में अगर कुछ अमानत न होगी।              फिर हो के कैद तुझे चलना पड़ेगा।। मेरी न मानो यमराज तो मनाएंगे,      तेरा कर्म दंड मार मार भुगताएँगे।             घोर नर्क बीच  दुःख सहना पड़ेगा।। कह गीतानन्द फिरेगा तूँ रोता,      लख चौरासी में खाएगा गोता।             फिर फिर जन्म ले के मरना पड़ेगा।।

*909 रुक जा ओ पापी मन रुक जा।419।।

                              419 रुकजा ओ पापी मन रुकजा, सतगुरु के चरणों में झुक जा। तेरा शीश तले पग ऊपर थे सतगुरु जी से कॉल किया। मैं भजन करूंगा तेरा रे, तनी गर्भ बीच में वचन भरा।                      इब आशा तृष्णा में फस गया।। तने बाल अवस्था गवाई, तू खेला और खाया रे। जब जवानी चड़के आई उस मालिक को बुलाया रे                      फिर आवे बुढ़ापा सुकड़ जा। बिन सतगुरु के कौन बचावे, जब-यम पकड़ ले जावेगा। पेश उड़े तेरी चाले ना, पिंजरे ने तोड़ भगा देगा।                    जब काल की जेल में ठुक जा।। तने 600 मस्ताना समझावे अब तो हो जा बैरागी रे। सत्संग सुमिरन वाणी में तेरी सुरता कोना लागी रे                   इब शब्द रंग में रंग जा।।               

*908 मन मगन हुआ फिर क्या गावे।।419।।

                                 419 मन मगन हुआ जब क्या गावे।। यह गुण इंद्रिय दमन करेगा वस्तु अमोली पावे। त्रिलोकी की इच्छा छोड़ें जग में विचरे निर्दावे।। उल्टी सुरती निर्ति निरंतर बाहर से भीतर लावे। अधर सिंहासन अविचल आसन जहां वहां सुरती ठहरावे।। त्रिकुटी महल में सेज बिछी है द्वादश अंतर छिप जावे। अजर अमर निज मूरत सूरत ओम सोंग दम ध्यावे।। सकल मनोरथ पूर्ण साहिब फिर नहीं भव जल आवे। गरीबदास सत्पुरुष वैदेही सांचा सतगुरु दरसावे।।

*907 मन मगन हुआ रे अब क्या डोले।।419।।

                              419 मन मगन हुआ रे अब क्या डोले। हीरा पाया गांठ गठियाया, बार-बार वा को क्यों खोलें।। हल्की थी जब चडी तराजू पूरी भाई फिर क्या तोले।। सूरत कलारी भई मतवाली मदवा पी गई बिना तोले। हंसा पावे मानसरोवर, फिर ताल तलैया क्यों डोले।। तेरा साथ है तुझ भीतर फिर बाहर नैना क्यों खोलें। कह कबीर सुनो भाई साधो साहब मिल गया तिल ओलहे।।

*905 मन मेरा हो, हो चल।।418।।

मन मेरा हो हो चल परम फकीर।। काम क्रोध मद लोभ मोह की पैरों पड़ी जंजीर।। पांच तत्व का बना पुतला संग ना चले शरीर।। भाई बंधु कुटुंब कबीला कोई ना बंधावे धीर।। कह कबीर सुनो भाई साधो उस दिन की तदबीर।। 

*904 मन परदेसी रे यहाँ।।418।।

                               418                                 मन प्रदेशी रे, यहाँ न तेरा देश।। सत्त बोलो औरसत्त में रहना, जैसी कहे कोई वैसी सहना।         ये है तेरी मोक्ष का लहना, इस को रटो हमेश।। सत्त वचन गुरू जी का मानो, जगजाल झूठा कर जानो।      ये है तेरा सत्य ये जानो, सद्गुरु भजो हमेश।। जहाँ भी देखो रूप हमारा, कोई नहीं है हम से न्यारा।     यही मूल मंत्र है हमारा, ध्यान लगा के देख।।  रविदास तो सत्य लखागे, धर्मिदास चरणों चित्त लागे।    मीरा जी को सत्य बतागे, सद्गुरु का उपदेश।।

*903 भूले मन समझ के लाद।।418।।

                                  418 भूलेमन समझ के लाद लदनियां।। थोड़ा लाद बहुत मत लादें, टूट जाए तेरी गरदनिया।। भूखों होय तो भोजन पा ले, आगे हाट न बनिया।।  प्यासों होय तो पानी पीले, आगे देश निपनिया।। कह कबीर सुनो भई साधो, काल के हाथ कमनीया।।

*902 मन खोज ले मिले अविनाशी।।418।।

                                 418 मन खोज ले मिले अविनाशी, घट में तेरे मथुरा काशी।  अंड पिंड ब्रह्मांड में देखो।                सात दीप नौ खंड में देखो।                            गगन पवन में करो तलाशी।। उसका तो घर है तेरे ही घर में।              काहे को भटक रहा वृथा डगर में।                            कर ले ध्यान तू जग के वासी।। भूल भुलैया का तोड़दे ताला।               अंधियारा दूर कर होगा उजाला।                                            सतगुरु ज्ञान काटे यम फांसी।। रामकिशन जग सपने की माया।               माया में तूने खुद को भूलाया।                            कर दे भुगतान बढ़ जाए राशि।।

*901 आई रे मनवा आई आज तेरी बारी।।417।।

                             417 आई रे मनवा आई आज तेरी बारी। काल जाल लिए द्वार खड़ा कौन गुदड़ी थारी।। सुंदर काया देख के लाग्या करण किलोल। भाई बंधु सब तेरा बजा रहा रे ढोल।                           करे था बड़ी खिलाड़ी।। धन माया जोड़ के चढ़ा जोबन का रंग। ना देखा कभी पलट के राम का ढंग।                         चला कर सूनी गलियारी। तीर्गुण  माया का महल ईटी पांच रंगी। मैं मैं करता फिरे जा घमंड की झंडी।                       बंधी एक पुड़िया में सारी। रामकिशन दीया काट झमेला, हो गया चकनाचूर। आत्मराम कभी ना चेता रहा राम से दूर।                          कर चलने की तैयारी।।

900. मन की जो फेरे माला योगी जन वही।।417

       मनकी जो फेरे माला जोगी जन वोही।। हाथ ना हाले जीभ ना चाले, तन को न होय कसाला।। नाभि नासिका एक मिलावे गुप्त चाल से खोले ताला।। जाकर बैठे भंवर गुफा में हटे भरम का जाला।। दसवें दवारे बाजे बाजे कह कबीर होई निहाला।।

*899. रोवेगा लोभी तक।।417।।

                                                                        417 रोवेगा लोभी, थक जांगे पौरुष तेरे।।   आज तूँ जिस को कहता मेरे, होंगे वे दुश्मन तेरे।   तेरे खोदे तुझे मिलेंगे, तेरे हाथ के झेरे।।  उस कुनबे ने के सिर पे धरेगा, जिस को कहता मेरे। कुनबे खातिर पिटता डोलै, बोले झूठ भतेरे।।    बुढा हो के सिकल बिगड़ जा, काल लगावैं फेरे।    गुरु का शब्द सत्य नहीं माना, समझे ऊत लुटेरे।। महल हवेली सभी छूट जा, हो मरघट में डेरे। कह कबीर सुनो भई साधो, जगह चौरासी में गेरे।।

*898 भाई में नित कहूं समझाए।।416।।

भाई मैं नित कहूं समझाए, छोड़ दे मेरी मेरा रे।। जिनको तू कहता है अपना यह तो है सब रेन का सपना।                      लगा जग जोगी वाला फेरा रे।। कुलकुटूमब नाती परिवारा एक दिन सबको देय किनारा।                    अंत श्मशानो में डेरा रे।। राचा मांचा अब फिरता है मौत का खौफ ना सिर धरता है।                    फिर रहे तेरे यमदूत चोफेरा रे।। काल-जाल से जो बचना चाहो सतगुरु की टहल बजाओ।                    करे दिल का दूर अंधेरा रे।। सतगुरु ताराचंदजी दे रहे हेला कंवर समझ यह जगत झमेला                  कोई करो निज धाम बसेरा रे।।

*897 मन को डांट ले गुरु वचन पर।।416।।

                                  416 मन को डांट ले गुरु वचन पे, जम जालिम का मीठे खटका।। आदत है इसकी भागन की मानेगा नहीं यह हठ का। जहां से हटावें वही जावेगा, पक्का है अपनी हठ का।। इतना समझाऊं एक ना माने फिरता है भटका भटका। ज्ञानी योगी पैगंबर मारे, काम क्रोध का दे झटका। बिना बात नित भरे उडारी, एक ठोर पर नहीं डटता। बुद्धि चित्त अहंकार सभी पर हुकुम इसी का है चलता।। नाम लगाम बिना नहीं रुकेगा, घाल लगाम और बांध पटका। सतगुरु ताराचंद कहे समझ कंवर,                          क्यों फिरता है भटका भटका।।

*896 वश में कर ले मन ।। 415।।

                                                              415 वश में करले मन शैतान को, खुद होजा मस्त दिवाना।। काजी कहे खुदा हैं कक्के, खाते फिरें भर्म के धक्के। हैं नहीं पूर्ण मन के पक्के, छोड़ दिया ईमान को।                             नहीं पावै ठोर ठिकाना।। तीस दिनों तक रोजा रहते, बिना विचार क्यों भूखा रहते। जीव हिंसा से क्यों ना डरते, कहां पे लिखा कुरान में।                              जो खाते मांस वीराना। कलमा पढें व पढें नवाजी, सबकी मति हर लेते काजी। इन बातों से मिले न बाजी, नहीं पावै नूर निशान को।                              होगा दोज़ख़ में जाना।। सदा मांस तुम खात मीन का, पंथ चलाते सदा सीन का। गंगादास पद कह दीन का, भूल गए रहमान को।                             फिर मिले न पद निर्वाणा।।     

*895 मन के लगाए पिया पावे रे साधु।।415।।

                              415 मनके लगाए पिया पावे रे साधो।                      किसी विधि मन को लगाऊ जी। जैसे नटनी चढ़े बांस पर नटवा ढोल बजावे जी। इधर-उधर से निगाह बतावे, सूरत बांस पे लावे जी।। जैसे पनिहारी चली जल भरने, सखीयों संग बतालावे जी। सिर पे से घड़ा घड़े पे झारी, वा तो झारी में सूरत लगावे जी।। जेसी बूरा बिखरी रेत में हाथी के हाथ नहीं जावे जी। ऐसा नन्हा बन मेरे मनवा चींटी बन चुग जावे जी।। जैसे भुजंगा चला चूगा चुगने, मनी को अलग धर आवे जी। चुगा चुगे रहे ध्या न मणि में, बिछड़े तो प्राण गंवाए जी।। जैसे सपेरा चला सांप पकड़ने, टाट दूर धर आवे जी। कह कबीर सुनो भाई साधो, नेनो से नैन मिला वे जी।।

*893 मन रहना हुशियार।।415।

                                                                      415 मन रहना होशियार, एक दिन चोर सिपाही आवैगा    तीर तंवर तलवार न बर्छी, नहीं बन्दूक चलावैगा।    आवत जात लखै ना कोई, घर में द्वंद्व मचावैगा।। ना गढ़ तोड़ै ना गढ़ फोडें, ना वो रूप दिखावैगा। नगर से कोई काम नहीं है, तुझे पकड़ ले जावैगा।।   नहीं फ़रयाद सुनेगा तेरी,न कोई तुझे बचावैगा।   कुल कुटुंब परिवार घनेरा, एक काम नहीं आवैगा।। धन संपत्ति महल अटारी, छोड़ सकल तूँ जावैगा।  खोजे खोज मिले न तेरी, खोजी खोज न पावैगा।।    है कोई ऐसा शब्द विवेकी, गुरू गुण आए सुनावैगा।    कह कबीर सोवै सो खोवै, जागेगा सो पावैगा।।

*892 रे भूले मन वृक्षों को मति ले रे ।।415।।

                             415 रे भूले मन वृक्षों का मत ले रे।। काटनीय से नहीं बैर है सिंचनियासे नहीं सनेह रे। जो कोई वा को पत्थर मारे वाही को फल दे रे।। शीत घाम सब आप ही ओट, औरों को सुख दे रे।। कह कबीर शरण ले गुरु की, भवसागर तर ले रे ।

*891 तोरा मन दर्पण कहलाए।। 415

        तोरा मन दर्पण कहलाए।   भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए।।            मन ही देवता मन ही ईश्वर मन से बड़ा ना कोई।।           मन उजाला जब जब फैले जग उजियाला होए।। सुख की कलियां दुख के कांटे मन सबका आधार। मन से कोई बात छुपे ना मन के नयन हजार।।       तन की दौलत ढलती छाया मनका धन अनमोल।।       तनु के कारण मन के धन को मत मिट्टी में रोल।।

*890 मन राम सुमर ले ला ले गुरु में ध्यान।।

मन राम सुमर ले लाले गुरु में ध्यान।। स्वासा रूपी पूंजी लाया आज झगड़े में भूल भुलाया। ब्याज सहित त्नै मूल गंवाया, कुछ भी ना आया काम।। इच्छा आशा तृष्णा जागी बुद्धि इनमे ऐसी लागी। विषय वासना में फिरे हैं भागी तने लूट रहा अभिमान।। बुरी करन से खोफ ना करता जैसी करनी वैसी भरता। भली साख एक भी ना सुनता बंद कर बैठा कान।। सत्संगति नीति ही करना ध्यान गुरु के लाओ चरणों। बार-बार नहीं जीना मरना भटको ना चारों खान।। सतगुरु ताराचंद समझाते भाई, करले करले नाम कमाई। कंवर इसी में तेरी भलाई कौड़ी लगे ना दाम।।

*889 मन मार सूरत ने डाटो रे।। 414।।

                                                            414 मन मार सुरत ने डाटो रै, निर्भय बनो फकीर।। माला जपै तो ऐसे जपनी, जैसे चढ़े बांस पे नटनी।             मुश्किल है ये काया डटनी।                          डटे तो परले पार।। जल भरने को चली पनिहारी, सिर पे घड़ा घड़े पे झारी।            हाथ छोड़ बतलावै सारी,                           छलकन दें ना नीर।।  गैया चरण गई थी वह में, बछड़ा छोड़ गई भवन में।          सुरत बसै बछड़े के मन मे,                           ऐसे साध शरीर।। कुमोदिनी का जल में वासा, चन्द्रमा की लग रही आशा।          सुन ले रे तूँ, धर्मिदासा,                          कह गए दास कबीर।।

*888 तेरी दुर्मत कौन मिटावै।।414।।

                                                             414 तेरी दुर्मत कौन मिटावै रे मन तनै,गुरू भक्ति ना भावै।। खर पकड़ पौल बीच बांधा, हरी हरी घास चरावै। शाल दुशाले कितने उढा लो,फेर भी कुरड़ी पै जावै।।    काग पकड़ पिंजरे में रोक्या, चारों वेद पढावै। कितने मनखा दाख चुगा लो, काग कर्क पै जावै।। सर्प पकड़ पिटारे में रोक्या, नाना बीन बजावै।  कितने दूध पतासे प्यालो, डंक मार डंस जावै।।  गुरू के वचन में चेला चालै, माँ के वचन में बेटी। कह कबीर सुनो भई साधो, इस विध दुर्मत मेटी।।

*887 मेरा मन बानिया जी।।413।।

                                413 मेरा मन बानिया जी, अपनी बाण कदे ना छोडै।। हेरा फेरी के दो पलड़े, ऊपर कानी डांडी।               मन में छल कपट हृदय में,                                        हाट चौरासी माण्डी।। पूरे बाट परे सरकावै, कमती बाट टटोले।                 पासंग माही डांडी मारै,                                 मीठा मीठा बोलै                             घर में इसके चतुर बनियानी,  छिन-२ में चित्त चोरै।                 कुनबा इसका बड़ा हरामी,                                    अमृत में रस घोलै।। जल में वोही थल में वोही, घट घट में हरि बोलै।                 कह कबीर सुनो भई साधो,                                      बिन मतलब नहीं बोलै।।

*886 मन कहां लगा लिया रे हर से क्यों तोड़ी।।413।।

                             413 मन कहां लगा लिया रे, हरि से क्यों तोड़ी।। तू तो आया बंदे राम भजन में कौन-बोन्द भई तेरी। अन्य देव की करे तृष्णा हरी से कर रहा चोरी।। जिसकी खातिर अमन कमावे कर्ता मेरा मेरी। आखिर यम तेरा घट घेरेंगे बात ना बूझे तेरी।। कोरा सा कपड़ा मुख पर डाला, झटक तागड़ी तोड़ी। चार जने तने उठा कर चले बाग किसी ने ना मोड़ी।। ,,, ,,,,,,

*885 मेरा तेरा मनवा भाई।।413।।

                           413 मेरा तेरा मनवा भाई, एक कैसे होइ रे।। तूँ कहता कागज की लेखी, मैं कहता आंखों की देखी। मैं कहता तूँ जागत रहिये तूँ जाता पड़ सोई रे।। मैं कहता सुलझावन आली, तूँ जाता उलझाई रे। मैं कहता निर्मोही रहिये, तूँ जाता है मोही रे।। जुगन-२ समझावत हारा, कहा न मानै कोई रे। तूँ तो रँगी फिरै विहंगी, सब धन डारा खोई रे।।  सद्गुरु धारा बहे निर्मली, वा में काया धोई रे। कह कबीर सुनो भई साधो, तब ही वैसा होइ रे।।

*884 मन ऐसा ब्याह करवा रे।।413।।

                                                               413 मन ऐसा ब्याह करवा रे, तेरी सहज मुक्ति हो जा रे। पांचों बान समझ कै न्हा ले,                        दया का बटना लगा रे।। ज्ञान का कंगन, प्रेम की मेहंदी।                       सत्त का मोड़ बंधा रे।। पाँच पच्चीसों तेरे, चढेंगे बराती                         निर्भय ढोल बजा रे।। साँसमसास मन फेरे भी ले ले।                        त्रिकुटी चोरी मंढा रे।। सुरत सुहागन मिलेगी पिया से।                        तूँ पर घर मत ना जा रे।। कह कबीर सुनो भई साधो।                        आवागमन निसा रे।।

*883. क्या पानी में मलमल नहाए।। 412।

क्या पानी में मल मल नहाए,मन की मैल उतार प्यारे। हाड़ मांस की देह बनी है, झरे सदा नव द्वार प्यारे। पाप कर्म तन के नहीं छोड़े, कैसे होए सुधार प्यारे।। संवत तीरथ जल निर्मल, नित उठ गोता मार प्यारे। ब्रह्मानंद भजन कर हरी का, जो चाहे निस्तार प्यारे।।

*882 मनवा बना मदारी रे।।412।।

                               412 मनवा बना मदारी रे। इंद्रिय वश रस फंस के, खो दई उम्र सारी रे।। आंख से देखा नहीं पड़ेगा लगी त्रिष्णा भारी रे। झूठ जाल में झूल रहा लगी सच्ची खारी रे।। लोभ बजाई डुगडुगी करी काम सवारी रे। लगी आपदा नहीं डांटता फिरे दर-दर मारी रे।। पितर देवी गोगा पूजे, रहा ख्वारी रे। जंतर मंतर पूजा आरती खूब उतारी रे।। कदे ना आया संत शरण में ना भरम निकारी रे। उलझ उलझ के ऐसा उलझा ना ज्ञान विचारी रे।। सतगुरु ताराचंद कहे समझ,  करो सत सवारी रे। शब्द नाव में बैठो राधा स्वामी धाम उतारी रे।।

*881 मनवा तूँ किस का सरदार।।412।।

                                                               412 मनवा तूँ किसका सरदार, रे तेरी रैय्यत है खोटी।।   तेरे नगर में पाँच जुलाहे, जो नित करते व्यापार।   रात दिनां मुड़ते नहीं हारे, बिना काम का तार। रे।। तेरे नगर में पाँच कमीनी, करें नई नई कार।  पाँचों किसी का कहा न मानै, बहोत घनी बदकार। रे।।    जब पाँचों को पता नहीं था, या नगरी थीं गुलजार।    जब पाँचों को खबर पड़ी, तेरी नगरी दई उजाड़। रे।। इस नगरी को फेर बसाओ, कर पाँचों सङ्ग रार। कह रविदास सुनो भई साधो, लूटो अजब बहार। रे।।

*880 बदल जा हो मनवा हो जागा बेड़ा पार।।411।।

                             411 बदल जा हो मनवा, हो जागा बेड़ा पार।। सोने-चांदी में चोंच मंढा दई, चला हंस की चाल।  कौवा बाण कदे ना छोड़े, आदत से लाचार।। जुग जुग सिंचो अरंड दूध से, लगते नहीं अनार। चूर चूर चंदन कर डारो, तजे नहीं महकार।। सज्जन के मुंह अमीरस बरसे जब बोलने तब प्यार। दुर्जन का मुंह बंद कर रखो, भट्टी भरे हैं अंगार।। कहे कबीर सुनो भाई साधो, पकड़ शब्द टकसार। सच्चे गुरु का शरना ले ले, हो जाएंगे परले  पार

*879. बाणा बदलो सो सो बार।।411।।

                                                                     411 बाणा बदलो सो सो बार, बदलो बाण तो बेड़ा पार।।    सोना चांदी में चोंच मंढाई, किया हंस की लार।    कागा बाण कुबाण तजे ना, इत सत्संग लाचार।। युग युग सींचो अरण्ड दूध तैं, लागैं नहीं अनार। चूर चूर चंदन कर डारो, तजै नहीं मेहंकार।।    सज्जन के मुंह अमिरस बरसै, जब बोलै जब प्यार।   दुर्जन का मुंह बंद कर राखो, भट्ठी भरे हैं अंगार।। हमने तो अपनी सी कह दी, नहीं और ने सार।  शम्भु दास शरण सद्गुरु की, सिमरो सर्जनहार।।

*878 तजो रे मन हरि विमुखन को संग।।411।।

                               411 तजो रे मन हरि विमुख को संग। जिनके संग कुबध उपजे पड़े भजन में भंग।। क्या होई पये पान कराए विश नहीं तज़े भुजंग। कागा कहां कपूर चुगाए स्वान नहाए  गंग।। खर को कहां अर्गजा लेपन, मर्कट भूषण अंग।। गज को कहा नहाई सरिता, फिर धरें खेह अंग।। वाहन पतित बाण नहीं बेधत रितो करें निशंक। सूरदास की काली कमरिया, चड़े ना दूजा रंग।।

*877. छोड़ मन मेंरा रे।। 412

छोड़ मन मेरा रे बे मुखिया रो संग।। पहली संगति में कुब्ध उपजे पड़े भजन में भंग।। जितनी मूंज भेवो गंगाजल उतनी होगी तंग।। अरंड कहे मेरे परमल आयो चंदन तजे ना सुगंध।। कितना ही दूध पिला लो सर्प को आखिर मारे डंक।। गरीबदास की काली कमरिया चले ना कि जो रंग।।

*876 मेरा मन मूर्खा भाई।।410।।

                                                             410 मेरा मन मूर्खा भाई, गुरू बिन जागा कौन सी घाटी।। अगम से पच्छम चल आया, बंक नाल की घाटी। इस काया में दस दरवाजे, पंक लगै ना टाटी।। घाटी दूर पहुंचना मुश्किल, आगै विषम कराटी। रपट पड़ै तो ठौर न पावै, जग में होजा हाँसी।। हिन्दू मुश्लिम दो दीन बता दिये, बीच भर्म की टाटी।  सांस यमोँ ने छीन लई तेरी, पड़ी रह गई माटी।। सौदा करै तो यहाँहीँ करले, आगै भिंचवाँ घाटी। बैल बने कंगाल का, तेरे ऊपर बाजै लाठी।। कह कबीर सुनो भई साधो, यह सुनने की बाती। यम राजा की फौज खड़ी है, त्रिवेणी के घाटी।।

*875 मन रे क्यूँ भुला।। 410।।

                               410 मन रे क्यों भुला मेरे भाई। जन्म जन्म के कर्म भरम तेरे, इसी जन्म मिट जाई।। सपने के में राजा बन गया, हस्कीम हुक्म दुहाई। भोर भयो जब लाव न लश्कर आंख खुली सुद्ध आई।। पक्षी आन वृक्ष पर बैठे, रलमिल चोलर लाई। हुआ सवेरा जब अपने अपने, जहाँ तहाँ उड़ जाई।। मातपिता तेरा कुटुंब कबीला, नाती सगा असनाई। ये तो सब मतलब के गरजु, झुठी मान बड़ाई।।  सागर एक लहर बहु ऊपजै, गिनु तो गिणी ना जाई। कह कबीर सुनो भइ साधो, उलटी ए लहर समाई।।

*874 रे मन मुरखा भाई गुरु बिन लखेगा कौन सी घाटी।।406

                           406 रे मन मूरखा भाई गुरु बिन लखेगा कौन सी घाटी।। बिना गुरु तू बैल बनेगा, चल तेली के बाटी। सींग से टुंडा पूंछ से लुंडा, पड़े कमर पे लाठी।। बिना गुरु तू बकरा बनेगा जंगल घास चरेगा। देवी देवता का नाम लेकर तेरी गर्दन जागी काटी।। नो इंद्री को वश में कर ले दशमा मन कर डाटी। धर्मराज की फौज पड़ी है त्रिवेणी के घाटी।। सभी संतो ने खोज करी है कहीं नहीं है नाटी। रविदास जी ने पता लगाया भर भर खो बाटी।।

*873 रे मन मान जा तन की।।409।।

                                 409 अरे मन मान जा तन की बनेगी एक दिन माटी।।  खोटी खोटी करे कमाई खूब जोड़ ली गांठी। इसी कमाई कर ले बंदे, कदे ना जाए बाटी।। जैसी करता वैसी भरता यह समझन की बाती। यह संसार कर्म की खेती जो बोई सो काटी।। वेद कुरान दो दिन बना दिए और बना दी जाति।  संत कहे सब एक समान क्या धोबी क्या खाती।।  एक दिन हो जंगल में डेरा नहीं समझ में आती।  माटी में तेरी माटी मिल जा राख कहीं उड़ जाती।। सतगुरु जी के चरणों हो ले, बेड़ा पार लगा दी।  विजय कुमार सोनी जी सहज कटे चौरासी।।

*872 मन नेकी करले दो दिन।।409।।

                               409 मन नेकी करले दो दिन का मेहमान।। जोरू लड़का कुटुंब कबीला, दो दिन का तन मन का मेला। अंत काल उठ चले अकेला, तज माया अभिमान।। कहां से आया कहां जाएगा, तन छूटे मन कहां जाएगा। आखिर तुझ को कौन कहेगा, गुरु बिन आतम ज्ञान।। यहां कौन है तेरा सच्चा साईं, झूठी है यह जग सुनाई। कौन ठिकाना तेरा भाई, कहां बस्ती कहां गांव।। रहट माल कूप जल भरता, कभी भरे कभी रीता फिरता। एक बार तुम जनमें मरता, क्यों करता अभिमान।। लख चौरासी लगी त्रासा, ऊंच-नीच घर करता वासा। कहे कबीर सब छूटे वासा, ले लो हरि का नाम।।

*871 मन लागो मेरो राम फकीरी में।।408।।

                               408 मनवा लागे मेरा राम फकीरी में।। जो सुख देखा राम भजन में वह सुख नहीं अमीरी में। भला बुरा सबकी सुन लीजिए कर गुजरान गरीबी में।। प्रेम नगर में रहन हमारी, भली बनाई शबुरी में। हाथ में कुंडी बगल में सोंटा, चारों कूट  जगीरी में।। आखिर में तन खाक मिलेगा कहां फिरे मगरुरी में। कह कबीर सुनो भाई साधो साहिब मिलेंगे सबुरी में।।

*870 कोई बदलेंगे हरीजन सूर ।।408

    कोई बदलेंगे हरिजन सूर मनवा तेरी आदत ने।। चोर जवारी क्या बदलेंगे माया के मजदूर। भांग तमाकू अमल धतूरा रहे नशे में चूर।।      पांच विषयों में लटपट हो रहे सदा मती के क्रूर।     उनको तो सुख सपने ना ही रहे साहिब से दूर।। पाचों ठगनी मिलकर लूटें, माहे तृष्णा हूर। बे अक्ली में हम लूटेंगे, मचा रही हस्तूर।।       उत्तम कर्म हरी की भक्ति सत्संग करो जरूर।        जन्म-जन्म के पाप कटेंगे हो जाएंगे माफ कसूर।। सुरती समृति वेद की नीति गुरु मिले भरपूर। संत जोतराम समाज का मेला सच्चिदानंद नूर।।

869. मन तेरी चाल समझ ना आई।। 408

      मन तेरी चाल समझ ना आई। पल में उपजे पल में विनसे ज्यों बादल की छाई।।          लोभ लांगुरा करे सवारी इत उत डाक लगाई।          दर दर पर फिरे भरमता हाथ कछु नहीं आई।। काम क्रोध और इच्छा तृष्णा इनमें रहा समाई। क्षण में दुखी और क्षण में दुखी पल-पल दुविधा दुचिताई।।     इंद्रियां वश में फस कर रहे बदन की भूल भुलायी।     मृगा के ज्यों चाल भरे माने ना समझाई।। झूठा लेना झूठा देना झूठ में रहे लपटाई । कभी सत्य ना चित् में लाता, यूं ही उम्र गवाई।।      सतगुरु ताराचंद जी का नाम दान ले मन को लो दबाई।     जितने लागे मेल पुराने सतगुरु साबुन से धुल जाएगी।।

*868. हुआ मन गुरु भक्ति में लीन।।

               हुआ मन गुरु भक्ति में लीन।। ज्यों रैना के साथ चंद्रमा ज्यों सागर में मीन।       जैसे सावन संग घटाएं जैसे धरती संग दिशाएं।       जैसे गीत के बोल हुए हैं स्वरों में आसीन।। क्यों बादल में चमके बिजली ज्यों सीप में मोती। ज्यों सूरज की किरने करती सुबह को रंगीन।।     हर पल गुरुवर के गुण गाओ चरणों की रज माथे लगाओ।     स्वामी गीतानंद गुरुजी का स्मरण करूं निश दिन।।

*867. मेरी तेरी करके खो गई उम्र सारी रे।। 407

मेरी तेरी तेरी मेरी करके खो दई उम्र सारी रे।           कंगले मन नहीं विचारी रे।। ने दस मास गर्भ में रखा माता थारी रे। बाहर निकालो भक्ति करूंगा सतगुरु थारी रे।।       याना था फिर स्याना हो गया उम्र संभाली रे।       मात पिता ने गाली बकता त्रिया प्यारी रे।। आडी टेडी पगड़ी बांध के बना पुजारी रे। पैसा कोन्या तेरी गांठ में लाया उधारी रे।।       सतगुरु बातें करें ज्ञान की वे लागे खारी रे।       कहे कबीर सुनो भाई साधो करनी थारी रे।।

*866. आएगा तेरे काम नाम की।। 407

आएगा तेरे काम नाम की बालद भरले रे।                    लोभी मन राम सुमर ले रे।। संत बतावे बात ज्ञान की तूं चित में धरले रे।  जन्म अमोलक सफल करे तो यहां ही कर ले रे।।        भव सागर एक नदी अगम है नौका पर ले रे।        राम नाम की बैठ जहाज में तू पार उतरले रे।। खोटी खोटी करे कमाई तू कुछ तो डर  ले रे। आगे पावे धर्मराज तेरी खूब खबर ले रे।।       काम क्रोध मद लोभ मोह इन पांचों से डरले रे।       कह कबीर जो मुक्ति चाहवे तो जीवित मरले रे।।

*865 मेरी तेरी तेरी मेरी करके।।407।।2।।

                                                            407 मेरी तेरी-२ करके खो दइ, उम्र सारी रे।        लोभी मन नहीं विचारी रे। कंगले मन।। नो दस मास गर्भ में खेला, माता थारी रे। बाहर आन के भूल गया तूँ, सुद्ध बुद्ध सारी रे।।     बालापन में गोद खिलाया, बहना थारी रे।     शादी हो गई त्रिया आई, लगी हर से प्यारी रे।। कोढ़ी कोढ़ी माया जोड़ी, बना हज़ारी रे।  अंत समय में रीता चाल्या, बना भिखारी रे।।    रुक गए कण्ठ दसों दरवाजे, माची घ्यारी रे।    कह कबीर सुनो भई साधो, करनी थारी रे।।

*863 मेरे पूरे गुरु ने पकड़ लिया मन मेरा।। 406

            मेरे पूरे गुरु ने पकड़ लिया मन मेरा।। यह मन है माया का लोभी धन का खूब लुटेरा। ऐसा बाण मारा सतगुरु ने गुप्त कोठरी में गेरा।।       यह मलवा तो शरी सर्प है मारे डंक भलेरा।       ऐसी बीन ज्ञान की बजाई बन गया आप सपेरा।। यह मृग की आदत, सूंघा घास घनेरा। ऐसा बाण ज्ञान का मारा घायल करके गेरा।।      सूरत निरत बीच देख तमाशा होजा दूर अंधेरा।      भानी नाथ शरण सतगुरु की अमरापुर में डेरा।।

*862 मनवा उल्टी तेरी रीति।। 405

           मनवा उल्टी तेरी रीत किन्ही परदेसी से प्रीत।। स्वार्थ के सब बंधु जगत में सुत दारा और मीत।           जीव अकेला आगे जावे कोई ना संगी मीत।। यह संसार स्वप्न की रचना तुम समझे एक रीत।         घड़ी पलक का नहीं ठिकाना क्या बंधु क्या मीत।। हरि का भजन करो मेरे प्यारे चल अपने को ही जीत।        ब्रह्मानंद परम पद पावे तू भव जावे जीत।।

*861 रे मनवा राजा जाएगा कौन सी घाटी।।

रे मनवा राजा जाएगा कौन सी घाटी।। कौन दिशा ने आई मन पवना कौन दिशा को जासी। कौन दिशा न भजन उभरिया, कौन दिशा रम जासी।। आगम दिशा से आई पवना पश्चिम दिशा को जासी। बंक नाल से भजन उभरिया, ररंकार में रम जासी।। ऊंची नीची सूरत करे ना चंदा ज्योति रवासी। तत्व नाम का खेत पूर ले, जगा करें दिन राती।। बारह अंगुल सेवता सोलह अंगुल फांसी। सवा हाथ रो भगवा चोलो, त्रिवेणी री घाटी।। दीपक में एक दीपक दर से दीपक में एक झाई। झाईं में परछाई दर से, वहां बसे मेरा साइ।। कहे मछंदर सुन जती गोरख, जाति हमारी तेली तेल तेल सो काट लिया, खल पशुओं ने मेली।।

*860 पंथीड़ा पंथ बाका रे।।404।।

                               404 पंथीड़ा पंथ बांका रे। पंथ बांका मुक्ति नाका अजर झांका रे। कौन कामधेनु धाम है रे जीने सतनाम चाखा रे।। महल बारीक एक दो बार है जहां सरवन थाका रे। जोगन जोगन में के हंस बिछड़े, धनी मिला ना क्या रे।। कोटी भानु जियाला है, जहां जगमगाता रे। भय मिटा निर्भय हुआ रे, मिटा यम का संसारे।। प्रेम आगे नेम कैसा सभी थाका रे। कह कबीर शरीर झूठा शब्द सांचा रे।।

*859 एक दिन सबको जाना होगा रीत यही संसार की।।

एक दिन सबको जाना होगा रीत यही संसार की। इस मन को समझाना होगा रीत यही संसार की।। पांच तत्व से बनी यह काया पांच तत्वों में मिल जाए। जितना जिसको मिला है जीवन उतना ही वह जी पाए।          जाने कहां ठिकाना होगा रीत यही संसार की।। इस जग में है सभी मुसाफिर करते रेन बसेरा। मोह माया के कारण कहते यह मेरा यह तेरा।         अपना ही बेगाना होगा रीत यही संसार की।। बस यह आत्मा अविनाशी है इस को शांति दे भगवान। करें प्रार्थना परमेश्वर से, दुख से मुक्ति दे भगवान।         इस दुख को तो सहना होगा रीत यही संसार की।।

*858 गुरु चरणों से प्रीत ना जोड़ी जग से रिश्ता जोड़ लिया।403।।

                                    403 गुरु चरणों से प्रीत ना जोड़ी जग से रिश्ता जोड़ लिया।         विषयों के चक्कर में पड़कर, प्रभु से नाता तोड़ लिया।। गर्भ की अग्नि में रख रहा था कहता था प्रभु आओ तुम। नरक कुंड में लटक रहा हूं आ कर मुझे बचाओ तुम।             अब सब कुछ क्यों भूला बंदे,                            नाम भजन क्यों छोड़ दिया।। बचपन बीता खेलकूद में और जवानी भोगों में। वृद्धावस्था चली जा रही, तृष्णा चिंता रोगों मे।          माया की इस चकाचौंध में,                              ज्ञान रतन क्यों फोड़ दिया।।

*857 भजन बिना बने खवारी रे जगत में सदा नहीं रहना।।

भजन बिन बने खवारी रे जगत में सदा नहीं रहना।। ना कुछ लाया ना संग जाता कर्मोंका कर्जा जीव चुकाता।              जैसा करे वैसा फल पाता सदा करारी रे।। भूल करें तो फिर पछतावे फिर यह वक्त हाथ नहीं आवे।               चोरासी में धक्के खावे संकट भारी रे।। उमर रूपी पूंजी लाया, इसका ना कुछ फायदा ठाया।              चोर ठगों ने लूटी माया बना भिखारी रे।। सतगुरु ताराचंद कहे सत्य वाणी, नाम भजे से कटे खवारी।          कह रूपचंद ले नाम निशानी, हो नैया पार तुम्हारी रे।।

*856 त्याग के ने चलना होगा।।402।।

त्याग के ने चलना होगा, सद्गुरु के दरबार में।            बिन सद्गुरु तनै राह न पावै, आना पड़े सन्सार में।। भाई बन्धु कुटुंब कबीला, सब तैं तनै जोड़ लई। छोड़ सुकर्म करता कुकर्म, मालिक से बुद्धि मोड़ लई। झूठ कपट छल चातर करके, काफ़ी माया जोड़ लई। बड़े बडां की इस दुनिया में, चलते तागड़ी तोड़ लई।      मिल के धोखा जो कर ज्यां,                        फेर के रखा हुशियार में।। समझ के चलना इस दुनिया में, पूरा देश दीवाना है। चार दिनों का रंग तमाशा, लिखा हुआ परवाना है। जोबन और जवानी दोनों, मिट्टी में मिल जाना है। पाप पुण्य के लिए बना हुआ, यमपुर का एक थाना है।          यम के दूत लगावैं फांसी,                      रहै गफलत परिवार में।। सद्गुरु जी की वाणी ने तूँ, सुन सुन धर बंगले में। सद्गुरु पूंजी नाम बरतले, क्या रखा कंगले में। सद्गुरु जी के चरण पूज भइ होजां मेल सँगले में। सहजै मुक्ति मिल जागी तनै, पाँच तत्व के जंगले में।        अनमोल है माया सद्गुरु जी की,                            कर भक्ति ले प्यार में।। कान्हादास परम् गुरु रसिया, हरदम ज्ञान करो जन का। बन सेवक गुरु मामचंद का, तज माया योवन का। पालदास भी पड़ा

*855 ले के जग से बुराई मत जाना रे।।401।।

 ले के जग से बुराई मत जाना रे।। घर आए को भगवान समझना अपना सा इंसान समझना।        सबसे मीठी वाणी बोल रे प्रेम है अनमोल रे।                 मत तीखे वचन सुनाना रे।। ना बंदे तू औरों पर हंसना खुद अपने कर्मों में ना फंसना।       आज मेरा कल तेरा लेकिन फिर है अंधेरा।               सदा एक सा ना रहता जमाना रे।।

*854 ये दो दिनका जीवन तेरा फिर क्यों इस पर इतराता है।। 401।।

यह दो दिन का जीवन तेरा फिर इस पर क्यों इतराता है।    यह जीवन है चंद सांसों का फिर क्यों तुम भुला जाता है।। माटी की तेरी यह काया है नश्वर जग की यह छाया है। धन वैभव और सुंदर यौवन चलती फिरती यह माया है।       तेरा सारा सपना झूठा है सत धर्म यही बतलाता है।। पापों सी गहरी का बोधा तेरे कंधों पर जाना है। अपनी करनी अपने भरनी फिर इतना क्यों दीवाना हैं।  अब तो संभलकर चल बंदे, क्यों जीवन व्यर्थ गंवाता है।। तू खाली हाथों आया है और हाथ पसारे जाएगा।  अपना जिसको तू मान रहा सब यही पड़ा रह जाएगा।   अपनी ना समझे कि खातिर क्यों जीवन भर दुख पाता है।। तूं सत्य धर्म को भुला है ना भुला दुनियादारी है। जो आज आया है दुनिया में कल जाने की भी बारी है।    सुख पाता है वोही दुनिया में, जो परमार्थ को अपनाता है।।

*853 कुछ सोच समझ प्राणी, एक दिन दुनिया से उड़ जाना।।400

                                400                   चल उड़ जा रे पँछी कुछ सोच समझ प्राणी, एक दिन दुनिया से उड़ जाना।     कुछ साथ नहीं लाया, के कुछ साथ नहीं ले जाना।। जिसे सोचता है तूँ अपनी, वो है एक सराय।  चार दिनों का मेला है ये, कोई आए कोई जाए। मोहमाया के जाल में फंसकर, पृभ को क्यूँ बिसराय।         ये तेरी जागीर नहीं है, ये तो मुसाफिर खाना।। विषयों की ये मस्त हवा, मझधार डुबोने वाली। जीवन को बर्बाद करेगी, चाल तेरी मतवाली। पशुओं का सा जीवन है, जो हो उपकार से खाली।       मानव का उद्देश्य नहीं है, केवल पीना खाना।। प्रातः सायं करले प्रार्थना, पृभ के गुण गा ले। तोड़ के सारे झूठे बन्धन, जीवन सरल बना ले। दीन दुखी की कर तूँ सेवा, दुखिया गले लगाले।      नन्दलाल कह मानव चौला, जो है सफल बनाना।।

*852 मेरी धुन राम से लागी।।400।।

                              400 मेरी धुन राम से लागी। यो संसार सपन का मेला दिल की दूर मत भागी।।  जन्म मरण का नहीं भरोसा मेरी सूरत सोवती जागी।। स्वर्ग नरक बैकुंठ और दो जाके एक बार में त्यागी।। तन से तर्क फर्क मार्ग हूं,अवगत में बैरागी।। मगन व चढ गया गगन में मुरली अनहद बाजी।। सजन सुजान प्राणों से प्यारे नित पर्ती खेले फागी। नितानंद महबूब गुमानी जीय हजूरी जागी।।

*850 यो कितना बड़ा झमेला।।399।।

                                 399 यो कितना बड़ा झमेला यह दुनिया भरम का मेला।             किसी या दुनिया रे।। कोड़ी कोड़ी माया जोड़ी बन गया लाख करोड़ी।                  यो संग चले ना धेला रे।। चूग-चूग कंकर महल बनाया जो हंस रहन ना पाया रे।                 कब उड़ गया हंस अकेला रे।। ना घर तेरा ना घर मेरा चिड़िया रैन बसेरा रे।                  इस पर चढ़ना झमेला रे।। शरण मछंदर गुरु गोरख वाणी ना कह रहा में बात पुरानी।                  यो शब्द गुरु चित् चेला रे।।

*849. छोड़ कर संसार जब तू जाएगा।।

  छोड़ कर संसार जब तू जाएगा।                  कोई ना साथी तेरा साथ निभाएगा।। इस पेट भरने की खातिर तो पाप कमा तारे निशदिन।        श्मशान में लकड़ी रखकर तेरे आग लगेगी एक दिन।                   खाक हो जाएगा।। क्यों करता मेरा मेरा यह चिड़िया रैन बसेरा।          यहां कोई ना रहने पाता, है चंद दिनों का डेरा।                      हंस उड़ जाएगा।। सतगुरु चरण में निशदिन तू प्रीत लगा ले बंदे।        कट जाएंगे सब तेरे जन्म मरण के फंदे।                       पार हो जाएगा।।

*848 सोचो जरा तुम करो विचार क्यों तूं आया है।। 398

सोचो जरा तुम करो विचार, मानव जन्म नहीं हर बार। क्यों तूं आया है इस संसार में। क्या तूने पाया है।। कर ले प्रभु की भक्ति, पा ले जन्म मरण से मुक्ति। माया के चक्कर में, तूने सारी लगा दी शक्ति।               भूल गया तूं प्रभु को, हीरा जन्म गंवाया है।।  तूने दौलत खूब कमाई, पर की ना किसी की भलाई। सब यहीं पड़ी रह जाई, तेरे संग न दौलत जाई।               मस्त रहा तूं इस संसार में।।

*847 भाई तेरा कोई ना अपना है।।

                        398 भाई तेरा कोई ना अपना सै।। झूठी दुनियादारी में सब झूठा सपना से।। वचन भरा के जग में एक सतगुरु को भजना से। मेहर करी मानुष तन पाया नेकी कर चलना है।। मात-पिता तेरा कुटुंब कबीला सब झूठा झगड़ा है। पानी जैसा बना बुलबुला हवा लगते ढहना है।। यह दुनिया तो जगत सराय तनै 1 दिन तजना से। पुरानी संतो का सत्संग कर दे जो भव से तरना है।। सच्चा सौदा कर ले रे ना तू 1 दिन ठगना से। कह संत मान सिंह मुक्ति पावे जीते जी मरना से।।

*846 मुसाफिर चल जाना चल जाना रे यह संसार सराय 262।।

मुसाफिर चल जाना चल जाना रे यह संसार सराय।। इस सराय की सार पुरानी एक आवत एक जाए।। राजा रानी पंडित ज्ञानी कोई रहने नहीं पाए।। गाड़ी पल को रहने कारण मत सामान जमाए।। ब्रह्मानंद छोड़ सब चिंता हरि चरण चित लाए।।

*845 मुझे मिल गया मन का मीत।।396।।

                               396                                मुझे मिल गया मन का मीत, ये दुनिया क्या जाने।।                  मेरी लगी गुरू सँग प्रीत, ये दुनिया क्या जाने।। पेशी जब गुरुवर की लगाई, पासा पलट गया मेरे भाई।                            मेरी हार हो गई जीत।। प्रीतम ने खुद प्रेम जताया, करके इशारा पास बुलाया।                            है प्रेम की उल्टी रीत।। ताल अलग है राग अलग है, ये वैराग्य अनुराग अलग है।                            मन गाए किसके गीत।।  सत्संगी होकर जो सीखा, काम क्रोध को कर जो सीखा।                            ऐसा है ये संगीत।।

*844 दुनिया में हो बाबा नहीं है गुजारा किसी ढब से।।395।।

दुनिया में हो बाबा नहीं है गुजारा किसी ढब से।। कर्म रहे तो कैसा जोगी वन में गया तो विपता भोगी। मांगे भीख बतावे योगी, त्यागी बना है कब से।। बोले तो वाचाल भया है ना बोले तो गर्भाय रहा है। करे खुशामद आया है, डरे हमारे गब से।। धर्म करें तो द्रव्य लुटावे, नहीं करें तो सूम बतावे। क्या कहूं कुछ कहा नहीं जावे, प्रीत करें मत रब से।। आचार करूं पाखंड बतावे, नहीं करूं तो पशु बतावें। हांसू तो कह यह मस्तावे, रोऊं तो कौन मरज से।। निंदा स्तुति दोनों त्यागें  शुभ अशुभ पीठ दे भागें। रामप्रताप चरण चित्त लागे तब जीते इस जग से।।