*916 मन्मुख मन चाहे मत मान।।421।।
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मनमुख मान चाहे मत मान।बिन सतगुरु उपदेश जीव का होता ना कल्याण।।
ऋषि मुनि ज्ञानी ध्यानी गए माला फेर फेर।
जप तप यज्ञ किया अग्नि में घी गेर गेर
मन काबू में आया कौन्या, हार गए हेर हेर
गयाजी प्रयागराज तीर्थ किया बार-बार।
त्रिवेणी इलाहाबाद नहाए गोता मार मार।
दान पुण्य पूजा पाठ खूब किया सार सार।
हो देखा पूज पूज पाषाण।।
हरिद्वार मथुरा काशी में मिले नहीं भगवान।।
त्रिकाली में संध्या तर्पण व्रत और उपवास किया।
पंच धूनी में खड़ा तपा जंगल के मा वास किया।
जल का झरना लेकर योग मुद्रा का अभ्यास किया।
रेचक पूरक कुंभक क्रिया खूब किया प्राणायाम।
माघ पौष और सूर्य की, खूब सही सर्दी धाम।
मंत्र शक्ति की युक्ति से मुक्ति का मिला ना धाम।
मिला ना वह सर्वशक्तिमान।।
ब्रह्मा विष्णु शिव जी भी खुद धर धर देखें ध्यान।।
आ रही उतर के नीचे धार जोया राम की।
सिंध से भी हुई नहीं, बूंद सत नाम की।
माया में भरमाई रही भूल गई धाम की।
संत का अवतार धार काल ने उपाया भेष।
जाने ना संसारी जीव काल की पड़ी है कैद।
ओमकार ब्रह्म माया नेति नेति कहे वेद।
पढ़ो चाहे गीता और कुरान।
चार अठारह नो छः पढ़ ले, ना होता आत्मज्ञान।।
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