*432 हे री ठगनी कैसा खेल रचाया।।185।।
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हेरी हेरी ठगनी, कैसा यो खेल रचाया।
ऋषि मुनि सन्यासी योगी, सबका करा सफाया।।
माया ठगनी सबसे पहले, करने लागी ये विस्तार।
माता बन शिवजी से खेली, पुत्र की खुद बनगी नार।
दोनोँ की शादी का मेल, होग्या एक सो आठ बार।
लक्ष्मी बन विष्णु से खेली, सागर के में बैठ गई।
पति के दबाए पाँव, शेष शैय्या पर लेट गई।
पुत्री बन ब्रह्मा तैं खेली, हिरन बनके फेट गई।
खुद ब्रह्मा भी हिरन बनाया।।
उद्दालक ने मौन किया, छः महीने में भोजन खाया।
सपने के में ठगनी देखी, ऋषि जी की डोली काया।
टूट ग्या लँगोट उसका, गंगा जी मे जा के नहाया।
सागर का जब मंथन किया, ठेस लागी तीन कै।
मोहनी बनके ठगनी नाची, अमृत लेगी छीन कै।
देवासुर से संग्राम किया, धार थी संगीन कै।
राहु का शीश कटवाया।।
मेनका का रूप धार के, विश्वामित्र दिया चीर।
विश्व मोहनी बन के ठगनी, नारद ऊपर फैंका तीर।
नाच के उर्वशी भागी, दुर्वासा होग्या अधीर।
सीता बन रघुवर से खेली, फेर वनवास किया।
रावण के सँग गई जब, लंकपुरी का नाश किया।
फेर हो गई लोप, फेर राम जी उदास किया।
होय रो रो रुदन मचाया।।
परम् सन्त छःसो मस्ताना, आया देश अनाम का।
भाग्य रहा जाग भाई, खास गंगवे गाम का।
महीने में दरबार लागै, वहाँ पर जिंदा राम का।
सद्गुरु जी ने झाड़ू ले के, शब्द की चलाई चोट।
किंगरी बन कै सद्गुरु नाचे, काल का दिया गला घोंट।
सच्चा सौदा बांट रहे, नाम का पहरावै कोट।
कलु में यो सुता देश जगाया।।
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