Posts

Showing posts from March, 2024

*1044। शब्द मत छोडो रे शब्द के हाथ ना पाऊं 468।।

शब्द मत छोडियो रे शब्द के हाथ ना पांव।। दाहिने हाथ को शब्द सुनो और चढ़ जा ऊंची धार। शब्द विवेक साधु उतरे भवसागर के पार।। बिना शब्दके साधु फिरते मूर्ख मूढ़ गवार। शब्द विवेक की साधु के पांव पूजो बारंबार।। शब्द से पोथी पुस्तक रचीया वेद रखे हैं चार। बिना शब्द के कुछ भी नाहीं देखा सोच विचार।। गुरु ताराचंद था भोला भाला, शब्द बिना लाचार। सतगुरु राम सिंह पुर मिल गए खोल दिए भंडार।।

*1043 जिनके लगी शब्द की सेल घायल वो ना जीवे।।

जिनके लगी शब्द की सेल घायल वो ना जीवे।। लागी लागी सभी कहे रे लागी ना है एक। लागी उनके जानिए रे जो करे कलेजे छेक।। लगी लगी सभी कहे रे, लगी बुरी बलाए। लगी तो तब जानिए जब आर पार हो जाए।। लगी उनके जानिए रे राज तजे अलबेल। अंदर दीवा जल रहा रे घला है प्रेम का तेल।। पढ़ना लिखना है नहीं रे यह सतसंगत का खेल। चार वेद घट में बसें रे पूरे गुरु का मेल।। जग में सत्संग सार है रे जो काटे जम की बेल। कहे कबीर सुनो भाई साधो झूठा जग का मेल।।

1041। शब्द से तेरी विरले परख करी।।बाकी।।

*1040 तू पकड़ शब्द की डोर है सखी।।467।।

तू पकड़ शब्द की डोर हे सखी क्यों व्यरथा जन्म गवावै से।। तेरे अंदर माल खजाना, क्यों चोरों पर लुटवावे से।। तेरे अंदर जोत निराली, तू बाहर ज्योत क्यों लावै से।। तेरे अंदर सात समुंदर बाहर नहान क्योंजावे से।। तेरे अंदर अनहद बजा तू बाहर कान क्यों लावे से।। हे ब्यास वाला गुरु हमारा वह नैया पार लगावेसे।।

*1039 शब्द तेरी सार कोई कोई जाने।।466।।

शब्द तेरी सार, कोई कोई जाने।। दिए पे पतंगा जला दिया अंगा,                             या जलने की सार कोई कोई जाने। फूल ऊपर भंवरा कली रस ले रहा।                           या फूलों की महकार।। चांद चकोरा, वह बोले दादर मोरा।                          या शब्द की झंकार।। कहे कबीरा मन करता क्यों ना धीरा।                          यो गुरु का उपकार।। 

*1038 शब्द बने तलवार गुरहा के सत्संग में।।466।।

                                 466 शब्द बनी तलवार गुरु के सत्संग में।। सत्संग की महिमा न्यारी हे उड़े कट जा सकल बीमारी हे।                        वहां ईश्वर है निराकार।। तुम सत्संग में नीचे आओ हे, वहां हरदे शुद्ध बनाओ हे।                        धारा हो जाए बेड़ा पार।। सोहंग सोहंग घल रही डोरी, बीच सुखमना लेत हिलोरी।                         मूड तुड़ घालेे तार।। पांच पच्चीस की लार लगाई कुनबे में एक नागिन ब्याही।                        करी गुरुओं से तकरार।। राम नाम का बांधो सेहरा वहां गुरु मां का लगता डेरा।                        वहां बरसे अमृत धारा।। दो दिन का दर्शन मेला हे, उड़ जायेगा हंस अकेला हे।                      कोई शंखनाद हकदार।। 

*1037 शब्द तलवार है भई साधो।।466।।

     शब्द  तलवार है भाई साधो लग जा ते हो जा परले पार। तेरे नगर में पांच सिपाही बांध ढाल तलवार। सभी सिपाही भाग गए रे पकड़ लिया सरदार।।      आन यमों ने छेड़ा झगड़ा कहां तेरा परिवार।      मात-पिता तेरे खड़ी लखावे किसी ने ना दई पुकार।। धरमराज तेरा लेखा मागे सतगुरु के दरबार। लाल खम्ब के बांधा जागा दे डंडों की मार।।      

*1036. अगर है मोक्ष की वांछा छोड़ दुनिया की यारी को।।465l।लिखना।।

अगर है मोक्ष की इच्छा छोड़ दुनिया की यारी को।। कोई तेरा ना तू किसी का सब मतलब के हैं साथी।  फंसा क्यों जाल माया के काल सिर पर सवारी है।। बेड संगत में संतों की रूप अपने को पहचानो। तजो मद लोभ अहंकारा, करो भक्ति प्यारी है।। बसों एकांत में जाकर, धरो निज ध्यान ईश्वर का। रोको मन की चपलताई देख घट में उजारी है।। जला कर कर्म की ढेरी तोड़ माया के बंधन को। ब्रह्मानंद में मिलो आकर सदा जो निर्विकारी है।।

*1035 शब्द तेरा दर्द अनूठा।।465।।

शब्द तेरा दर्द अनूठा रे, अरे कोय जाने विरला साध।। रांडी रे डांडी ना तजे रे, कर्क ने कव्वा खात। बलख बुखारा तज चला रे, थी कोय पिछली लाग।। मोहमाया ने त्याग दे रे, नान्हा हो के भेष।।  जो सुख चाहवै अगम का रे, पल में झलके शीश।। चाहे फिरे तेरे बसे हे तन में, कितना सै तन में मांस। इतना है तो बहुत है रे, हाड़ चाम और सांस।। जहां आपा वहां आपदा रे, जहां शंसय वहां शाेग। कह कबीरा धर्मीदास ने रे, ये हैं चारों रोग।।

*1034 शब्द तलवार है भाई साधो।।465

                                  465 शब्द तलवार है भाई साधो, लग जा तो हो जा पर ले पार।। यम किंगर गढ़ तोड़ बावले, आन मिला परिवार। एकले दम पर आम बजेगी कौन छुडावे तेरा यार।।            यमराजा के पकड़ा जाएगा यो भारी दरबार।            ताते खंब के जूड़ा जागा पड़े कर्म की मार।। पांच पच्चीसों लड़े सिपाही बांध ढाल तलवार। और तो सारे भाग लिए रे पकड़ा गया सरदार।।            कह कबीर सुनो भाई साधो इसका करो विचार।            जो संतों की निंदा करता डूबेगा काली धार।।

*1033 भक्ति कर सतगुरु की बंदे अमर निशानी हो जाएगी।।464।।

भक्ति कर सतगुरु की वंदे सफल जिदगानी हो जाएगी।       देह चली जा बेसक ते तेरी अमर निशानी हो जाएगी। सबसे पहले उठ सवेरे गुण सतगुरु का गाना चाहिए। हो मनुष्य का फर्ज टाइम पर सत्संग के मे जाना चाहिए। नशे विषयों में मन फस रहा से इसको भी समझाना चाहिए। कर गुरु की सेवा मेवा का फल तोड़कर खाना चाहिए।    तन मन धन सब अर्पण करदे, उसकी कुर्बानी हो जाएगी।। आंखों से  दिखे कोन्या, शिव नेत्र पर्सन के में। जिसके कारण फिरे भरमता, वह बस्ता तेरे मन के मे। बाहर से कुछ दिखे कोन्या चढ के देख गगन के में।         भोरंग वृत्ति छोड़ दिए तेरी चाल रवानी हो जाएगी।। तीन बजे के टाइम उठ के त्रिकुटी ध्यान लगाया कर तूं। नो दरवाजे बंद करके दसवें में ध्यान लगाया कर तूं । नाभि कमल से पवन खींच के गगन मंडल कर जाया कर तू। अटल ज्योत में ज्योति मिलजा, जीवत मुक्त हो जाया कर तूं।     लगी रहे दिन रात भजन में सूरत दीवानी हो जाएगी।। स्वामी जी हुए बीच आगरा जयमल सिंह जी हितकारी। सावन शाह सत्संग में रम गए मस्ताना सेवादारी। छः सौ मस्ताना ने गंग्वे के मां जगा दिए सब नर नारी।टी छः सौ मस्ताना जहाज में करण लगा चौकीदारी      लोहारी की बादाम बना द

*1032 भक्तवत्सल भक्तन सुखदाई।।464।।

भक्तवत्सल भक्तन सुखदाई अटल नाम मेरे हिए धरो। जन्म मरण और गर्भ बसेरा यह दुख मेरा दूर करो।। लख चौरासी गहरी फांसी या में कई एक बार फिरो। भव जल बेड़ा पार उतारो, पल-पल अवसर जाए टरो।। अहो मुरारी शरण तुम्हारी, दरिया भारी देख डरो। पतित उदाहरण वृद्धि तुम्हारो, दीन जानकर विपत्ति हरो।। स्वामी गुमानी नूर निशानी, भाव भक्ति भंडार भरो। चरण कमल में रख लीजिए नित्यानंद दरबार पढ़ो।।

*1031 भक्ति करू निज तत्व की। 464।।

भक्ति करो निज तत्व की, नाथ मेरी जानत हो घट घट की।। न्हावे धोवे मीरा करें सुमरनी, पूजा करें नितनेम की। दी परिक्रमा मीरा शीश नवावे, तिलक चढ़ा रही छींट की।। रंग महल में मीराबाई नाचे, ताल लगा रही चुटकी।। रुन झुन रुन झुन पायल बाजे, लाज रखो घूंघट की।। जहर प्याला राणा जी ने भेजा, साध संगत करें हठ की।। कर चरणामृत मीराबाई पी गई, प्रेम हरि रस घुटकी।। सूरत निरत अंतर लो लागी, सिर धर गागर मटकी।। बाई के स्वामी सुख के सागर, उल्टी कला जैसे नटकी।।

*1030 दुनिया कहन लगी मैने जोगी।।463।।

तेरी याद सतावै मने पल पल रुलावै,              तेरी भक्ति का होज्ञा मैं रोगी।                         दुनिया कहन लगी मैने जोगी।। चौबीस घंटे तेरा नाम जपूं सूं,               तेरे नामकी माला सिमरू सूं। चरणों में थारे ध्यानधरूं सूं, थारी भक्ति या मेरा मन मोहगी।। खाना भी छुटग्या मेरा पीना भी छुटग्या,               तेरी भक्ति का गुरुजी रोग यो लगग्या ज्ञान का दीपक मन में जगग्या, मेरी आनंद काया होगी।। तुम ही माता मेरी पिता तुम्ही हो,                तुम ही मित्र बंधु, तुम ही सखा हो। तेरे दास पे तेरी कृपा हो, मेरी सुरती तेरे में खोगी।। राजफूल कुचरनिया यो गावै,                 सच्चे यो दिल तैं  तनै रे मनावै। थारे बिना कौन धीर बंधावावे, या ज़िंदगी तेरे नाम भोगी।।

*1029 या मेवा उपजे बे।।464

                                 464 या मेवा उपजे बेसुम्मार, भक्ति का बाग लगा ले।।   मन अपने की जमीन बना ले, राम नाम को बैल बना ले। ओहैं सोहंग बीज बुआ ले। फेर बोवै सुखमणि नार।। किस्मत को तूं रख ले हाली, तेरे बाग की करे रखवाली। सींचे पेड़ हरी हो डाली। फेर शीतलता जल डाल।। इस मन को तूं रखले चातर, तेरे बाग की करेगा खातिर। दुई मृग को दूर भगा कर, फेर लूटो अजब बहार।। ईश्वरदास समझ गुण गावे,सोई हरिचंद बाग लगावै। राम नाम से हेत लगावै, वे नर उतरे भव जल पार।।

*1028 भक्ति ज्ञान गुरु दीजिए देवन के देवा।।462

                               462 भक्ति दान गुरु दीजिए देवन के देवा। चरण कमल बीसरो नहीं करु पद सेवा।। तीरथ व्रत मैं ना करूं ना देवल पूजा। तुम्हारी और निर्खत रहूं मेरे और न दूजा।। अष्ट सिद्धि नौ निधि में बैकुंठ निवासा। तो मैं कुछ ना मांगहूं , मेरे समरथ दाता।। सुख संपत्ति परिवार धन और सुंदर नारी हो। सपने में इच्छा नहीं करो गुरु आन तुम्हारी हो।। धरमदास की विनती समरथ सुन लीजिए। यह आना-जाना निवार के अपना कर लीजिए।।

*1027 भक्ति का मार्ग झीना रे।।462।।

                              462 भक्ति का मार्ग झीना रे। कोई जाने जानहार संत जन, जो प्रवीणा रे।। नहीं चाह अचाह उर अंदर, मन लो लीना रे। साधु की संगत में निशदिन रहता झीना रे।। शब्द में सूरत बसे इमी जैसे, जल बीच  मीना रे। जल बिछड़े तत्काल होत हैं, बदन मलीना रे।। धनकुल का अभिमान त्याग कर रहे अधीना रे। परमारथ के हेत देत सिर दिन में जा किन्हाँ रे।। धारण कर संतोष सदा अमृत रस पीना रे। भक्ति रहन कबीर शकल परगट कर दीन्हा रे।।

*1026 भगती के घर दूर बावले।।462।।

                                                         462           भक्ति के घर दूर बावले, जीते जी मर जाना।। मंजिल दूर कठिन है राही, मुश्किल भेद लगाना। उस घर का तूँ भेद बतावै तज दे गर्भ गुमाना।।         जोग जुगत तनै कुछ ना जानी, ले लिया भगवां बाणा।         बाणा पहन खोज न किन्ही, कैसे निर्भय घर जाना।। जिस घर तैं तुम प्यार करो रे, परली पार ठिकाना। आर पार का जो भेद लगावै, सोई सन्त स्याना।।        मोह माया नर बन्धन तोड़ा,छोड़ा देश बिराना।        कह रविदास अगम के वासी, अमरलोक घर जाना।। 

*1025 भक्ति भजन फिर करना पहले मन से मेल निकाल।।461।।

भक्ति भजन फिर करना पहले मन से मेल निकाल।             ऐसी भक्ति करने से तू होगा नहीं निहाल।। मंदिर मंदिर घूमले बंदे घूमले चारों धाम। बार बार तू ले ले चाहे कितना ही राम का नाम। कुछ हासिल ना होगा तुझको करले तीरथ तमाम।             जब तक तुझ पर पड़ा रहेगा मोह माया का जाल।। झूठ नहीं तूने छोड़ा किस लिए तू करता है पाप। औरों को क्यों बुरा बताएं बुरा तो खुद हैं आप। मन की मैल तने ना धोई, तन को रखा साफ।             किसी काम न आएगी तेरी यह सुंदर खाल।। अपने मन से त्याग दे बंदे, ईर्ष्या और तू बैर। अपने साथ दूसरों की भी मांग प्रभु से खैर। नेक काम में कभी ना करना बंदे तू अबेर।             अच्छे कर्म करेगा बंदे, होगा तूं मालामाल।।

*1024 मेरे साहिब अविनाशी मुक्ति रहे सै दासी।।461।।

मेरे साहिब अविनाशी मुक्ति रहे थारी दासी।।  ब्रह्मा जा का धान धरत है नंदन करें खवासी। जैसे कनक मुख से खावे तो भी भेद ना पासी।। शिवजी जा का ध्यान धरत है, कहिए योग अभ्यासी। जहां वेद में भेद ना पाया, देखो देख अभ्यासी।। ओंकार में भर मत डोले, विष्णु रहे उदासी। नाम पदार्थ हाथ ना आया, पड़े रे काल की फांसी।। अजर अमर एक प्रेम पुरुष है वो कहिए फल अविनाशी। कहे कबीर सुनो भाई साधो, आगम महल के वासी।।

*1023 भजन में रस।।461।।

भजन में रस ही रस आवै। जो कोय देखै साधन करके, घर मुक्ति का पावै।। काम क्रोध मद लोभ मोह को मन से परे हटावै। मन चित्त बुद्धि वश में करके, ध्यान हरि में लावै।। मानुष तन तनै मुश्किल पावै, मतना व्यर्थ गंवावै ।  इब के बेल दुखों की कटती, फेर वक्त ना पावै।। भक्ति कैसी चीज नहीं रे, जो कोई ध्यान लगावै। जन्म मरण गर्भ दुखदाई, हरदम काल सतावै।। सूरत शब्द का साधन करले, शब्द ही शब्द समावै। निहालीबाई शरण सदगुरु की, राधास्वामी गावै।।

*1022 भजन बिना रे तेरी कैसे हो जा मुक्ति।। 460

                            460 भजन बिना रे तेरी कैसे होजा मुक्ति।। बालापन हंस खेल गवाया।             पढा क्यों ना वेद दिखी रे क्यों ना तख्ती।। आई रे जवानी घणा मस्ताया।           तु खेला फुटबॉल बजाई तूने चूटकी।। आया रे बुढ़ापा घणा दुख पाया।           तू रोया मुंडी मार उम्र सारी बीतगी।। आई रे रेल तू चढ़न ना पाया।           तू सोया चादर तान टिकट सारी बटगी।। कह कबीर सुनो भाई साधो।         तूं जागा कौन सी गाल, गाल सारी रुकगी।।

*1021 जिंदा राम कहो या सद्गुरु।।460

                                   460 जिंदा राम खो या सद्गुरु, नाम से मुक्ति पाएगा। इस नाम से लाखों जीव तरे, ना फिर चौरासी आएगा।। ये मानष तन मुश्किल पाया, मोह ममता में भूल गंवाया। जब धर्मराज ये पूछेगा, फिर उसको क्या बतलाएगा।। झूठ कपट कर फिरता है मस्ता, ये तो है पापों का रस्ता। इस रस्ते में कांटे भारी, तूँ मुश्किल पार हो पाएगा।। विषय भाव अहंकार मिटाके, बैठ शरण सद्गुरु की जाके। इस गंगा में न्हाले तूँ, तेरा जन्म सफल हो जाएगा।।  छोड़ जगत की प्रीतरीत को, भूल गया गुरू नाम रीत को। कह रामदेव समझ अभी, ना भँवजल गोते खाएगा।।

*1020 करो ओम नाम का सुमिरन मुक्ति मिल जावे।।460।।

करो ओम नाम का सुमिरन, मुक्ति मिल जावे। यह सूरत हरी से जोड़ो, दुनिया से नाता तोड़ो।                           काम ना कोई आवे।। यह काल जाल है दुनिया, मुर्दे की खाल है दुनिया।                          हाथ ना कोई लावे।। यहां सब मतलब के साथी, शमशान तक हैं बाराती।                            फूक तनै बतलावे।। कह दास बिजेंदर सुन ले, कोई पूरा सतगुरु चून ले।                         फिर समय हाथ नहीं आवे।।

*1019 बिन सतगुरु के भजन बिना तेरी मुक्ति ना होती।।459।।

                               459 बिन सतगुरु के भजन बिना तेरी मुक्ति ना होती। गर्भवास में कॉल करा था, भजन करूंगा तेरा। बाहर आ के भूल गया, लगा मोह माया का घेरा।         क्या कर रहा सै मेरा मेरा, झूठे नाती गोती।। चढी जवानी हुआ दीवाना, फूला नहीं समाया। आगे की कुछ सुध बुध नाही, तिरिया में भरमाया।       तेरे इतना नशा चढ़ा, ना किसी की बात सुहाती।। नशे विषयों में पड़ के, ना भूली बात विचारी। रात दिनो तूं रहा भरमता, दुविधा लागी भारी।।          उस दिन की तने याद बिसारी, यम तोड़ेंगे छाती।। मात पिता की सेवा करनी, यह भी नहीं तूने ख्याल करा। पचपच मरा बैल की तरिया, फिर भी ना तेरा पेट भरा।       धरा धराया रह जा तेरा, ना माया संग में जाती।। कोडी कोडी माया जोड़ी, जोड़ भरा एक थैला। पाप कपट से धन कमाया, संग ना चले एक धेला।     दो दिन का तेरा दर्शन मेला, अंत बुझेगी ज्योति।। सत्संग सुना ना गुरु धारा, उम्र खो दई सारी। कॉल कसाई घात लगा रहा, तेरे तन की करे खवारी।      सतगुरु बिना ना कटे बीमारी, दुनिया झूठे झगड़े झोती।। सतगुरु ताराचंद मेरे की, सुनले अमृतवाणी। दास मदन है छोटा सेवक, रहता गांव भिवानी।        गाने

*1018 गुरु के बिना बन्दे तेरी कैसे होगी मुक्ति।। 459।।

                            459 गुरु के बिना बन्दे,  तेरी कैसे होगी मुक्ति।। बचपन सारा खेल गंवाया,                    पढ़े कोन्या वेद, लिखी ना तनै तख्ती।। आई जवानी नींद भर सोया,                   खेले फुटबॉल बजाई तनै चुटकी।। आया बुढापा देख के रोया,                   खड़ा-२काँपै कमाई सारी लुटगी।।  यम के दूत लेन नै आए,                    खड़ा-२काँपै नगरिया तेरी छुटगी।। धर्मराज जब लेखा मांगै,                धर्म का पलड़ा भारी, पापों की डांडी झुकगी।।

*1017 सतगुरु तो तेरे घट में बैठा, क्यों भटकत बाहर फिरें।।458।।

*1016 बतादे मोक्ष का मार्ग।।

बतादे मोक्ष का मार्ग गुरु में शरण में तेरी।। जगत में नाना किसम के पंथ है भारी। सुनाते हैं कथा अपनी भटकते हो गई देरी।। कोई मुर्त के पूजन को बतावें ओम रटने को। कोई तीर्थ के दर्शन को, फिराते हैं सदा फेरी।। किताबें धर्म चर्चा की हजारों बांच के देखी। मिट संशय नहीं मन का, अक्ल जंजाल ने घेरी।। शक्ल दुनिया में है पूरण में सुना मैं रूप ईशवर का। वह ब्रह्मानंद बिन देखे, मिटे नहीं भ्रमण मेरी।।

*1015 लगा ले प्रेम ईश्वर से अगर तूं मोक्ष चाहता है 85।।

लगा ले प्रेम ईश्वर से अगर तू मोक्ष चाहता है।। वही मालिक है दुनिया का पिता माता विधाता है।। नहीं पाताल के अंदर नहीं आकाश के ऊपर। सदा वो पास है तेरे, कहां ढूंढने जाता है।। करो जप नेम तप भारी जाकर सदा बन में। बिहार सतगुरु की संगत के नहीं वह दिल में आता है।। पड़े जो शरण में उसकी छोड़ दुनिया के लालच को। वह ब्रह्मानंद निश्चय से परमसुख धाम पाता है।।

*1013 तूं कर प्रभु से प्रीत यूं ही दिन बीत जाते हैं।। 456।।

                             456 तू कर प्रभु से प्रीत, यूं ही दिन बीते जाते हैं।।          तुम हार के बाजी जीत, यूं ही दिन बीते जाते हैं।। शुरू से है यह ताना-बना, आने के संग है जाना। कुएं से भर भर लोटा आए, वापिस हुए रवाना।          है यही जगत की रीत, यूं ही दिन बीते जाते हैं।। दुख की धूप कभी है सिर पर, कभी है सुख की छाया। बदल बदल कर समय सभी पर, बारी-बारी आया।       वर्षा गर्मी कभी शीत, यूं ही दिन बीते जाते हैं।। सैकड़ों संगी साथी तेरे, इस जग में हैं सहारे। तू इनको बहुत है प्यारा, और यह तेरे प्यारे।        पर वहां ना कोई मीत, यूं ही दिन बीते जाते हैं।। अब भी नत्था सिंह समझ जा, काफी समय बिताया। खुद समझ जरा ना समझा, औरों को समझाया।         गीत लिखकर गाया गीत, यूं ही दिन बीते जाते हैं।।

*1012 प्रीति गुरु संग ना जोड़ी मन कहां लगा ली यारी।455।।

                                455 प्रीति गुरा संग ना जोड़ी मन कहां लगा ली यारी।। पकड़ खाट के नीचे तारे बंद हुई तेरी नाड़ी। हार सिंगार तेरे सारे तारें, गढ़ छोड़ लंगोटी पाड़ी।। एक और तेरी तिरिया रोवे एक और महतारी। एक और तेरी बहना रोवे भाई कहे छोड़ी भुजा हमारी।। ड्योढी लग तेरी त्रिया जावे पोली लग महतारी। चाची ताई बुआ भांजी पोली तक की यारी।। साल दुसाले उड़ा चादरा डोली जाए सिंगारी। चार जने तने ले के चाले छोड़ो दुनियादारी।। कुटुंब कबीला गोती नाती यारें प्यारे जाएंगे साथी। मरघट तक तेरे बनेंगे साक्षी फिर मुखड़ा फेरे सारे।। गौशा पुला ले हाथ में संग में ले जल की झारी। टेक चिता में फिरे चोगिर्दे, ला देंगे चिंगारी।।

*1011 सब से ऊंची प्रेम सगाई।455।।

                                                             455 सबसे ऊंची प्रेम सगाई। दुर्योधन की मेवा त्यागी, साग विदुर घर खाई।। झूठे फल शबरी के खाए, प्रेम वश रघुराई।। प्रेम के वश नृप सेवा कीन्ही, आप बने हरि नाईं।। प्रेम वश अर्जुन रथ हांक्यो, भूल गए ठकुराइ।।  सूर पूर इस लायक नाहीं, कहां लौं करूँ बड़ाई।।

*1010 प्रेम बिना ना सतगुरु मिलता चाहे कर ले लाख उपाय।।454।।

                              454 प्रेम बिना ना सतगुरु मिलता चाहे कर ले लाख उपाय।। प्रेम गली अति सांकरी इसमें दो ना समाए। एकला घूमे उन गलियों में भारी खुशी मनाई।। प्रेम एक से लागता जी उसका यही शुभाय। दो घोड़ों के चढ़ के चाले कोन्या पार बसाए।। एक चीज पर टिकाले, दुजी से हट जाए। संसारी से प्रेम तोड़ ले फिर प्रीतम मिल जाए।। एक रास्ते से चले जावे, आगे दो हो जावे। दोनों रस्ते चल नहीं सकता चाहे भाग भाग मर जाए।।  प्रेम करो गुरु राम सिंह से जन्म मरण मिट जाए। ताराचंद हुआ प्रेम दीवाना रहा राधा स्वामी गाय।।

*1009 सजन ये प्रेम की घाटी। 454।।

                              454                            सजन रे प्रेम की घाटी, निभाओ तो गुजारा है।       कठिन मार्ग विकट चलना, नहीं तक़वा हमारा है।। अर्स के चौक के भीतर, बजे ये सुर हमारा है। जहां मन चोर मस्ताना, अनहद कह पुकारा है।।    दीवाने लोग मर्दाने, जिन्हों को खुश बहारा है।    गलिसा गैप कमालों की, मिले महबूब प्यारा है।। नजर गुलजार दिलवर से, दर्श पा के नजारा है। रहे क्यों होंश तन मन की, अगर गह गह निहारा है।। गुमानी दास नूरी में, हुआ रहना हमारा है।  मेहर करके खोल दो पर्दा, नित्यानन्द दास तुम्हारा है।।

*1008 प्रेम की बात निराली है।।453।।

                                 453 प्रेम की बात निराली है।। जिसने प्रेम किया न हरि से, वो नर खाली है।।1 प्रेम किया मीराबाई, विष पी गई प्याली है। धन्ना जाट के हो वश में हरि, बन गयो हाली है।।2 प्रेम किया कर्माबाई, ले खीचड़ चाली है। श्याम खिचड़ी खाय थालिया, कर दी खाली है।।3 प्रेम किया बजरंग बली ने, पूँछ जला ली है।  प्रभु प्रेम में बजरंगी ने, द्रोणागिर उठा ली है।।4 नाम देव रविदास कबीरा, हरि सवाली है। जग से तोड़ के जोड़ राम में, सूरत लगा ली है।।6   मदन की प्रेम के काज हरि ने विपदा टाली है। डोर स्वामी उस मालिक पर, जो बगिया का माली है।।7 कृष्ण सुदामा की प्रेम कथा तो अजब निराली है। हाल सुदामा का देखा तो, अँखियाँ भर आली हैं।।5

*1007 प्रेम प्रीत की रीत दुहेली।।453।।

                             453 प्रेम प्रीत की रीत दुहेली, जो जाने सो जाने री।। शीश देवे सो प्याला लेवे, मूर्ख क्या पहचाने  री। काका जी काम नहीं है यह महबूबा ना माने री।। तन मन धन सब कुछ सौंपे, साहब हाथ बिकाने जी।। नित्यानंद मिले स्वामी गुमानी लग गई चोट निशाने जी।।

*1006 प्रेम का मार्ग बांका रे।453।।

                                   453 प्रेम का मार्ग बाका रे।           जानत है बहु शीश प्रेम में अर्पण जागा रे।। यह तो घर है प्रेम का रे खाला का घर नाहीं।  शीश काट चरणा धरे रे तब फेटे घर माही।              देख कायर मन साका रे।। प्रेम प्याला जो पिए रे शीश दक्षिणा देय। लोभी शीश ना दे सके रे नाम प्रेम का लेय।                   नहीं वह प्रेमी बांका रे।। प्रेम ना बाड़ी उपजे रे प्रेम ना हाट विकाय। रानी राजा जो चाहे, सिर सांटे ले जाए।।                  खुले मुक्ति का नाका रे।। जोगी जंगम सेवड़ा रे सन्यासी दुर्गेश। बिना प्रेम पहुंचे नहीं रे ना पावे वह देश।                       शेष जहां वर्णन थाका रे।। प्याला पीवे प्रेम का रे चाखत अधिक रसाल। कबीर पीनी कठिन है रे, मांगे शीश कराल।।                       के वह तेरा बाबा का सजका रे।।

1005। अगर है प्रेम मिलने का तो दुनिया से क्यों शर्मावे।।

अगर है प्रेम मिलने का तो दुनिया से क्यों शर्मावे।। पिता पहलाद को मारा नाम हरि का ना छोड़ा है। प्रभु रक्षा करें जिनकी तो मन में कौन डरपावे।।     चला वन में तपस्या को मना किया राजा लगन जिसको।      लगी पूर्ण उसे फिर कौन अटकावे।। सभा के बीच द्रौपदी ने पुकारा नाम माधव का। भरोसा है जिसे हरि का क्यों दूजे की शरण जावे।।        सदा सत्संग में जाकर करो हरी का भजन प्यारे वह             ब्रह्मानंद जाता है, बता फिर  हाथ ना आवे।।

*1004 बंदे कद ध्यान लगावेगा।।452।।

                            452 बंदे कद ध्यान लगावेगा। छोड़ कर संसार पगले एक दिन जावेगा।। मोह माया ने त्याग जाग भाई कर भक्ति में सीर। मात-पिता मतलब के साथी मतलब की सै बीर।                     धीर तेरी कौन बंधावेगा। भाई बंधु कुटुम कबीला प्यारे तूने पूत। हरी के घर तैं आवे बुलावा, वे आवे यम के दूत।                          तने फिर कौन छुड़ावेगा।। बिन सोचे बिन समझे बंदे गले में घले जंजीर। आवे बुढापा ना रहे जवानी, यो डगमग होजा शरीर।                           फेर पाछे पछतावेगा।। गुरु रामकरण की बात मान ले हो जा मन का चाहा। सूरजभान कह ज्ञान ध्यान बिना कैसे जीवन पाया।                          गुण कद हरी के गावेगा।।

*1003 तेरी आनंद होजा काया, जा बैठ हरी के ध्यान में।। चंद्रभान।।452।।

                                    452 तेरी आनंद होजा काया, जा बैठ हरी के ध्यान में। काम क्रोध मद लोभ मोह का त्यागन करके छोड़ दिए। दसों इंद्रिय वश में करके, विषयों से मुख मोड़ लिए।            फल मिल जागा मनचाहा।। मेरा मेरी दुखड़ा दे रही, छोड़ दे हेराफेरी ने। एक दिन माल पराया हो जाए, के फूंके धन की ढेरी ने।                            ना संग चलेगी माया।। जैसी करनी वैसी भरनी, फल तेरे कर्म के थ्यावेंगे। बोवे पेड़ बबूल बताओ, आम कहां से आवेंगे।                            सब संतो ने समझाया।। ब्रह्म रूप भगवान मिले जो, हरि राम ने रट ले तू। बिगड़े काम संवर जाएंगे, जो नेम धर्म पर डट ले तू।                           दुख का हो जाए कती सफाया।। चंद्रभान कहे दया से, दुख का सब फंदा टलता। संतों की जा पहुंच शरण में, कौन कहे हरि ना मिलता।                            टोह्या जिसने पाया।।

*1002 ध्यान का वादा करके सजन तूने ध्यान लगाना छोड़ दिया।।451।।

                               451 ध्यान का वादा करके सजन, तूने ध्यान लगाना छोड़ दिया।। शीश तले पग ऊपर थे तब मां के पेट में लेट रहा। तब ईश्वर से इकरार किया तूने भूलकर वह सब छोड़ दिया।। देख लुभाया जग की माया, यह सब सुंदर साज बना। उसी सर्जन हार की सार नहीं, तने भोगों में मन बोड लिया। घर बार में फंसा रहा दिन रात न मौत की याद रही। उमरा सब बीती जा रही तूने प्रभु से मुंह क्यों मोड़ लिया।। बाहर ही बाहर था जब भीतर जीवन की सब भूलों में। ब्रह्मानंद भजन भगवान नहीं भवसागर में सिर फोड़ लिया।।

*1001 दे ध्यान जरा, सोच रहा।।451

                                                                   451 दे ध्यान जरा, सोच रहा क्या मन मे। जग के सब जंजाल त्याग कर, लगजा हरि भजन में।। एक दिन कंचन जैसी काया, बिगड़ जाएगा रंग तेरा। तात मात सुत भ्रात सभी, ये ना देंगे साथ तेरा।             मर करके केवल दो पल में                              जाना उसी भवन में।। घर से चलते ही त्रिया का, नाता तुमसे टूट गया।  और साथ जाने वालों का, मरघट पर सँग छूट गया।           थोड़े दिन तो रहा जमीं पर,                             जाना तुझे गगन में।। ये घर वाले बांध के तुझको, मरघट तक ले जाएंगे। चिता बीच रखने की तुझको, हरा न देर लगाएंगे।           जा बैठेंगे दूर फेर ये,                            लगा आग इस तन में।। भाई बन्धु कुटुंब कबीला, तुझसे नाता तोड़ेंगे। धन दौलत और माल खजाना, यहीं पड़ा सब छोड़ेंगे।         एक दिन हंस उड़ेगा यहाँ से,                         मुट्टी खुला वतन में।। सूट बूट पतलून उतारी, काया करदी नंगी है थोड़ा कफ़न डाल कर तुझ पर, बना न कोई संगी है।         हरि का नाम सुमरले बन्दे                      लगा आग इस धन में।।

*1000 अपने प्यारे सद्गुरु जी का ध्यान घड़ी घड़ी।।।450।।

                                                             450 अपने प्यारे सद्गुरु जी का, ध्यान लगाओ घड़ी घड़ी।। भंवरजाल में फंसी आत्मा, कालबली की कैद पड़ी।। दई देवता मढ़ी मसानी,सभी काल का है चारा। ब्रह्मा विश्व शिव और गोरख, मायाजाल में फंस हारा।। ऋषि मुनि और पीर पैगम्बर, करी तपस्या अहंकारा। रामचंद्र ओर कृष्ण जी भी, उतर सके ना भँव पारा।।         तीन युगों में बलि हुए,                     इन सब की नैया बीच अड़ी।। कोय ग्रन्थ में कोय पत्रां में, कोय जल में गोते खा रहा। कोय धर्म में कोय कर्म में, मान बड़ाई में आ रहा। राख रमा के भगवां पहरे, जटा बढालें सैं भारा। धोती नेति क्रिया करते, अंदर साफ करें सारा।            मन की मैल उतारी कोन्या,                            जिसमे अमोलक रत्न जड़ी।। लख चौरासी जून भुगत के, मानव चौला पाता है। बिन सद्गुरु के भजन बिना फिर, अंत समय पछताता है। पाँचों अग्नि देते अंदर, उनको नहीं बुझाता है। मन हठ करके देह को जलावै, तन का माँस सुखाता है।         पूरा सद्गुरु मिले बिना तेरी,                            भर्म की तोड़ै कौन लड़ी।। सोहनी सूरत मोहनी मूरत, हृदय बीच बसाना तूँ। ब

*999 ना ध्यान हरि में लाया।।450।।

                                  450 ना ध्यान हरि में लाया रे, इंसान बाबले। तनै वृथा ए जन्म गंवाया रे, इंसान बावले।।        तूँ माया में फँसके, खड़ा पाप में धंस के।        क्यूँ कोली भर रहा कस के, सब रहजा धरा धराया रे।। तनै नीत बदी में डारी, खो दई जिंदगी सारी। प्यारे पुत्र नारी, सब लूट-२ धन खाया रे।।        तूँ धन दौलत का प्यासा, तेरी पूरी न होगी आशा।        तेरा होगा नरक में बासा, ना प्रेम पृभु का पाया।।  बचपन से आई जवानी, तनै खूब करी मनमानी। कह राम कुमार ये ज्ञानी, ना ज्ञान गुरू का पाया।।

*998 थोड़ा ध्यान लगा।।449।।

थोड़ा ध्यान लगा गुरुवर दौड़े आएंगे, तुझे गले से लगाएंगे।                       थोड़ा ध्यान लगा।।                  अखियां मन की खोल, तुझे दर्शन वो कराएंगे।। है राम रमैया वो, है कृष्ण कन्हैया वो,वो ही ईश है। सत्कर्म राहों पर चलना सिखाते वो, वही जगदीश है।                      प्रेम से पुकार तेरे, पाप वो जलाएंगे।। करपा की छाया में बिठा़एंगे तुझको, कहां तुम जाओगे। उनकी दया दृष्टि जब-जब पड़ेगी तुम, यह भव तर जाओगे।                      ऐसा है विश्वास मन में, जोत वो जलाएंगे।। ऋषियों ने मुनियों ने गुरु शिक्षा का, किया गुणगान है। गुरुवर के चरणों में झुकती सकल सृष्टि, झुके भगवान है।                     महिमा है अपार सत्य की, राह वो दिखाएंगे।।

*997 तूं ढूंढते किसे फिरे, तेरे घट में सर्जनहार।। 449।।

                                   449            तेरे घट में सर्जन हार तू खोजत किसे फिरे।। जैसे कस्तूरी बसे मृगा में ढूंढत बन में फिरे। पाछे लगा कॉल पारधी, वो छिन में प्राण हरे।।           इंगला पिंगला सुखमना नाडी इनमें ध्यान धरे।           सहंसर में है भंवर गुफा भाई भंवरा गूंज करें।। दिल दरिया में हीरे लाल हैं गुरुमुख परख करें। मरजी वाकी वो सैन पहचाने, वो हीरा हाथ पड़े।।          कह रविदास सुनो भाई संतो यह पद है निर्वाण।।          इस पद की जो करे खोजना, सोई संत सुजान।।

*996 जीव जीव में है वही।।449।।

                            449 जीव जीव में है वही हर दिल जिसका धाम।         घट घट मे जो रम रहा, वो ही मेरा राम।। नहीं वह जन्म लिया दशरथ के नहीं वह वन वन भटका। नहीं किया कभी वध किसी का, नहीं जगत में अटका।।         वही निरंतर मुझ में तुझ में, नहीं अलग कोई धाम।। किसी के दिल को दुखा के प्यारे, ढूंढे राम कहां पर। हर दिन जिसका सेम रूप है बैठा वही यहां पर।           चंदर प्रभु को देखता में हर पल आठों याम।। पूजा मेरी यही निरंतर हर पल हर क्षण होवे। कोई जीव दुखे ना मुझसे, सुखों में सब जग सोए।        सत्य अहिंसा यही धर्म है धारण करें महान।।

*995. कीत जाऊं मैं कित जाऊं मैं।।448

कित जाऊं मैं कित जाऊं मैं अब कैसे प्रेम निभाऊं मैं।। मैं जाना था प्रेम प्यारा यह तो निकला दुश्मन भारा। घायल करके मुझको डारा, किसको हाल सुनाऊं मैं।।     जिसने प्रेम प्याला पिया सो मर मर के फिर जिया।।    निशदिन कांपे मेरा हिया कैसे कर समझाऊं मैं।। मजनू को लैला ने भटकाया रांझा हीर फकीर बनाया। सूली पर मंसूर चढ़ाया किस किसको बतलाऊं मैं।।     मारग कठिन प्रेम का भारी बिरला पहुंची हिम्मतवारी।          ब्रह्मानंद परम सुख कारी कैसे दर्शन पाऊ मैं।।

*994 निरंजन माला घट में फिरे दिन रात।।448।।

                             448 निरंजन माला घट में फिरे दिन रात।। ऊपर आवे नीचे जावे सास सास चल जात। संसारी नर समझे ना ही व्यर्था जन्म गवात।। त्रिकुटी में जब नाम को जहां उजाला होय। सुहासा माही जपने से दुविधा रहे ना कोय।। सोहम मंत्र जपे नित्य प्राणी, बिन जीभ्या बिन दांत। आठ पहर में सोवत जागत कभी ने पलक रुकात।। माला फेरत जुग भया फिरा न मन का फेर। कर का मनका डार दे मन का मनका फेर।। हनसा सोहम सोहम हंसा, बार-बार उल्टात। सतगुरु पूरा भेद बतावे, निश्छल मन ठहरात।। पीपी करता दिन गया रेन गया पिय ध्यान। विरह लगन के शहजे सधे, भक्ति योग और ज्ञान।। जो जोगी जन जान लगावे, बैठ सदा प्रभात। ब्रह्मानंद मोक्ष पद पावे फिर जन्म नहीं आत।।

*993 घट पट में लखो हे दीदार इस जग में कैसे भटक रही।।448।।

घट पट में लखों हे दीदार इस जग में कैसे भटक रही।। जग तो दुख द्वंद का सिंधु है नहीं पाया कोई पार। इंगला पिंगला कर दो दोनों जाओ सुखमणि द्वार।। तील के भीतर तील को देखो दोनों तिल करो इकसार । बाहरी वृत्ति छोड़ो सारी सुनो संत झंकार।। कोटिक सूरज चंद्र देखो खिले भांति भांति फुलवार। बिजली चमके बादल गरजे बहे अमिज़ल धार।। ताराचंद महबूब मिले जिन्होंने दिया शब्द का सार। जीवो का आवागमन छुड़ावे जो पकड़े शरण संभाल।।

*992. उजाला है उजाला है घट भीतर पंथ निराला है।।447

उजियाला है उजियाला है घट भीतर पंथ निराला है।। त्रिकुटी महल में ठाकुरद्वारा जिसके अंदर चमके तारा। चहू दिस परम तेज विस्तारा सुंदर रुप विशाला है।।     सात खंड का बना मोकामा, है मार्ग दुष्कर जाना।      गुरु कृपा से चढ़े सुजाना पीवे अमृत प्याला है।। सूरत हंसिनी उड़ी आकाश देख अचरज सकल तमाशा। नो भुवन हुवा प्रकाशा खुल गया निर्मल ताला है।।     कर्मन का बंधन सब टूटा मोह माया कागज टूटा।     ब्रह्मानंद सकल भय झूठा सब भव लजाना है।।

*991। काहे रे वन खोजन जाई।।447

       काहे रे बन खोजन जाई।। सर्व निवासी सदा अलेपा तेरे संग समाई।।         पुष्प मध्य ज्यों बास बसत है मुकर माही जैसे छाई। बाहर भीतर एक ही जानू यही गुरु ज्ञान बताई।       जन नानक बिन आपा चिन्हे मिटे न भरम की काई।।

*990 नजर से देख ले भाई।।447।।

                               4467 नजर से देख ले भाई, ईश्वर तेरे घट माही।। क्यों काशी क्यों मथुरा जावे, जाए हिमालय क्यों दुख पावे।             कर सत्संग विचार भेद,  सच्चे गुरु से पाई।। कस्तूरी मृग नाभि विराजे, घास सूंघता वह बन वन भाजे।         बिन जाने मूर्ख यूं ही फिरता भटकाई रे।। हाड़ मांस का यो पिंजर काया, चेतन के बल फिरे फिराया।         बाजीगर ने कठपुतली का नाच नचाई रे।। विषयों में तू सुख को माने, ब्रह्मानंद स्वरूप ना जाने।          उलट सूरत संभाल भरम मन का मिट जाए रे।।

*989 है तेरा तुझ माही देख ले।।447।।

                             447 है तेरा तुझ मांही देख ले पर्दे है परगट बोले।।  नाभि कंवल की गहरी_२ नदियां, उल्टी पवन शिखर डोले। नाम ने सुरता गा मनकारी, लगन मगन में तूं होले।। पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण, चार कूट भरमत डोले। तूं जिस कारण फिरे भरमता, वो रह गया तिल के ओले।। आप अखंडी तूं वनखंडी, बस्ती बसे न वन डोले। कह  कमाली है बड़भागी, पेड़ पकड़ निर्भय होले।।

*988 घट ही में अविनाशी।।447।।

घट ही में अविनाशी रे साधु घट ही में अविनाशी रे।। काहे रे नर मथुरा जावे, काहे जाए काशी रे।। तेरे मन में बसे निरंजन जो बैकुंठ निवासी रे। नहीं पाताल नहीं स्वर्ग में नहीं सागर जल राशि रे।। जो जन सुमिरन करे निरंतर सदा रहे तीन पासी रे। जो तू उसको देखा चाहे सबसे रहो उदासी रे।। बैठ एकांत ध्यान नित कीजे, होए  जोत परकाशी रे। हृदय में जब दर्शन हो गए शक्ल मोह तम नाशी अरे।। जोत से जोत प्रकाशी रे अंतर तिमिर विनाशी रे। ब्रह्मानंद मोक्ष पद पावे कटे जन्म की फांसी रे।।

*987 क्या ढूंढ रहे वन वन।।446।।

                                  446 क्या ढूंढ रहे वन वन, घट घट में समाया है। तेरे भीतर मेरे भीतर, उसकी तो छाया है।।   कोय तीर्थ मूरत डोलत है, कोय पत्थर पानी धोवत है।                  नित पास तेरे तूँ दूर फिरे,                                   क्या भरमाया है।। तूँ बाहर जतन हजार करे, पर भीतर ना उजियार करे।                मन मार थके तन हार थके,                                  कुछ काम न आया है।। ज्यूं सूरज चंद दिखे जल में, तालाब कूप गागर जल में।               क्यूँ राम रमे अल्लाह रमे,                                     कोई भेद न पाया है।। बन सके दया करदे आराम, करदे मुश्किल घट रमे राम।               भज सत्तनाम तज कपट काम,                                          कह चंद लखाया है।।

*986 तेरे घट में झलका।।446।।

                                                                    446 तेरे घट में झलकै जोर, बाहर क्या देखै।।      पांचों ऊपर बंध लगाले, ओर पचीसों मोड़।     मन की बाघ सुरत घर लाओ, प्रीत जगत से तोड़।। देह नगर में अद्भुत मेला, सौदा कर रहे चोर। आतमराम अमर पद पावै, मग्न रहे निशिभोर।।     एक पलक के फेर में रे, रहे निरंजन पोर।     उल्टा पूठा तज जग झूठा, काहे मचावै शोर।। प्रेम गली विच साहेब पावै, औऱ नहीं नर ठोर। पहुंचे साध अगाध अगम घर, बंधे इश्क की डोर।।     कोटि चन्द्र अमी जहां बरसे, निकसे भान करोड़।।    नित्यानन्द महबूब गुमानी, जहां अनहद घनघोर।। 

*985. घटका करो विचार साधु ।।446।।

घट का करो विचार साधु, घट का करो विचार रे।। घट में गंगा घट में जमुना, त्रिवेणी की धार रे। घट में नदियां पर्वत, सागर बाग बहार रे।। घट में सूरज घट में तारे, घट में चंद्र उजार रे। घट में बिजली चमक बहावे, गर्जे मेघ अपार रे।। घट में तीनों देव विराजे, ब्रह्मा शंभू मुरार रे। घट में पूर्ण ब्रह्म निरंजन, सब जग सर्जन हार रे।। जो बरहमंडे सोई पिंडे, मन में निश्चय धार रे। ब्रह्मानंद उलट सुरती को, देखा सकल निहार रे।।

*984 तू खोजत किसे फिरें।। 445

                          445 तू खोज किसे फिरे तेरे घट में सर्जन हार।। जैसे कस्तूरी बसे मृगा में, ढूंढत घास फिरे। पीछे लगे वह काल पारधी, क्षण में प्राण हरे।। इंगला पिंगला सुषुम्ना नाड़ी इनमें ध्यान धरे। शहसर में है भंवर गुफा जहां भंवरा गूंज करें।। दिल दरिया में हीरे लाल हैं गुरुमुख परख करें। मरजीवा की सेल पिछाने, हीरा हाथ पड़े।। कह रविदास सुनो भाई साधो यह पद है निर्वाण। जो नर इसको समझे बूझे सोई चतुर सुजान।।

*983 सतगुरु मिले हमारे सब दुख मिट गए।।445।।

सतगुरु मिले म्हारे सब दुख मिट गए।                       अंतर के पट खुल गए री।। ज्ञान की आग लगी घट भीतर कोटी कर्म सब जल गई री।। पांच चोर लुटें थे रात दिन आपसे आप वे टल गए री।। बिन दीपक म्हारे हुआ उजाला तिमिर जाने कहां नस गए रे।। त्रिवेणी की धार बहुत है अष्ट कमल दिल खिल गए री। कोठी भानु मारे हुआ प्रकाश और ही रंग बदल गए री।। सुन्न महल में वर्षा हुई अमृत कुंड उझल गए री।  कह कबीर सुनो भाई साधो नूर में नूर यह मिल गई री।।

*982 ऐसा ऐसा लगन लिखाया गुरु ने।।444।।

                               444 ऐसा ऐसा लग्न लिखाया गुरु जी ने, ऐसा ऐसा। जन्म-२ से कुँवारी म्हारी सुरतां, इबकै ब्याह रचाया है।। हरि नाम की हल्दी लगाई, नेक चित्त में समाया है। दयाधर्म की मेंहन्दी लगाई, लाल लाल रंग आया है।। आला सिला बांस कटाया, मोती मण्डप छाया है। पाँचपच्चिस मिलबैठीसहेलियां,  मिलकर मंगल गाया है।। धूम धड़ाके से चले बराती, बाजा बैंड बजाया है। आगे आगे ढोल बजत है, बारातियों को नचाया है।। सूरत निरत गई फेरां में, कन्यादान कराया है।  सद्गुरु शरण धर्मिदास बोला, अपना प्रण निभाया है।।

*981 लगन तुमसे लगा बैठे जो होगा देखा जाएगा।।444।।

                               444 लगन तुमसे लगा बैठे जो होगा देखा जाएगा।।        तुम्हें अपना बना बैठे जो होगा देखा जाएगा।। कभी दुनिया से डरते थे के छुप छुप याद करते थे।                  अब पर्दा उठा बैठे जो होगा देखा जाएगा।। कभी यह ख्याल था दुनिया हमें बदनाम कर देगी।                      शर्म अब बेच खा बैठे।। दीवाने बन गए तेरे, तो फिर दुनिया से क्या लेना।                    तेरे चरणों में आ बैठे जो होगा देखा जाएगा।

*980 मोहे लागी लगन गुरु चरणन की।।444।।

                          444 मोहे लागी लगन गुरु चरणन की।। गुरु के चरण बिना कुछ नहीं भावे।           जगमाया के सब साधन की।। भवसागर सब सूख गया है।           फिकर नहीं है मोहे तरनन की।। कहे मीरा रविदास की चेली।          आस लगी है मोहे चरणन की।।

*979. मान रे मन मान मूर्ख 443।

मान रे मन मान मूरख बात मेरी मान रे।। जैसे बिजली बीच बादल होता है चलमान रे। माल धन जीवन नहीं थीर, क्या करें अभिमान रे।। जग में मानुष देह पाई परम मोक्ष निधान रे। भजन बिना व्यर्था गंवाई भूलकर नादान रे।। कर ले जो कुछ हो सके अरे योग जप तप दान रे। मन में फिर पछतायेगा जब निकल जाए प्राण रे।। संत संगत बीच जाकर सरवन कीजे ज्ञान रे। ब्रह्मानंद स्वरूप पूर्ण, घट में अपने जान रे।

*978 लागी का मार्ग और है लगी चोट कलेजे करके।।

लागी का मार्ग और है लगी चोट कलेजे करके।। बन बीच भरतरी भूप ने एक मारा ताण निशाना। कोई घड़ी सधी थी आवन की साधो का हो गया आना।। कोई मुवा मृग जवा दियो ना तो तार धरो ना वाना।।       वह जिंदा कर दिया धोर था, शिष्य बना परीक्षा करके।। गोपीचंद जोगी हो गए जिस ने ले लिया भगवा बाना। गुरु महल जनाने भेजता ड्योढी पर अलग जगाना। व्यंजन छत्तीसों छोड़ के भिक्षा का भोजन खाना।        तन पड़ गया कमजोर था ना खाया उदर भर के।। वाजिद कहे उठाओ ऊंट को, लोग कहे यह मूवा। रही उठने वाली चीज नहीं, गया उड़ सैलानी सुआ। कुछ नक शक बिगड़ा है, नहीं वाजिद  अचरज हुआ।।         जिसने करा अचंभा घोर है तजा राज काल से डर के।। सुल्तानी मगन वैराग्य में जिने तज दिया बलक बुखारा। कदे पालकियों में चा लता अब खा लिया गूदड़ भारा। सब संगी छोडी रोवती, रोवैत था कुनबा सारा।।               शोर मचा रणवास में ना देखा पीछा  फिरके कुएं में शेख फरीद ने कैसी बोली मीठी भाषा। तुम चुग चुग कागा खा लियो मेरे तन का हाड़ और मासा। मेरे दो नैना मत छीन छेडियो मुझे राममिलन की आशा।          जिस ने करी तपस्या गौर थी, वे हुए आश्रय हरी के।। पीपा दरिया में कूद गए जि

*977 लग्न म्हारे लगी हो पायो निज नाम।।442।।

                               442 लग्न मारे लागी हो, पायों निज धाम। मारे सतगुरु शब्द सुनाओ म्हारे नाभि कमल ठहरायो।                  हमारे गगन मंडल गर्नायो।। हमारी शब्द सुंदरी जागी मारी सूरत गुरो से लागी।                   वाको सुन्न में डोलो डाल्यो हे।। जिसने ऑलनियां उड़ायो, जाने पालनिया झूलायों।                   वा ने गहरी मौजा मारी है।। सोहंग सोहंग जो धारा जिसने जाने जानन हारा।                    वा ने जाने सो ही पहचाने है।। या परा पश्यन्ती वाणी या दास कबीर पहचानी।                   वा ने जानी सोई मानी रे।।

*976 लगन लगी थारे नाम की।।442।।

                               442 लगन लगी थारे नाम की।              कब से देखू बात गुरु जी मैं थारे आन की।। थारी दया से जाता मेरा भी उद्धार हुआ। टीकर्मों की थी मारी में तो मेरा भी सुधार हुआ। ज्ञान ध्यान और प्रेम सिखाया मेरा बेड़ा पार हुआ।                     मैं मुरली थारे धाम की।। अच्छा खाना वाना मैंने चाहिए ना ससुराल का। कोठी बंगले महल ना चाहिए किसी पहरेदार का। मेरा मन है प्यासा सतगुरु तेरे दीदार का।                हो मैं शोभा थारे धाम की।।

*975 दीया तो चासों भाई गुरु की लगन का।। राधा स्वामी।। 441।।

दीया तो चासो भाई गुरु की लगन का।। काट दसोठा आई सुरता प्यारी, गुरु दर्शन की प्यास करारी।                     दुखड़ा ना देखा जाए इस विरिहन का। मोह माया की सारी लंका जारो लोकमान के असुर संहारो।।                 राज रहे ना फिर राजा दशानन का।। सुमरन की बांटो दिए की बाती चस्ती रहे ना बुझे दिन राती।                  तेल परोसो इस भक्ति दुल्हन का।। तीन यूगों से आए मनती दिवाली,            मन नजर की डोरी फिर भी है काली।                      रोग ना फेरो इस नाम भजन का। संत मते की है न्यारी दिवाली,           जिसने भी सच की लो है बाली।                     मिला दूर ठिकाना राधा स्वामी भवन का।। संत कंवर सिंह हैं संत युगादी,         सकल रामायण घट में दिखा दी।                  मिटा2 है तिमिर हरीके सखी मन का।।

*974 लगन लगाए फकीर तन में लागी।।441।।

                                    441 लगन लगाए फकीर तन में लागी लगन लगाए तैं लागी जी।। पहलम लागी रे दिल सांचे पर फिर जीभ्या पर लागी जी। फिर भी लागी भूले नयन कमल में फेर हृदय में लागी जी।। दूजे या लागी घर अपने में फिर पड़ोसियों में लागी जी। फिर भी लगी भूले बगड़ मोहल्ले छोड़ नगरिया भागी जी।। तिजे या लागी घास फूस में, फिर लकड़ियों में लागी जी। फिर भी लागी भूले तन बदन में, हाड मास में लागी जी। चौथी या लागी अटल अटारी, फेर अमरापुर लागी जी। कह कबीर सुनो भाई साधो, जाग उठे बड़भागी जी।।

*973 गुरू से लग्न कठिन है रे।।441।।

                                     441 गुरू से लग्न कठिन है रे भाई। लग्न लगे बिन कारज नहीं सरहिं, जीव प्रलय हो जाई।। जैसे पपिहा प्यासा बूँद का, पिहू पिहू टेर लगाई। प्यासे प्राण तड़फ दिन राती, और नीर नहीं भाई।। जैसे मृगा शब्द स्नेही, शब्द सुनन को जाई। शब्द सुने और प्राण दान दे, तन की रहे शुद्ध नाहीं।।  जैसे सती चढ़ी सत्त ऊपर, पिया की राह में भाई। पावक देख डरे नहीं मन मे, चिता में बैठ समाई।। दो दल सम्मुख आए डटे हैं, सूरा लेत लड़ाई।। कट कट शीश पड़े धरणी में, खेत छोड़ ना जाई।। छोड़ो तन अपने की आशा, निर्भय हो गुण गाई। कह कबीर सुनो भई साधो, ना तै जन्म लजाई।।

*972 लगन की चोट भारी है।।440।।

                                  440 लगन की चोट भारी है कटारी से करारी है।।   लगी सुल्तान के जाई जिसने छोड़ दी बादशाही। छोड़ी जिसने सहस्त्र हुरियां, अठारह लाख की सुरियां।। लगी बाजींद के जाई, दिया सब माल लूटवाई। मरे हुए ऊंट को देखा, जगत में बहुत बड़ा धोखा।। लगी फ़रीद के जाआई, वह लटके कुए के माही। हुआ तन सुख की झीना, मिले सतगुरु दृश्य दीन्हा।। लगी मनसूर के जाई, करी ऐसी जगत माही। कहीं जिसने अनहलक बानी, गड़ी जिनके सूल ना जानी। जलन की भीड़ है भारी क्या जाने बांझवा नारी। जगत में होती न्यू आई, साहेब के पीर तन जारी है।।

*971 लागी लागी कहे जग सारा।।440।।

                                 440 लागी कहे जग सारा, लागी के घर तो दूर है। जिसके लागी भीतरले में, जाने जानन हारा। रोम रोम में घाव हो गए, घाव नजर नहीं आ रहा।। प्रहलाद भगत के ऐसी लागी सुन कुंहरे की वाणी। आवे मैं से बच्चे निकले अग्नि हो गया पानी।। मीरा बाई के ऐसी लागी, छोडा महल चौबारा। जहर का प्याला अमृत बन गया नाग गले का हारा।। धन्ना भगत के ऐसी लागी, बीज बांट दिया सारा। कंकर बोई अन्न निपजा रे, हो गई जय जय कारा।। ताराचंद को ऐसी लागी भक्तों का करा निस्तारा। रूपचंद को भी अवसर मिल गए मिल गए बारंबारा।।

*970 लागी रे साधो नाम की फेरी।।440।।

                            440 लागी रे साधु नाम की फेरी।। सतगुरु जी के शब्द ने टेरी।। इस काया में एक वृक्ष है छाया।                दे रहा वह तो छाया घनेरी।। इस काया में एक बाग लगा है।                 लग रही वहां तो मेवा घनेरी।। इस काया में एक वेद बसे है।                  दे रहे वह तो दवा घनेरी।। गुरु रविदास को अर्ज मीरा की।                 चाकर रहूं थारे चरणों की दासी।।

*969. मन भाती है मन भाती है 439।।

मन भाती है मन भाती है, अनहद की टेर सुहाती है।। गगन महल में नौबत बाजे ऊपर शिखर घंटा घन गाजे। चंचल बिजली चमक विराजे, बूंद सुधा बरसाती है।। बिना दीपक जहां जीव उजाला कोटिभानु शशिचमके तारा। खेल करे नित प्रीतम प्यारा, सखियां मिलकर गाती है।। उल्टा मार्ग कठिन दोहेला को एक पहुंचे गुरु का चेला। सूरत शब्द का होवे मेला, प्याला प्रेम पिलाती है।। भंवर गुफा मै सेज बिछाई योग नींद तन शुद्ध विसराई। ब्रह्मानंद परम सुखदाई पूर्ण रूप समाती है।।

*968 काहे सोच करे नर मन में वह तेरा रखवाला है।।440

काहे सोच करे नर मन में वह तेरा रखवाला है रे।। घर भगवा से से जब तू निकला दूध कुचन में डारा है रे बालापन में पालन कीन्हा माता मोह द्वारा है रे।।    रक्षा मनुष्यों के कारण पशुओं के हित चारा रे।    पक्षी वन में पान फूल फल सुख से करत आहारा रे।। जल में जल सर रहता निरंतर खामोश करा रहा है रे। नाग बसे भूतल के मांही जीवे वर्ष हजारा रे।।       स्वर्ग लोक में देवन के हित, बहत सुधा की धारा रे।       ब्रह्मानंद फिकर सब तज कर सुमिरो सर्जन हारा रे।।

*967 मनवा सोच समझ कर देख ले।।439

       मनवा सोच समझ के देख ले नश्वर सब संसार। राजा जावे रानी जावे जावे सब परिवार। महल खजाना सब चल जावे जावे घर दरबार।।        सूरज चांद सितारे पर्वत सागर नीर अपार।        दिन दिन काल सभी को खावे ध्यावे पवन स्वार।। बाल पना जीवन सब बीता कर कर काम विहार। मौत खड़ी सिर ऊपर तेरे अब तो चेत गवार।।        प्रभु का नाम सुनो निशि वासर छोड़ जगत व्यवहार।          ब्रह्मानंद मिटें भव बंधन छूटे सभी विकार।।

*966 मोहे लगन लगी गुरु पवन की।।439।।

                          966 मोहे लगन लगी रे गुरु पावन की।                               गुरु पावन की घर लावण की।।  छोड़ काज और लाज जगत की, निशदन ध्यान लगावन की। सूरत उजाली हुई मतवाली, गगन महल में जावण की।। झिलमिल कारी जोत निहारी, जैसे वो बिजली सावन की।। ब्रह्मानंद मीटी सब आशा, नीरख छवि  मनभावन की।।

*964 मेरे मन अब तो सुमर हरि नाम 257।।

                            964 मेरे मन अब तो सुमर हरि नाम।। लख चौरासी जिया जून में नहीं पाया विश्राम।। कर्मों के वश स्वर्ग नरक में भटकत फिरा निष्काम।। मनुष्य हैं मिली यह दुर्लभ मोक्ष द्वार सुखधाम।। ब्रह्मानंद चली सब जावे वृथा उम्र तमाम।।

*962 रे मनवा अब तो समझ मेरे भाई 41।।

                            962 रे मनवा अब तो समझ मेरे भाई तेरो अवसर बीतो जाई।। लाख करोड़ी माया जोड़ी करकर कपट कमाई। ऊंचे ऊंचे महल बनाए सोया सेज बिछाई।। सुंदर सुंदर वस्त्र पहनने भूषण देह सजाई। नए-नए नीतू भोजन खाए सडरस स्वाद बनाइ।। जोवन भरिया सुंदर नारी भोगी कंठ लगाई। गजरथ बाजी करी सवारी सैल किए मन भाई। बालपणा जोबन पुनः बीतो वृद्ध अवस्था आई। ब्रह्मानंद छोड़कर तृष्णा शांति पकड़ मन माही।।

*961 कर ले रे मन राम नाम से मेल।।

                           961 कर ले रे मन राम नाम से मेल।। बिना रे भजन के बंदे घना दुख पावे, ज्यो तेली का बैल।। भजन करन तैं तेरे सब दुख कट जा, ज्यों साबुन से मेल।। भाई बंधु तेरा कुटुंब कबीला, कोई ना चले तेरी गैल।। कह रविदास सुनो भाई साधो, कर सतगुरु से मेल।।

*960 मन पकड़े सो सूरा सूरत से।।

                             960 मन पकड़े हो सुरा सूरत से, मन पकड़े सो सूरा हो जी।। जो मन पकड़ सके ना सूरत से,  सो सब कूड़म कूड़ा हो जी। हरी हरी धुन ले चढो गगन में, तब पावे पद पूरा ओ जी।। परम पुरुष से रहे ना पर्दा, आठों पहर हजूरा हो जी।। नाद बिंदु को एक घर रखें, उनमन  हो धुन लावे शब्द अनाहद सुने रात दिन, तब परम पद पावे हो जी।। सोई संत सियाना कहिए जो मन पर चोट चलावे हो जी। पांच पच्चीसौ और तीन गुण, बांध एक घर लावे हो जी।। बंक नाल के ऊपर आसन, बैठ राम गुण गावे हो जी। कहे पानप जो इस विद सुमरे फिर जन्म नहीं पावे जी।।

*959 राधास्वामी राधास्वामी बोल रे मना क्यों फिरता डामाडोल रे मना।।437।।

                          959 राधास्वामी राधास्वामी बोल रे मना।                               क्यों फिरता डामाडोल रे मना।। तेरे अंदर एक अलमारी है उसमें बैठी सुरता प्यारी है।               अलमारी का ताला खोल रे मना।। तेरे अंदर सत्य की तखड़ी है तेरी बांह गुरु ने पकड़ी है।             तूं सत्य का सौदा तोल रे मना।। तेरे अंदर शीशा जडिया है, तूं पांच ठगों ने ठगीया है।             तूं उन से नाता तोड़ रे मना।। तेरे अंदर माल खजाना है क्यों फिरता देश दीवाना है।              तू उसकी खोजा खोज रे मना।। तेरे अंदर दसवां द्वारा है उड़े बैठा सतगुरु प्यारा है।               तू उससे नाता जोड़ रे मना।। चना बीज बुलावे से गुरु गोविंद सिंह समझावे से।         तू उनके चरणों में लाग रे मना।।

*958 सुनिए मन चंचल रे।।436।।

                                 958 सुनिए मन चंचल रे, कुछ कर ले होश अकल रे।                                  क्यों डगर डगर भटकाए। तेरी दो दिन की जिंदगानी रे, क्यों व्यर्था जन्म गंवाए, कितने जन्म तेरे बीत गए, ना सतगुरु शिक्षा पाई। भरम बीच में रहा भरमता मीथ्या  जन्म गंवाईं।      कुछ ना करे कमाल रे तने बहुत करें उपाय।। भाई बंधु कुटुंब कबीला इनकी है मजबूरी। यम राजा का आवे संदेशा जाना पड़े जरूरी।         सतगुरु के बिना तेरी मजदूरी कोई काम ना आए।। मोह माया में फस के बंदे तू बन बैठा अभिमानी। आवागमन के चक्कर में तने, खो दी चारों खानी।        तेरा उत्तम चोला है इंसानी, समझे और समझाएं।। सतगुरु धारण किया गुरु ने, गुरु म्हारे ने पदवी पाई, तारी संगत सारी।।         सत्य राह पर चलते रहिए, सतगुरु राह बताए।।

*957 बार-बार तने मैं समझाऊं समझ मेरे मन यार।।

                                957 बार-बार तने मैं समझाऊंगा समझ मेरे मन यार।                  सत्संग में तूं आजा न एक बार।। कब तक झूठ चलेगी तेरी कब तक पाप कमाएगा। चोरी चुगली बेईमानी का, कब तक खेल खिलाएगा।            क्या मुख लेकर कर जाएगा, उस घर में राज द्वार।। कोठी बंगले धन और दोलत झूठी तेरी शान है। क्या लाया क्या हाल है जायेगा दो दिन का मेहमान है।          क्या तेरी पहचान है, कदे लाया नहीं विचार।। गर्भ वास में वचन भरे थे, याद तेरे इकरार नहीं। हरदम बैर कुब्ध में राखे सत्संग वाली सार नहीं।           उस मालिक से प्यार नहीं, जो सबका सर्जन हार।। जहां जाओ सत्संग वहां दो घड़ी जाया करो। काम क्रोध मद लोभ तज गुरु चरण चित लाया करो।        कहे कर्म नाथकर गाया करो, भाई शब्द ज्ञान टकसार।।

*954 रे मनवा अब तो संभल मेरे भाई 41।।

                               954 रे मनवा अब तो समझ मेरे भाई तेरा अवसर बीता जाई।। लाख करोड़ी माया जोड़ी कर कर कपट कमाई। ऊंचे ऊंचे महल बनाए सोया सेज सजाई।। सुंदर सुंदर वस्त्र पहने भूषण देह सजाई। नए-नए नित भोजन खाएं, सडरस स्वाद बनाई।। जोबन भरिया सुंदर नारी भोगी कंठ लगाइ। गज रथ बाजी करी सवारी सैल किए मन भाई।। बालपणा जोबन पुनः बीता वृद्धावस्था आई। ब्रह्मानंद छोड़ कर तृष्णा शांति पकड़ मन माही।।

*953 समझ ले तेरी कौन चीज की आशा।।

                             953 समझ ले तेरी कौन चीज की आशा।। जो सुख चाव्हे है विषय भोग में, यहां नहीं सुख जरा सा। भोग नहीं ये रोग समझ ले, पड़े काल का फांसा।। एक सुख आतम एक अनातम एक रीता एक भरा सा। एक सुख बंधन का कारण एक में समझ खुलासा।। घर में धरी चीज ना सुझे यह बड़ा अजब तमाशा। जल में रहते थल नहीं मिलता, मरे पपीहा प्यासा।। गुरु भावानन्द आनंद हो बैठे, हुई वासना नासा। कह ओंकार खोल जब होवे दिखे भाव भरा सा।।

*951 मुखड़ा क्या देखे दर्पण में।।

                              951 मुखड़ा क्या देखे दर्पण में, तेरे दया धर्म नहीं मन मे।। कागज की एक नाव बनाई, उतरा गहरे जल में। धर्मी-२ पार उतरगे, पापी डूबे जल में।। आम की डाली कोयल राजी, मछली राजी जल में। घर वाली तो घर में राजी, फक्कड़ राजी वन में।। ऐंठत पाग मरोड़े मूंछें, तेल चुवै जुल्फ़न में। गली गली की सखी रिझाई, दाग लगाया तन में।। पत्थर की एक नाव बनाई, उतरा चाहवै छिन में।  कह कबीर सुनो भई साधो, ये क्या लड़ेंगे रण में।।

*950 डाटा ना डटेगा रे मन पावना दिन चार।434।।

                              950 डाटा ना डटेगा रे मन पावना दिन चार।।                   छः चकवी दो कसे हुए रे, था बहुत घना धन माल। लदी लदाई रह गई रे, ऊंटों जैसी लार।। चित्रशाला सूनी पड़ी रे उठ गए साहूकार। बिछी बिछाई रह गई रे, चौपड़ ऊपर सार।। निज मंदिर चोरी हुई रे, हड़ा गया एक लाल। ना जाने वह कहां गया रे, टूटी नहीं दीवार।। पांचू खूंटी टूट गई रे, टूटे तिरगुन तार। तार बेचारा क्या करें रे, नहीं रहा बजावनहार।। तेल जला बाती बुझी रे महल हुआ अंधियार। जिसका था उसने ही ले लिया कह गए कबीर विचार।।