*1027 भक्ति का मार्ग झीना रे।।462।।
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भक्ति का मार्ग झीना रे।कोई जाने जानहार संत जन, जो प्रवीणा रे।।
नहीं चाह अचाह उर अंदर, मन लो लीना रे।
साधु की संगत में निशदिन रहता झीना रे।।
शब्द में सूरत बसे इमी जैसे, जल बीच मीना रे।
जल बिछड़े तत्काल होत हैं, बदन मलीना रे।।
धनकुल का अभिमान त्याग कर रहे अधीना रे।
परमारथ के हेत देत सिर दिन में जा किन्हाँ रे।।
धारण कर संतोष सदा अमृत रस पीना रे।
भक्ति रहन कबीर शकल परगट कर दीन्हा रे।।
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