Posts

Showing posts from December, 2022

*683 जागो रे माया के।।683।।

                                683 जागो रे माया के लोभी, सद्गुरु चरणों लाग रे।। जो सुमरै सो हंस कहावै, कामी क्रोधी काग रे। भर्म मत भोवरा विष के बन में, चल बेगमपुर बाग रे।। कुब्द्ध काँचली चढ़ी है चित्त पे, हुआ मनुष्य से नाग रे। सूझे नाही सजन सुख सागर, बिना प्रेम वैराग रे।। उम्दा चौला रत्न अमोला, लगै दाग पे दाग रे। दो दिन की गुजरान जगत में, क्यो जले बिरानी आग रे।। तन सराय में जीव मुसाफिर, करता बहु अनुराग रे। रैन बसेरा कर ले डेरा, अजर हुए उत लाग रे।।   उठ सवेरा भरा तमाखू, फूटे तेरे भाग रे।  राम भजा ना सुकर्म कीन्हा, क्या जाग्या निर्भाग रे।। शब्द सैन सद्गुरु की पिछानी, पावै अटल सुहाग रे। नित्यानन्द महबूब गुमानी, पूर्ण प्रगट भाग रे।।

*681 जो तूँ पिया की लाडली।।681।।

                                                                  681 जो तूँ पिया की लाडली री, अपना कर ले री। कलह कल्पना मेट के, चरणों चित्त ले री।।    पिया का मार्ग कठिन है, खांडे की धारा।    डगमग हो तो गिर पड़े, नहीं उतरे पारा।। पिया का मार्ग सुगम है तेरी चाल अमेढा। नाच न जाने बावली री, कह आंगन टेढा।।     जो तूँ नाचन निकसी फेर घूंघट कैसा।     घूंघट के पट खोल दे, मत करै अंदेशा चंचल मन इत उत फिरैं, पतिव्रता जनावै। सेवा लागी नाम की, पिया कैसे पावै।।     खोजत ही ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि देवा।     कह कबीर विचार के, करो सद्गुरु सेवा।। 

*680 प्रीत लगी तुम नाम की।।680।।

                                  680 प्रीत लगी तुम नाम की, पल बिसरूं नाही। नजर करो अब मैहर की, मिलो मोहे गोसाई।। बिरहा सतावे है जीव यो, तड़फे मेरा।  तुम देखन का चाव है, प्रभु मिलो सवेरा।। नैना तरसे दर्श को, पल पलक न लागे। दर्द बंद दीदार का, निशि वासर जागे।। जो अब के प्रीतम मिले विसरू नहीं न्यारा। कहे कबीर गुरु पाईया प्राणों का प्यारा।।

*680 राम नाम की मौज गुरु से पाईए।।680।।

राम नाम की मौत गुरु से पाइए।  हीरा हाथ चढ़ाए, ना फिर गंवाइए।। प्रेम प्रीत प्रतीत, सनेह बढ़ाइए। अवगत अंतर धार, सभी बिसराइए।। यतन यतन कर राख रतन सी देह को। इस तन सेती त्याग, जगत के नेह को।। चला चली को देख सवेरा चेत रे। अमरपुरी मुकाम जाए क्यों ना चेत रे।। इस दुनिया के बीच बसेरा रैन का। करो महल की सैल जहां घर चैन का।। चला जाए तो चाल दांव यह खूब है। पहुंचेंगे उस देश जहां महबूब है।। अष्ट सिद्धि नव निधि नाम की दास है। सुख संपत्ति सब भोग भक्ति के पास हैं।।  गुरु गुमानी दास ब्रह्म उजास है। नित्यानंद भज लेय, तो कारज रास है।।

*679 दुविधा को कर दूर धनी को सेव रे।।679।।

                              679 दुविधा को कर दूर, धनी को सेव रे। तेरी भवसागर में नाव सूरत से खेव रे।। सुमर सुमर सतनाम चिरंजी जीव रे। खांड नाम बिन मूल घोल क्यों ना पीव रे।। काया में नहीं नाम धनी के खेत का। बिना नाम किस काम मटीला डला रेत का।। ऊंची कचहरी बैठे जो न्याय चुकावते।   गए माटी में मिल नजर नहीं आवते।। तुम माया धन-धाम देख मत फूल रे। चार दिनों का रंग मिलेगा धूल रे।। बार-बार यह देह नहीं है वीर रे। चेता जा तो चेत न्यू कहत कबीर रे।।

*679 तन सराय में जीव मुसाफिर।।679।।

                              679 तन सराय में जीव मुसाफिर करता रहे अवघात रे। रैन बसेरा करले न डेरा, उठ सवेरा त्याग रे।। यह तन चोला रतन अमोला लगे दाग पे दाग री। दो दिन की गुजरान जगत में, क्यों जले बिरानी आग रे।। कुब्ध काचली चढी है चित्त पर हुआ मनुष्य से नाग रे। सूझत नाही सजन सुख सागर, बिना प्रेम वैराग रे।। सरवण शब्द बूझ सतगुरु से, पूर्ण प्रगते भाग रे कह कबीर सुनो भाई साधो, पाया अटल सुहाग रे।।

*672 चुग हंसा मोती।।672।।

                                   672 चुग हंसा मोती मानसरोवर ताल।। सात समुंदर पुर रहे रे उठे कुदरती खाल। इनको समझ के तुम नहा ले ने बिल्कुल मत करें टाल।। आगे पर्वत गुफा सुंदरी देखत भये निहाल। वहां मोती सदा निपजते कभी न पड़ता काल।। सूरत पलट के देख प्यारे, खिला अमोलक लाल। चांद सूरज वहां दोनों नाही, जले कुदरती मशाल।। अजब रोशनी देखी कोना न्यू ए बिता दिए साल। कव्वा काग गिद्ध के जंग में न्यू ए उम्र दई गाल।। भवसागर तै तरना चाहबे, सदगुरु वचन संभाल। आज्ञाराम ये काट चौरासी, मार शब्द की भाल।।

*672 चुग हंसा मोती मानसरोवर ताल।।672।।

                                672 चुग हंसा मोती मानसरोवर ताल।। सात समुंदर पुर रहे रे, उठे कुदरती झाल। इनको समझ के तू नहा ले बिल्कुल मत करें टाल।। आगे पर्वत गुफा सुंदरी देखत भए निहाल। वहां मोती सदा निपजते, कभी ना पड़ता काल।। सूरत पलट के देख प्यारे खिला अमोलक लाल। चांद सूरज वहां दोनों ना ही जले कुदरती मशाल।। अजब रोशनी देखी कोन्या,न्यू ए बिता दिए साल। कौवा काग गिद्ध के जंग में न्यू ए उम्र दई गाल।।

*672। तज दे हमसा भूल भरम को कर अपनी पहचान। तू है संतों की संतान।।672

                                 672 तज दे हंसा भूल भरम को, कर अपनी पहचान।                                    तूं है संतों की संतान।। अनमोले अवसर को, मत खोवे नादान।।                                   तूं है संतों की संतान।। सतगुरु से तु घात करे ना।, बद कर्मों में नीत धरे ना। नाम का हीरा कदे जरे ना, सदगुरु के बिन तनै सरे ना जगत कूप तज के तिर ले, तूं सत सागर दरम्यान।।  संत दयालु तुम्हें जगावें, भूली वस्तु फिर जनावें। कर विश्वास शरण में आवे, निज घर में तुझे पहुंचावें। सत्संग दर्पण देख बावले हो जा आतम ज्ञान।। तेरा मानसरोवर में है वासा, फिर क्यों करता जग की आशा। तुम तो था सतगुरु का खासा, फिर क्यों बोले मीठा भाषा। छोड़ उसे जो बीत गया रे कर आगे का ध्यान।। नीचे ही क्यों भरो उडारी उठकर पहुंचे अटल अटारी। सतगुरु खोलें महल तिवारी, कोटिक भानु है उजियारी। एक उडारी और भरो तो, मिलता पद निर्वाण।। सतगुरु कमर साहब से जाना, यह है हंसा ये देश विराना। हरिकेश हो नाम दीवाना, पा जाएगा देश दीवाना। राधा स्वामी देश है तेरा, मत भटको अंजान।।

*671 निर्गुण अजर अमर रे हंसा।।671।।

                               671 सरगुन मरण जीवन वाली शंसा, निर्गुण की गम करले हंसा।                    निर्गुण अजर अमर रे हंसा,  जन्म मरण से न्यारे हंसा ना इन पे काल चक्र रे। मरण जीवन में दुनिया सारी, साधु की सूरत शिखर रे।।    धरती आकाश से साधु ऊंचे, इनकी तेज मंजिल रे हंसा। पवन से आगे संत चलत हैं,इनका तेज सफर रे।। बरहमा विष्णु शिवजी तीनों, इनको भी खबर नहीं रे हंसा।। कोय कोय साधु लखे है वाणी, वाणी बहुत जबर रे।। हद बेहद से परे बसत हैं, पर वाणी से पर रे। कह रविदास वे संत ना मरते, रहते अमरापुर रे।।

*671 बाकी हंसा गहो शब्द टकसार।।671।।

*671 काया नगरी में हंसा बोलता।।671।।

                                                                   671 काया नगरी में हंसा बोलता रे।। आप ही बाग और आप हैं माली।                         आप ही फूल तोड़ता।। आप डांडी आप पलड़ा,                         आप ही माल तोलता।। आप गरजे आप ही बरसे,                         आप ही हवा में डोलता।। कह रविदास सुनो भई साधो,                           पूरे को क्या तोलता।। 

*670 कर मेरे हंसा चेत, सतगुरु हेला दे रहे।। राधा स्वामी।।670।।

                               670 कर मेरे हनसा चेत सतगुरु हिला दे रहे।। संत रूप में सतगुरु आए दिया अगम का भेद। सो गए हनसा नींद भरम की एक ना लागी टेक।। जी हां रात का ड्यूटी खजाना पहचाने कंकर रेत। बिना संभालने उजड़ गया रे भोंदू सुंदर काया खेत।। घर का देव मनाया को ना पूजा भूत प्रेत। सत को छोड़ असत्य को पकड़े, डूबेगा कुटुंब समेत।। सुरती शब्द का योग साध, सुन संतों का संकेत। सतगुरु ताराचंद में भेद बताया अब क्यों करें सै पछेत।।

*670 चल हंसा उस देश जहां कभी मौत नहीं।।670।।

                            670 चल हंसा उस देश जहां कभी मौत नहीं।। हर पल भय यहां मौत का रहता,            अरे कोई मौत का दर्द है सहता।                   रंक हो चाहे नरेश अमर कोई जोत नहीं।। सच और झूठ की रहे लड़ाई, देख के हंसता काल कसाई।              ठीक वक्त पर केस दया दिल होत नहीं।। मां भी रोए बेटी भी रोए, पूत अनेकों हमने खोए।            करें श्मशान में पेश, पूछते गोत नहीं।। दास बिजेंदर कभी ना भूलना अमरपुर से अब है मिलना।          लगे  काल की ठेस भजन कर सोच नहीं।।

*670 चल हंसा वही देश जहां तेरे पीव़ बसे हैं।।670।।

                                 670        चलो हंसा वही देश जहां तेरे पिव बसे हैं।। नो दस मूल दसों दिशी खोले, सुरती गगन चढ़ा के। चढ़े अटारी सूरत संभारी फिरना भव जल आवे।।         जगमग जोत गगन में जल के बिरहा राग सुनावे।         मधुर मधुर अनहद बाजे प्रेम अमृत झड़ लावे।। ठाडी मुक्ति भरे जहां पानी लक्ष्मी झाड़ू लावे। अष्ट सिद्धि ठाडी कर जोड़े ब्रह्मा वेद सुनावे।।         जग में गुरु बहुत कनफूका पासी लाए बुझा वे।         कहे कबीर सोई गुरु पूरा, कन्त ही आन मिलावे।

*669 क्यों पीवे तूं पानी हंसनी ।।669।।

                                669 क्यों पीवे तू पानी हंसिनी तो पी ले।। सागर खीर भरा घट भीतर पियो सुरती तानी। जग को जार धंसो नभ अंदर, मंदिर परख निशानी।। गुरु मूर्ति तू धार है मन के संग क्यों फिरत निमांनी।। तेरे काज करें गुरु पूरे सुन ले अनहद वाणी।। कर्म भरम वश सब जग बोरा तू क्यों होती दीवानी। सूरत संभाल करो सतसंगत क्यों विश अमृत सानी।। तेरा धाम अधर में प्यारी क्यों थारे संग बंधानी। जल्दी करो चलो ऊंचे को राधा स्वामी कहत बखानी।।

*669 है सन्त समागम सार।।669।।

                                                                                                        669 है सन्त समागम सार, हंस कोय आवैगा।          हो भँवसागर से पार, ध्यान जो लावैगा।। लाख वर्ष जो तप भी करले,चार धाम चाहे तीर्थ फिर ले।          तप करले वर्ष हज़ार, भर्म नहीं जावैगा।। बिन सत्संग बहुतेरे भटके, शेख फरीद कुएँ में लटके।          फिर भी न पाया पार, कर्म फल पावैगा।। करते साहब ना देखा देखी, पहर भगवां हुए भेखा भेख़ी।        न्यू ना मिलता करतार, बहुत पछतावैगा।।  

*668 जिंदगी में हजारों का मेला लगा।।668।।

                                668 जिंदगी में हजारों का मेला लगा।                  हंस जब भी गया तो अकेला गया।। ना वह राजा रहे ना वह रानी रही,           सिर्फ कहने को उनकी कहानी रही।                        साथ मरघट से आगे कोई ना गया।। कोठी बंगले बने के बने रह गए, रिश्ते नाते लगे के लगे रहे।           प्राण राम जब निकलन लागे,                           उलट गई दोनों नैन पुतरिया।। अंदर से जब बाहर लाए,            छूट गई सब महल अटरिया।                           साथ रुपइया देना गया।।

*668 . हँसों का एक देश है।।668।।

                                                             668 हँसों का एक देश है रे, वहाँ जात न कोई। काग कर्म ना छोड़ सकै रे, कैसे हंसा होई।।             हंसा नाम धराय के रे, मन बगुला फूला।             बोलचाल में ठंड सै रे, काया भूला।। मानसरोवर का रूप रे, बगुला नहीं जानै। जिनका मन मुलताई में रे, वो कैसे मानै।             हंस बसै सुखसागरा रे, बगुला नहीं आवै।             मोती ताल को छोड़ के रे, नहीं चोंच चलावै।। हंस उड़ै हंसा मिले रे, बगुला भया न्यारा। कह कबीर उड़ ना सकै रे, बगुला दीन बिचारा।। 

*667 बाकी सुख सागर में आए के।।667।।

*667 बाकी डाटयां ना डटेगा रे।।667।।

*667 देश वीराना रे हंसा देश वीराना।।667।।

                                667 देश विराना रे हंसा देश विराना।         नहीं है ठिकाना अपना देश बेगाना।। जितने दिन का है दाना पानी उतने दिन अरे राजा रानी।      आखिर को ना कुछ आनी जानी, वापस जाना रे हनसा।। सोच समझ के तू काट बावले, मन की झाल ले डांट बावले।             दुनियादारी है हॉट बावले मोल चुकाना रे हंसा।। मत ना राख तुम रूख नाटन में, सुख मिलेगा सुख बाटन में।             लाभ रहेगा रे हंस काटन में, हो जा स्याना रे हंसा।। रीत रीत से ने जीत जगत ने भूलना मत ना रे अपने अगत ने         ओम छोड़ तू लालच लत ने ना रे उलहाना रे हंसा

*667 मेरे हंसा परदेसी जिस दिन तो उड़ जाएगा।।667।।

                                   667 मेरे हंसा परदेसी जिस दिन तो उड़ जाएगा।         तेरा प्यारा यह पिंजरा यहां जलाया जाएगा।। पिंजरे को तो सदा सभी ने पाला पोसा प्यार से। खूब खिलाया और खूब पिलाया रखा इसे संभाल के।         हो तेरे होते इसको नीचे सुलाया जाएगा।। तेरे बिना तरसती आंखें रहना चाहती साथ में। तेरे बिना ना खाती खाना तू ही था हर बात में।        तेरे पूछे बिना ही सारा काम चलाया जाएगा।। रोए थे तो पर थोड़े दिन तक, भूल गए फिर बात को। भाई हद से ज्यादा इतना ही कहना करवा देंगे वह याद को।           हलवा पूरी खा कर तेरा दिवस मनाया जाएगा।। तुझे पता है अरे जो कुछ होना फिर भी क्यों ना सोचता। मूर्ख वह दिन भी आएगा पड़ा रहेगा नोचता।           जन्म अमोलक खो के प्राणी, फिर पछताएगा।।

*665 हंसा ये पिंजरा नहीं तेरा।।665।।

                                                              665 हंसा ये पिंजरा नहीं तेरा।       माटी चुन चुन महल बनाया, लोग कहें घर मेरा।       ना घर तेरा ना घर मेरा, चिड़िया रैन बसेरा।।  बाबा काका भाई भतीजा, कोय न चले सङ्ग तेरा। हाथी घोड़ा माल खजाना, पड़ा रहा धन तेरा।।       मातपिता स्वार्थ के लोभी, कहते मेरा मेरा।       कह कबीर सुनो भई साधो, एक दिन जंगल डेरा।। 

*665 मत लूटे हंस रस्ते में।।665।।

                               665 मत लूटे हंस रस्ते में, उड़े तनै कौन छुड़ावेगा। आदम देही धार के तू, गया ईश्वर ने भूल। ओछे मंदे काम करें तने, खो दिया ब्याज और मूल।                                गुरु बिन न्यूए जावेगा। बाजी खेली पाप की अरे, पोह पे अटकी सार। सत का पासा फेंक बावले, उतरे भव जल पार।                                गुरु बिन धक्के खाएगा।। विषयों में तू लगा रहे और पड़ा रहे बीमार। सिर पे गठरी पाप की रे, डूबेगा मझधार।                                कर्म ने कडे छुपाएगा।। कृष्णा में तू लगा रहे तन नहीं धर्म की जान। मन विश यू में लगा रहे तेरी कुत्ते बरगी बान।                              इस मन ने कब समझाएगा।। झोली से झगड़ा हुआ रे  पच-पच मरा जहान। कह कबीर सुनो भाई साधो, धर के देखो ध्यान।                              भजन बिन खाली जावेगा।।

*665 जाएगा हंस अकेला तू राम नाम रट भाई है।।665।।

                                  665 जायेगा हंस अकेला तुम राम नाम रट भाई रे।        झूठा यह जगत झमेला तू राम नाम रट भाई रे।। सोच समझ इंसान बावले, काला काला करे गुमान बावले।                        यह तन माटी का ढेला।। पल में तेरा घमंड तोड़ दे, माया की बावले मरोड़ छोड़ दे।                          तेरे साथ ना जावे धेला।। राम नाम सुखदाई रे, तेरी क्यों ना समझ में आई रे।                          दो दिन का जग में मेला।। मुक्ति का कोई जतन कर ले, ईश संग तू राम सुमर ले।                          तू बन जा भगत अलबेला।।

*664 कर ले भाई हंसा।।664।।

                               664      कर ले भाई हंसा, सद्गुरुआँ तैं मेल।। बिन सद्गुरु तेरा मिटेनहीं भई, जन्म मरण का खेल। सद्गुरु हैं दातार दयालु, काटैं जम की जेल।।      तूँ न किसी का कोई न तेरा, झूठा जगत का मेल।      एक मिनट में ढह ज्यागा, तेरा बना बनाया खेल।। इब तेरा मौका हरि मिलन का, मतना रह बे चेत। इब के मौका चूक गया तो, पड़ै नर्क की जेल।।     सद्गुरु माइलाल ने जयकरण को, दिया अगम का भेद।     निर्भय होके सत्संग करना, दया कमल में खेल।। 

*664 रे हंसा भाई हो जा न।।664।।

                                                              664 रे हंसा भाई हो जा न नाम दीवाना।।    हर पल सुमरन करो नाम का, गुरु चरणों चित्त लाना।    एक आश विश्वास गुरु का, हरदम धर ले ध्याना। ध्यान धरो अधर आंगन में, जगत बहुत बिसराना। मनसा वाचा कर्म साथ ले, पावै पड़ निर्वाणा।   नाम नैया चढ़ के उतरै, हरदम रहे मस्ताना।   पाँच तत्व का छोड़ साथ दे, छोड़ भरम भरमाना। शील सत्य क्षमा ढाल हाथ ले, जीतो जंग मैदाना। आपै अंतर आप बैठ के, निशदिन रहो हरषाना।।   सद्गुरु ताराचंद समझावै कंवर ने, कर किया बौराना।   नाम अमरफल कल्पतरु है, सहज ही नाम कमाना।।    

*664 हनसा कौन लोक के वासी।।664।।

हंसा कौन लोग के वासी।। कौन लोक से आया अंसा कौन लोग को जासी। क्या-क्या कॉपी उस लोग की हमको कहो जरा सी।। अमर लोक से हम आए हैं जहां पुरुष अविनाशी। दुख सुख चिंता नहीं वहां पर ना कोई शौक उदासी।। दीया बाती चांद सूरज सदा वहां उजियासी। बीन बांसुरी मिरदंग बाजे, छः ऋतु बारह मासी।। हीरे पन्ने लाल वहां पर अर्पण सूर्य प्रकाशी। अगम अपार हवा वहां की करें आराम काया  सी।। सतगुरु ताराचंद समझा में कुंवर ने अंदर की करो तलाशी लोक हमारा।।।।

*663 रे हंसा भाई देश पुरबले जाना।।663।।

                               663 रे हंसाभाई देश पूरबले जाना।। विकट नाट रपटीली कैसे करूं पयाना। बिन भेदी भटक के मरीयो, खोजी खोजी सयाना।। वहां की बातें अजब निराली अटल अविचल अस्थाना। निराकार निर्लम्ब विराजे रूप रंग की खाना।। चंद्र चांदनी चौक सजा है फूल खिले बहू नाना। रिमझिम रिमझिम मेघा बरसे, मौसम अजब सुहाना।। मानिक मोती लाल घनेरे हीरो की वहां खाना। तोल मोल कोई गिनती नहीं अपरंपार खजाना।। नूर नगरिया कोश अठारह, ता का बांध निशाना। अखंड आवाजां मोहन बाजे, वहां का पुरुष दीवाना।।

*662 हंसा चाल बसों उस देश।।662।।

                                 662 हनसा चाल बसों उस देश, जहां के वासी फेर ना मरे।। अगम निगम दो धाम, वास तेरा परै से परे। वहां वेदा की भी गम ना, ज्ञान और ध्यान भी उड़े।। जहां बिन धारणी की बाट, पैरा के बिना गमन करें।  उड़े बिन कानां सुन लेय, नैना के बिना दर्श करें।  बिन देहि का एक देव,  प्राणों के बिना सांस भरे।  जहां जगमग जगमग होए, उजाल दिन रात रहे।। त्रिवेणी के घाट एक, दरियाव बहे। जहां संत करें स्नान, दूजा तो कोई नहाए ना सके।।  जहां नहाए तैं निर्मल हो, तपन तेरे तन कि बुझे।  तेरा आवागमन मिट जाए, चौरासी के फंद कटे।। कहते नाथ गुलाब, जाए अमरापुर वास करें।  गुण गा गए भानी नाथ, लगन सबकी लागी ए रहे।।

*662 हम हंसा उस ताल के।।662।।

                                         662      हम हंसा उस ताल के जी, जहां मानक लहरी।।     हंसा तो मोती चुगें, बुगला मछली का वैरी।। है कोय देशी म्हारे देश का, परखनिया जोहरी। त्रिवेणी की धार में, सुरतां न्हा रही मोरी।।     पाँच तत्व की हेली बनी रे, बिच रख दई मोरी।     सुन्न शिखर में भया चांदना,लगी सोहंग डोरी।। चार चकुटे बाग में जी, बीच रख दई मोरी। बेल अंगुरां लाग रही, खिली केशर क्यारी।।     बारामासी फल लगें, मीठा स्वाद चकफेरी।     ज्ञान शब्द की झाल रे, म्हारी नागिन जहरी।। 

*662 भज हंसा सत्तनाम।।662।।

                            662 भज हंसा हरि नाम, जगत में जीवन थोड़ा रे।।     काया आई पावनी रे, हंस आए महमान।     पानी केरा बुलबुला, तेरा थोड़ा सा उनमान।                               बना कागज का घोड़ा रे।।     मातपिता भाई सुत बन्धु, और तेरी दुल्हन नार।    मिले यहीँ बिछड़े सभी रे, ये शोभा दिन चार।                              बना दो दिन का दौड़ा रे।। सोऊं सोऊं क्या करे रे, सोवत आवै नींद। यम सिरहाने यूँ खड़ा रे, ज्यूँ तोरण पे बीन।                             खिंचा जैसे ताजी घोड़ा रे।। राम भजन की हंसी करते, मन में राखे पाप। पेट पलनियाँ वे चलें रे, ज्यूँ वन जंगल का सांप।                             नेह जिन हरि से तोड़ा रे।। 

*659 हंसा हंस मिले सुख होइ।।659।।

                                                                     659 हंसा हंस मिले सुख होइ। रे हंसा। ये तो पाती है रे बगुलन की, सार न जाने कोई।।   जो तूँ हंसा प्यासा क्षीर का, कूप क्षीर ना होइ।   यहां तो नीर सकल ममता का, हंस तजा जस खोई।। छः दर्शन पाखण्ड छियानवे, भेष धरै सब कोई। चार वर्ण औऱ वेद कुराना, हंस निराला होइ।।     ये यम तीन लोक का राजा, शस्त्र बांधे सँजोई।     शब्द जीत चलो हंसा प्यारे, रह जा काल वो रोइ।। कह कबीर प्रतीत मान ले, जीव ना जाए बिगोई। अमरलोक में जा बैठा हूँ, आवागमन ना होइ।। 

*661 जगमग जगमग होइ हंसा रे।।661।।

                                                               661 जगमग जगमग होइ, हंसा रे जगमग जगमग होइ।।   बिन बादल जहां बिजली रे चमके, अमृत वर्षा होइ।   ऋषि मुनिदेव करें रखवाली, पी ना पावै कोई।। निशिवासर जहां अनहद बाजै, धुन सुन आनन्द होइ। जोत जगे साहिब के निशदिन, सहज में सहज समोई।।   सार शब्द की धुन उठत है, बुझे विरला कोई।   झरना झरै नहर के नाके, पीते ही अमर हो जाई।। साहिब कबीर भये वैदेही, चरणों में भक्ति समोई। चेतन आला चेत प्यारे, ना तै जागा बिगोई।। 

*660। एक दिन उड़े ताल के हंस।।660।।

                               660 एक दिन उड़े ताल के हंस, फिर नहीं आएंगे।। लिपें सवा हाथ में धरती, कांटे बांस बनावे अर्थी। संग चले ना तेरे धरती, वे चार उठावेंगे।। या काया तेरी खाक में मिलेगी, जब ना तेरी पेश चलेगी। जिसमें हरी हरी घास उठेगी, धोर चर जावेंगें।। बिस्तर बांध कमर हो तगड़ा, सीधा पड़ा मुक्त का दगड़ा।  इसमें नहीं है कोई झगड़ा, न्यू मुक्ति पाएंगे।। जो कुछ करी आपने करनी, वह तो अवश्य होगी भरनी। ऐसी वेद व्यास ने वरनि,कवि कथ गावेंगे।।

*660 हंसा परम् गुरु जी के।।660।।

                               660 हंसा परम् गुरू जी के देश चलो, जहां अमर उजाला रे।। धरती नहीं आकाश नहीं, ना वहाँ पवन पसारा रे। बिन सूरज बिन चन्दा जहां, चमक अपारा रे।। बिन बादल बरसात बरसती, अमृत धारा रे। पीवै सन्त सुजान सुरमा, ही मतवाला रे।। ब्रह्मा वेद पुराण कली में, कहते हारा रे। जाना नहीं निज रूप भर्म में, डूब गया सारा रे।। गम बेगम के पार परमपद, ज्ञान करारा रे। शिवकरण स्वरूप समझ, तेरा दीदारा रे।।

*659 सुन हंसा भाई, हंस गति में होना जी।। 659।।

                               659 सुन हंसा भाई हंस गति में होना जी। जागै इतनै ज्ञान विचारै, ध्यान लगा के सोना।। मनुष्य जन्म का चोला पा के बीज भजन का बोना। बिना भजन कीमत ना इसकी, बेगी यो मत खोना।। राम नाम का निर्मल जल है, भीतर मलमल धोना। जन्म जन्म के पाप कटैं तेरे, मिटेचौरासी का रोना।। दिल है ये एक जल का सागर, उलटी झाल समोना। बिना विचार बड़बड़ बोलै, हुए कुरड़ी का ढोना।। तेरी काया पे माल चौगुना, चौकस हो के रहना। आज्ञाराम कर चले फैंसला, दूजा नहीं बिगोना।। 

*653 पायो निज नाम हेली।।653।।

                              653 पाया निज नाम हे ली पाया नीज नाम।। अगम धुन लागी हे पायो निज नाम।। मने सतगुरु नाम सुनायो, म्हारी नाभि कमल ठहरायो।              सखी गगन मंडल गर्नायो हे।। म्हारे सतगुरु राह बताया, मने ज्ञान यथार्थ पाया।             झट आनंद सुख पाया हे । म्हारी सूरत सुहागन शयानी, मन सूरत गगन में तानी।          वहां बैठे मौजा मारो हे। म्हारी सूरत सुहागन प्यारी, तुम करो शब्द से यारी।          कबीर मुक्त भंडारी हे।।

*661 गुरू मेहर करे जब।।661।।

                                                              661 गुरू मेहर करें जब, कागा से हंस बनादें।। जबगुरुआं कि फिरजा माया।पल में काज पलट दें काया।       जब गुरू सिर पे कर दें छाया।                    पल में वे शिखर पहुँचा दें।। कव्वे से कुरड़ी छुटवा कर, मान सरोवर पे ले जाकर।      तुरत काग से हंस बनाकर।                    मोती अनमोल चुगा दें।। पुत्र प्यारा बहुत माँ का, उनसे बढ़कर शिष्य गुरुआं का।      फेर न बेरा पाटै रजा का, कुछ तैं वे कुछ बना दें।। कोड़ी से गुरू हीरा बनादें, कंकर से कर लाल दिखादें।         कांसी राम चरण सिर ना दें,                        हुक्म करें पद गा दें।।            

*661 पूर्णगढ़ चल भाई।।661।।

                                                                  661 पूर्णगढ़ चल भाई, हंसा रे पूर्णगढ़।। कच्चा कोट पक्का दरवाजा, गहरी जंजीर लगाई। मस्ता हाथी आए झुकावै, दुर्मत लेत लड़ाई।। ज्ञान ध्यान दो अनी रे बराबर, ये दो अदल सिपाही। हृदय ढाल राख कर सिमरन, यम की चोट बचाई।। कह कबीर जो अजपा जपै, तिन को कॉल न खाई।। 

*660 कहो पुरातम बात।।660।।

                                                            660 कहो पुरातम बात, हंसा कहो पुरातम बात।।     कहां से हंसा आइया रे, उतरा कौन से घाट।     कहां हंसा विश्राम किया तनै, कहाँ लगाई आश।। बंकनाल तैं हंसा आया, उतरा भँव जल घाट। भूल पड़ी माया के वश में, भूल गया वो बात।।     अब तूँ हंसा चेत सवेरा, चलो हमारी साथ।    शंसय शोक वहां नहीं व्यापै, नहीं काल की त्रास।। सदा बसन्त फूल जहां फूलें, आवै सुहंगम बॉस। मन मोरे क्यूँ उलझ रहे हो, सुख की नहीं अभिलाष।।     मकर तार से हम चढ़ आए, बंकनाल प्रवेश।     सोई डोर अब चढ़ चलो रे, सद्गुरु के उपदेश।। जहां सन्तों की सेज बिछी है, ढुरें सुहंगम चौर। कह कबीर सुनो भई साधो, सद्गुरु के सिर मोर।। 

*659 बाकी चल हंसा उस देश संबंध विच मोती है।।659।।

*658 हंसा निकल गया पिंजरे से।।658।।

                                 658 हंसा निकल गया पिंजरे से, खाली पड़ी रही तस्वीर।। यम के दूध लेने को आवे तनक धरे ना धीर। मार के सौटा प्राण काढ ले,बहे नैन से नीर।। बहुत मनाए दही देवता बहुत मनाए पीर। अंत समय कोई काम ना आवे, जाना पड़े अखिर।। कोई रोग है कोई तने महल आवे कोई उड़ावे चीज खीर। चार जने रल मां का उपाय ले गए मरघट तीर।। भाग्य कर्म की कोई ना जाने संग ना चले शरीर। जा जंगल में डेरा ला दिया, कह गए दास कबीर।।

*658 सुन हंसा भाई हंस रूप था जब तू आया।। 658।।

                               658 सुन हंसा भाई हंस रूप था जब तू आया। अपना रूप भरम में बोला जब तू जीव कहाया।। कर्मों के चक्कर में फंस के, असली तत्व भुलाया। पांच तत्वों में आन मिला तने मिली माटी की काया।। जो मिला दो गर्जी मिला, माया जाल फैलाया। अपना स्वार्थ सिद्ध करने को झूठा लालच लाया।। अष्टांग योग की करी तपस्या, वृथा देह सुखाया। जब तक सतगुरु मिले ने पारखी, जन्म जन्म दुख पाया।। साहिब कबीर मिले बंदी छोड़, जीने निजी स्वरूप दिखाया। धर्मी दास जब आपा चिन्हा, छोड़ दिया जग दाया।।

*657 मेरे हंसा भाई, सब जग।।657।।

                              657 मेरे हंसा भाई, सब जग भुला पाया।।       इसी भूल में ब्रह्मा भुला, वेद पुराण रचाया।       वेद पढ़े तो पंडित भूले, सार शब्द नहीं पाया।। इसी भूल में विष्णु भुले, वैष्णव पंथ चलाया। कर्म कांड में बांध जीव को, चौरासी भरमाया।।      इसी भूल में शंकर भुला, भिक्षुक पंथ चलाया।      सिरपर जटा हाथ मे खप्पर, घर घर अलख जगाया।। इसी भूल में मोहम्मद भुला, न्यारा पंथ चलाया। पर स्त्री सँग फिरा भर्मता, लिंग और मूँछ कटाया।।     इसी भूल में भुला, मछँदर, सिंगल द्वीप बसाया।     विषय वासना के वश होकर, अपना योज नसाया।। कह कबीर सुनो भई साधो, हम युग युग जीव चिताया। जिसने जान्या भर्म भूल का, फेर गर्भ ना आया।। 

*657 जहां हंस अमर हो जाए।।657।।

                                   657 जहां हंस अमर हो जाई, देश मारा बांका है रे भाई।। देश हमारे की अद्भुत लीला, कहूं तो कहीं ना जाई। शेष महेश गणेश थके हैं, ताकि मति बोराई।। चांद सूरज अग्नि तारों की, ज्योति जहां मुरझाई। अरब खरब जहां बिजली रे चमके, तिन की छवि शर्माई।। म्हारे देश का पंथ कठिन है, तुम से चला ना जाआई। संत रूप धर के जाना हो, ना काल ले खाई।। परधन मिट्टी के सम जानो, माता नार पराई। राग द्वेष की होली फूको, तज दे मान बड़ाई।। सतगुरु कि तुम शरण गहों रे, चरणों में चित लाई। नामरूप मिथ्या जग जानो, तब वहां पहुंचो जाई घाटी विकट निकट दरवाजा, सतगुरु राह बताई। बिन सदगुरु वा को राह न पावे, लाख करो चतुराई।। गुरु अपने को शीश नवाऊं, आतम रूप लखाई। निर्भयानंद है गुरु अपने, शंसय दिया मिटाई।।

*657 जहाँ हंस अमर हो जाए।।657।।

                              657 जहाँ हंस अमर हो जाई, देश म्हारा बांका है रे भाई। देश म्हारे की अद्भुत लीला, कहूँ तो कही न जाई।           शेष महेश गणेश थके हैं,                              नारद मति बौराई।। चाँद सूरज अग्नि तारों की, ज्योति जहां मुरझाई।            अरब खरब जहां बिजली रे चमके,                            तिन की छवि शरमाई।। देश म्हारे का पंथ कठिन है, तुम से चला न जाई।             सन्त रूप धर के जाना हो,                             ना तै काल ले खाई।। पर धन मिट्टी के सम जानो, माता नार पराई।             राग द्वेष की होली फूंको,                                 तजदे मां बड़ाई।। सद्गुरु की तुम शरण गहो रे, चरणों में चित्त लाई।               नाम रूप मिथ्या जग जानो,                                  तब वहां पहुँचो जाइ।। घाटी विकट निकट दरवाजा, सद्गुरु राह बताई।               बिन सद्गुरु वाको राह न पावै,                      लाख करो चतराई।। गुरू अपने को शीश नवाऊँ, आत्म रूप लखाई।                 निर्भयानन्द हैं गुरु अपने,                          शंसय दिया मिटाई।                        

*654 बाकी सद्गुरु ने बो दिया हेला रे।।654।।

*652 हे तने मानसरोवर जाना है।।652।।

                               652 हे तने मानसरोवर न्हाना है तू चल जा  सत्य की हेली।। तने अमरापुर में जाना है तू चल जा सत की हेली।। तेरे रस्ते में चोर घनेरे चारों तरफ लगा लिए डेरे।        महाबली यह दुश्मन तेरे ले मार ज्ञान की गोली।। झूठ कपट मैं त्याग बावली सतगुरु जी की बैक नाव री।       नहाना चाहवे घनी तावली, तो कर संतो से मेली।। मोह ममता ने परे हटा के, चरना गांठ जुगत की ला के।        मानसरोवर तट पर जाके, कर संग की सखी सहेली।। अपने आपे का भाव मिटा के, सखियां संग त्रिवेणी जाके।             मोती चुग सतलोक में जाकर तू बन जा नार नवेली।। चेतन ध्यान अलख संग लाके, सुख आनंद में सोवे जाके।                गरीब दास के दर्शन पाके मिल सच्चिदानंद गैली।।

*652 बाकी कौन मिलावै मोहे।।652।।

*651 हरदम पृभी न्हा।।651।।

                                                                651 हर दम पृभी न्हा म्हारी हेली, तीर्थ जाए बलाय।     सांस सांस में हरि बसै री हेली, दुर्मत दूर बहाय।     सुरत सिंध पे घर करो री हेली, बैठी निर्गुण गाय।। सत्त शब्द का राह है री हेली, शील सन्तोष श्रृंगार। काम क्रोध को मार के री हेली, देखे अजब बहार।।     क्षमा नीर आंगन भरा री हेली, बहे गंग निज धार।     जो न्हाय सो निर्मल री हेली, ऐसा है निज धाम।। घीसा सन्त वहां न्हा रहे री हेली, धोया मान गुमान। लख चौरासी से ऊबरै री हेली, आवागमन मिटाय।। 

*650 चलो उस देश में हे हेली।।650।।

                                                                 650 चलो उस देश में हे हेली, हुए काल की टाल।।       निर्गुण तेरी सांकडी हे हेली, चढो न उतरो जाए।       चढूं तो मेवा चाखलूँ हे, मेरो जन्म सफल हो जाए।। अनहद के बाज़ार में हे हेली, हीरों का व्यापार। सुगरा सौदा कर चले हे, नुगरा फिर फिर जाए।।        गेहूँ वर्णो सांवरो हे हेली, रूपा वर्णो रूप।        पिया मिले मोहे आदरो हे, पिया मिलन की आश।। एक भान की क्या कहूँ हे, कोटि भान प्रकाश। कह कबीरा धर्मिदास ने, मैं सदा पीव के साथ।। 

*648 हेली हमने नींद ना आवे।।648।।

                                  648 हेली हमने नींद ना आवे सो गए हैं नगरिया सारी।। चेतन चिराग प्यारी, चांदना हवेली में।  बगड़ में अंधेरी छाई, डरूं थी घनेली में।। नोऊ खिड़की बंद करके, सोचती अकेली मैं पिया पिया टेरन लागी, नार थी नवेली में।। इतने मैं एक शब्द हुआ था, ओहम सोहम प्यारी का। श्याम सुंदर मंदिर अंदर, खड़ी पुकारू हेली में।। सुन्न शिखर में सेज पिया की, बाह पकड़ के लेली मैं। टीकम दास बहुत सुख पाई, पिया संग चौसर खेली मैं।।

*648 बिन सद्गुरु पावै नहीं।।648।।

                                                              648 बिन सद्गुरु पावै नहीं, जन्म धराओ सो सो बार।।    चाहे तो लौटो धरण में हेली री, सुन्न में बंगला छाय।     लटा बढाओ चाहें शीश पे, नाद बजाओ दो चार।। कड़वी बेल की कचरी हे हेली, कड़वा ए फल होय। जींद भई जब जानिये, बेल बिछोवा होय।।    जिन्द भई तो क्या भई हे हेली, चहुँ दिशा फूटी बात।    बचना बीज बाकी रहा हे, फिर जामन की आश।। वो लागी घणी बेलड़ी री हेली, जल बुझ हो गया नाश।  आवागमन जब से मिटा हेली री कह गया धर्मिदास।।

*646 बाकी शब्द झड़ लाग्या हे हेली।।646।।

*644 कैसे मिलूं मैं गुरु संग जाए।।644।।

                               644 कैसे मिलूं मैं पिया संग जाये मिलना तो कठिन है जी।। औघट घाट बाट रपटीली, पांव नहीं ठहराए। झीना रस्ता मुश्किल चढ़ना, मुझसे चढ़ा ना जाए।। लोक लाज कुल की मर्यादा मुझसे तज़ी ना जाए। घर में पिया परदेश बराबर देखे बिन रहा नहीं जाए।। आशा तृष्णा त्याग बावली, गगन मंडल चढ जाए। गम से दूर अगम से आगे सूरत झकोले खाए।। रामानंद गुरु पूरे मिल गए, मार्ग दिया बताएं। कहे कबीर सुनो भाई साधो, पूठा तो धर दिया पांय।।

*644 पिया मिलन का योग से हमने कौन मिलावे।।644।।घीसा।।

                                644 पिया मिलन का योग से हमने कौन मिलावे।। मंदिर जाऊं रोज में री करूं पिया की खोज में। दिन कट जा मेरा मोज में री मने रेन सतावे।। दो घड़ी में सूती रे आंखें खुले जब रोती रे। कुंज गली में टोहती रे पिया हाथ नहीं आवे।। देख पिया ना हंसा सरे ना जानू कित जाए फंसा रे। ज्ञान का दीपक ना चसा री रो रो उदम मचावे।। गगन मंडल बंगाला पड़ा री गुरु ले ताला खड़ा री। देख अचंभा हो रहा जी सुन सुन अचरज आवे।। हद बेहद दोनों खड़ी री उनके वश की मैं ना रही री। घीसा संत ने साध दई री, जीता दास गुण गावे।।

*654 म्हारै सद्गुरु दे रहे हेला रे, सत्तनाम ।।654।।

                                                                    654 म्हारै सद्गुरु दे रहे हेला रे,                  सत्तनाम सुमर मन मेला रे।।      कोढ़ी कोड़ी माया जोड़ी, जोड़ भरा एक थैला रे।      खाली आया खाली जागा, सङ्ग चले न एक धेला रे।। मातपिता तेरा कुटुंब कबीला, ये दो दिन का मेला रे। यहीँ मिला ओ यहीँ बिछुड़ जा, जागा हंस अकेला रे।।      एक डाल दो पँछी बैठे, कोन गुरु कौन चेला रे।    चेला तो चंचल है भाई, गुरु निरंतर खेला रे।। इस पद का तुम भेद सुनो, कौन गुरु कौन चेला रे। रामानन्द का कह कबीरा, शब्द गुरु चित्त चेला रे।।

*653 पाया निज नाम हेली।। कबीर।।653।।

                               653 पाया निज नाम हेली पाया निज नाम हे।। शब्द धुन लागी पाया निज नाम।। मने सतगुरु नाम सु आयो मारी नाभि कमल ठहरायो।                  सखी गगन मंडल गरनायो हे।। मारा सतगुरु राह बतायो मने ज्ञान यथार्थ पायो।                 झट आनंद सुख पायो हे।। मारी सूरत सुहागिन शानी, मने सूरत गगन में तानी।                 वहां बैठे मौजा मारो हे।। मारी सूरत सुहागन प्यारी तुम करो शब्द से यारी।               कबीर मुक्ति भंडारी हे।।

*652 हेली छोड़ दे विराना देश।। 652।।

                                652 हेली छोड़ दे वीराना देश चलो सतगुरु जी की शरण रे।। राम कृष्ण अवतार देवनार यह  करें सुमर्णा रे। शिव ब्रह्मा अधिक शीश धरे सतगुरु जी के चरणों रे।। निर्मल भक्ति सतगुरु जी की घट भीतर धरना रे। मलिन किसी के आवे मन में दूर भगाना रे।। मन ममता और मोह त्याग भाव भक्ति का भरना रे। गुरु भक्ति वैराग्य बिना चोरासी में फिरना रे।। गुरु पद पारख सार समझ के अनुभव करना रे। शिव करण पारक कर अपनी फिर नहीं डरना रे।।

*651 कर सद्गुरु से प्रीत हेली।।651।।

                                    651 कर सद्गुरु से प्रीत हेली, दे चरण कंवल में चित्त है।। छिन छिन प्रेम बढ़ा हे हेली, उन सा ना कोय मीत हे।। कुल कुटुम्ब जग मर्यादा, इनसे तेरा होए अकाजा।                    वक्त करै है बड़ा तकाजा,                                      जन्म रहा तेरा बीत हे।। धन संपत्ति मान बड़ाई, ये तो सभी यहां रहाई।             इन संग कैसी कोली पटाई,                               ये बालू कैसी भीत है। सद्गुरु खोज तुझे भेद बतावै, परमार्थ की राह चलावै।              कर्म भर्म तेरे सब मिट जावै,                              सत्संग में दे चित्त हे।। सुनना ध्यान से तुम उपदेशा, होके चरण शरण लौ लेशा              तेरे कटजा सभी कलेशा,                             तनै पड़े भजन की रीत है।। सन्त ताराचंद ओतार धार आया,             राधा स्वामी का रुक्का लाया।                        कंवर तुझे भी मौका पाया,                                  तूँ भँव जूए सर जीत हे।। 

*651 अगम गवन कैसे करूं।।651।।

                                651   अगम गवन कैसे करूं हेली, बिन पायन का पंथ है री हेली। पांच तत्व गुण तीन सै री हेली, पूर्ण ब्रह्म एकांत। बाट घाट सूझे नही री हेली, निपट विकट वह पंथ। रजनी माया मोह की री हेली, ता में मद महमंत।। उलझी जन्म अनेक की री हेली, देह मध्य विश्रंत। लागी विषय विकार से री हेली, कुछ नही भाव भगवंत।। मार्ग नदियां बहे री हेली, लख चौरासी धार। कर्म भंवर का में फिरे री हेली,  कहां उतरे वो पार।। साध संगर हेरा करो री हेली, गुरु के शब्द विचार। प्रेम उमंग के रंग में री हेली, उतरत लगे न वार।। पारधिया का भेष है री हेली, बारह मास बसंत। परम योग आनंद में री हेली, स्वामी गुमानी संत।। चलो सखी इस देश को री, जहां बसे गुरुदेव। नित्यानंद आनंद में री हेली, परसो अलख अभेव।।

*649 कर जिन्दड़ी कुर्बान।। 649।।

                                                               649 कर जिन्दड़ी कुर्बान, साथिन म्हारी हे। तेरो आयो हज़ारी हंसा पावना म्हारी हेली हे।। तत्व से तुर्या तुरत मिलावना, म्हारी हेली हे।             हो ज्ञान घोड़े असवार साथन म्हारी।। गगन मण्डल में बाजा बाजिया, म्हारी हेली हे।          बिन पायल बिन रमझोल ।। सुन्न महल में दिवला जोतिया म्हारी हेली हे।           बिन बाती बिन तेल साथन।। सत्तलोक में झूला झुलिया म्हारी हेली हे।           सद्गुरु झुलावन हार साथन।। कह कबीरा धर्मिदास से म्हारी हेली हे।           तुम चलो शब्द की लार साथन।। 

*649 मिल बिछड़न की पीर री हेली।।649।।

                                  649 मिल बिछड़न की पीर री हेली, मिल बिछड़े सोइ लखै। हरि से बिछड़ी आत्मा री हेली, जग में धरयो शरीर।। बौरी हो डोरी लगी री हेली, पिछली बात सम्भाल। हमसे किस विध बिछड़े री हेली, वह हरि दीनदयाल।। अब हम अपने वश नहीं री हेली, फिरैं जगत वन माहीं। साध सन्देशा दे गए री हेली, समझ समझ पछताई।। जा दिन से हरि बिछड़े री हेली, तन मन धरै ना धीर। हमरी गति ऐसी भई री हेली, ज्यूँ मछली बिन नीर।। बिसर गई हम देह को री हेली, लाग्या उनमन ध्यान। तन जग में मन पीव में री हेली, छीन इत छिन उत प्राण।। स्वामी गुमानी एक है री हेली, मन मन्दिर के माय। नित्यानंद की गह लई री हेली, आप निरंजन बांह।। 

*649 चल सद्गुरु के धाम हेली।।649।।

                                                                   649 चल सद्गुरु के धाम हेली, तजदे सारे काम हे। लेकर उनसे नाम करो तुम, भजन सुबह और शाम हे।। नाम बिना कोय गांव न पावै, बिना नामकोय भेद न आवै              नाम बिना कैसे घर जावै,                                       सबसे बड़ा है नाम हे।। नाम बिना कोय खत न आवै,            नाम बिना जग धक्के खावै                        नाम बिना नुगरा कहलावै,                                   भोगै कष्ट तमाम हे।। नाम बिना क्लेश न जावै,           नाम बिना नित काल सतावै।                    चोरासी में रह भरमावै,                                भोगै चारूं खान हे।।  नाम ये खोजो तुम सद्गुरु का,         भेद मिलेगा तुझको धुर का।                  भूल भर्म का तार के बुरका,                             करो सुमरण आठों याम हे।। गुरू ताराचंद हैं सद्गुरु पूरा,          लियो नाम बेवक्त हजूरा।                      कंवर इर्ष्या करके दूरा,                               उनको करो सलाम हे।।

*647 पीव मिलन का मौका भला।।647।।अधूरा।।

                                   647 पीव मिलन का मौका भला म्हारी हेली री,                   करलो न बेगी सिंगार।। लग्न का लहंगा पहर लो म्हारी हेली री,                    नेह का नाड़ा घाल। शील का शालू थारै सिर सजै, अंगिया हे अगम विचार।। पायल तो पहरो पग में प्रेम की, झीनी करो झनकार। करनी का कंगन थारै कर सजै, चेतन चूड़ी डार।। सत्त की तो पहरो सत्त लड़ी, गल बिच हरि का हार। नथनी तो पहरो निज नाम की, विषय तजो हे विकार।। सुन्न शिखर चढ़ देख ले---------- 

*641 तत्व ज्ञान के बारे में।।641।।

                             661 तत्व ज्ञान के बारे में, गुरु गोरख करे बखान।        पाँच तत्व का मनुष्य खिलौना मान।। निराकार परमेश्वर ने ये, रची बैठ के माया सै। प्रथम करी आकाश की रचना, फेर ये पवन बनाया सै।           पवन से अग्नि जाया सै,                       जिस की अलग पहचान।। अग्नि तैं हुई जल की रचना, जल तैं पृथ्वी बाद बनी। पाँच तत्व ये पाँच तत्व सैं, औघड़नाथ तेरे याद बनी।           पाँच तत्व के पाँच भेद सैं,                         करके सुन ले ध्यान।। पाँच तत्व से मिल के नै, काया का निर्माण हुआ। नाभि तैं ऊपर 72हज़ार, नाड़ी का प्रमाण हुआ।          जीव ड्राइवर इस काया का,                        ये पाँच तत्व का ज्ञान।। प्रलय होके सारी सृष्टि, पाँच तत्व में लौलीन हुवै। लोकपरलोक और ब्रह्मलोक में, सबकुछ जीवविहीन हुवै।       कँवलसिंह संसार तत्व,                         तत्व बिना सुनसान।।

*642 तुर्यापद में आसन ला के।।642।।

                              642 तुर्यापद में आसन लाके, गुण गोविंद के गा बन्दे। तन को साफ करें तैं कुछ ना, मन को साफ बना बन्दे।। पाँच तत्व का बना पुतला, ये बुलबुला है जल का। थोड़ी देर का झटका है, नहीं भरोसा है पल का। मेला मेली जग का बेली, किस्सा है सब हलचल का। दो दिन की मेरा मेरी में, दूर जगत का है हल्का।       देख पराई चोपड़ी मत,                     अपना जी ललचा बन्दे।। वहाँ क्या क्या कर आया था, वादे सारे भूल गया। माया रूपी बैठ पिंड पे, सहम नशे में टूल गया। मातपिता सुत दारा देख के, गड़गम होके फूल गया। करा कराया भजन बिन तेरा, सारा काम फिजूल गया।        आंख मींच सब काम करा,                  कुछ न्याय सोचा ना भाव बन्दे।। काम क्रोध मद लोभ मोह, बिल्कुल मन ने मार लिए। दसों इन्द्रिय वश में करके, अपनी अगत सुधार लिए आपा मारे स्वर्ग मिलेगा, पक्का सोच विचार लिए। खैर चाहवै जान की, कर राम नाम तैं प्यार लिए।             देर है अंधेर नहीं वहां,                           होगा सच्चा न्याय बन्दे।। चंद्रभान कह जिंदगी ऐसी, जैसे मिट्टी का मटका। ठेस लागते धरा सी फूटै, एक मिनट का ना अटका। शाम सवेरी राम नाम रट

*646 पिया के फिक्र में भयी मैं दीवानी।।646।।

                                  646 पिया के फिक्र में भई मैं दीवानी, नैन गंवाए रो रोय।। बालापन बच्चों सङ्ग खेली, भरी जवानी गई सोय। के मुख ले के मिलूँ मैं पीव से, रंग रूप दिया खोय।। बालकपन की चमक चुनडिया, दिन-२मैली होय। मेरा मन करै मैं फेर रंगा लूँ, फेर इसा ना होय।। चन्दन चौकी हाथ जल झारी, पिया का न्हाण संजोय। ऊंची अटारी लाल किवाड़ी, पिया जी का पौढ़न होय।। गहरी नदियां नाव पुरानी, तरना किस विध होय। सखी सहेली पार उतर गई, मैं पापन गई सोय।। इसे देश का सखियों बसना छोड़ो, लोग तकें सैं मोय। मीराबाई पार उतर गई, फेर जन्म नहीं होय।।  

*644 कैसे मिलूं मैं पिया संग जाए मिलना तो कठिन है जी।।644।।

                                 644 कैसे मिलूं मैं पिया संग जाए मिलना तो कठिन है जी।। झीना रास्ता मुश्किल चढ़ना मुझसे चढ़ा ना जाए। औघट घाट बाट रपटीली पांव नहीं ठहराए।। लोक लाज कुल की मर्यादा मुझसे सही ना जाए। घर में पिया परदेश बराबर देखे बिन रहा ना जाए।। आशा तृष्णा जाग बावली गगन मंडल चढ जाए। गम से दूर अगम से आगे सूरत झकोलें खाए।। रामानंद गुरु पूरे मिल गए मार्ग दिया बताएं। कह कबीर सुनो भाई साधो सीधा अमरापुर जाए।।

*641 पांच तत्व और तीन गुना में।।641।।

                           641 पांच तत्व और तीन गुणों में, अपना ध्यान लगा तू। इन सारां की पारख करके, निर्भय हो गुण गा तूं।। गगन धरण पवन और पानी, अग्नि का प्रवेश हुआ। जिन जिन में यह खोज लिया, उन्हें सतगुरु का उपदेश हुआ। मान बढ़ाई गेर दी जिसने, श्रृंगी उनका भेष हुआ। निश्चय करके बैठ गए फिर, असली वो उन का देश हुआ।    अब काम क्रोध मद लोभ मोह का, मत ना जिक्र चला तू।। कर्म धर्म ओर रिद्धि सिद्धि, पास  इन्ही के रहती। ज्ञान विवेक करे घट अंदर, जब चमके वा जोती। इधर-उधर की छोड कल्पना, चुग ले न निज मोती। आठ पहर रहे खोज नाम की, किस्मत ना फिर सोती।         आशा तृष्णा माया की मत, इच्छा विरह लगा तूं।। दसों इंदरी तेरे पास बसत है, इनका ज्ञान करा नहीं। ज्ञान इंद्री है मन का राजा, बिल्कुल ध्यान धरा नही। शील संतोष ज्ञान ना बरता, आत्म सम्मान करा नहीं। लख तीरथ को खोज करी ना, निजी कर्म करा नहीं।       अष्ट कमल में तार पुरा है, सत की बेल खिला तूं।। ओहम सोहम तेरे समीपी, मेरुदंड का करिए ख्याल। भंवर गुफा के बीच बसत है, जिसको कहते हीरा लाल। आतम में परमातम दरसे, टूटे तेरा माया जाल। कान्हा दास के चरण कमल में, श्याम चं

*640 जिनके ज्ञान हुआ था।।640।।

                                  640 जिनके ज्ञान हुआ था, छोड़ चले राजधानी।। ज्ञान हुआ था गोपीचंद कै, बात मात की मानी। सत्त के कारण राज छोड़ दिया, छोड़ी तख्त निशानी।। ज्ञान हुआ था मोरध्वज के, सुन ऋषियों की वाणी। अपने हाथां लड़का चीरा, ले के करोत कमानी।। ज्ञान हुआ था हरिश्चन्द्र के, सुन ऋषियों की वाणी। सत्त के कारण तीनों बिक गए, लड़का राजा रानी।। ज्ञान हुआ था प्रह्लाद भक्त के, रहा सन्तों के साहमी। कह कबीर सुनो भई साधो, नहीं किसी से छानी।। 

*623 ऐसा देश हमार।।623।।

ऐसा देश हमार ओ अवधू।।-२।। बिन बदरा के दमके दामनी,                   बिन बुंदिया के झमकार। बिना शशि वहाँ शीत चाँदनी,                    बिन सूरज उजियार।।  बिन बगिया वहाँ फूल खिलत हैं,                    बिन फूलों महकार।। बिना प्राण वहाँ पिंड बोलता,                    बिन वाणी प्रचार।। शरणमछँदर जति गोरख न्हावै,                    बिना नीर की धार।।

*617 अब पाई हमने, परम् गुरू की ओट।।617।।

                               617 अब पाई हमने, परम् गुरू की ओट। भँव बन्धन सब ही हर लीन्हा, मारा मर्म का सोंट।। नाभि कंवल से साँसमसांसा, उठा जो घोटमघोट। बंकनाल से चढा शिखर पे, तोड़ भर्म का कोट।।  सुखमना सुरत पलट गई पाशा, गई अंतर्मुख लौट। मानसरोवर हंसा पाया, छूट गया कंकर कोट।। अमर उजास गुप्त घर चमका, उड़ गया मन का खोट। महा कपट हृदय का टूटा, अब खुली मर्ज की गोट।।  साहेब कबीर मिले गुरू पूरे, दिया शब्द लँगोट। दास गरीब दया समर्थ की, दई निज अनुभव की ओट।।

*637 सद्गुरु पूरण ज्ञान तुम्हारा।।637।।

                                   637 सद्गुरु पूर्ण ज्ञान तुम्हारा। जो कोय आवै शरण आपकी, तज के मान गुमाना।। मैं अनाथ अति निर्बल असहाई, फटका बहुत प्रकारा। जब मैं सुनी आपकी महिमा, छोड़ा सब घर बारा।। आप दयाल दीनों के दाता, कर कृपा अपनाया। सहजै ज्ञान दिया झट अपना, भाग्या भर्म विकारा।। सच्ची लग्न लगी जब घट में, पाया भेद तुम्हारा। निश्चय करके नहीं डोलै, अर्स फर्स निर्भारा।। जय शिवानन्द गुरु की महिमा, जाने जानन हारा।  हो निर्भय गुरु गम से पाया, अगम अखण्ड अपारा।।

*638 मेरे सच्चे गुरु ने ज्ञान की भांग पिलाई।।638।।

                             638 मेरे सतगुरु ने ज्ञान की भांग पिलाई।। पीले प्याला हो मतवाला, रोग रहे ना राई। जन्म जन्म के बंधन कट जा सूरत लगाई घट माही।। आसन लाय जुगत से बैठे, जगत त्याग धुन लाई। अपार लहर उठे घट माही, शब्द में सूरत समाई।। झिलमिल झिलमिल होय झिलामिल दो नेनों के माही। सूरत निरत बीच देख ले तमाशा सतगुरु खेले माही।। नाथ गुलाब गुरु मिले पूरे न्यू कह के समझाई। भानी नाथ शरण सतगुरु की अगम जन्म दर्शाई।।

*636 सदगुरु बांटे सै पुड़िया ज्ञान की।।636।।

                              636 सदगुरु बांटे सै, पुड़िया ज्ञान की।। बाहर नही धरणी या भीतर नही धरनी।           हृदय में धर नी सै पुड़िया।। साबुन नही लगता, सोडा नहीं लगता।           मैल न काटे सै।।  गोली नहीं लगती, दवाई नहीं लगती।            रोग ने काटे सै।। कहत कबीर सुनो भई साधो।            या पार उतारै सै।।

*635 अगर है ज्ञान को पाना।।635।।

                               635                             अगर है ज्ञान को पाना, तो गुरू की आ शरण भाई। जटा सिर पर लगाने से, भस्म तन में रमाने से। सदा फल फूल खाने से, कभी न मुक्ति हो पाई।। बने मूरत पुजारी है, तीर्थ यात्रा प्यारी है। कह वृद्धा ने भारी हैं, भरम मन का मिटे नाहीं।। कोटि सूरज शशी तारा, करें प्रकाश मिल सारा। बिना गुरू घोर अंधियारा, न पृभु का रूप दर्शाई।।  ईश सम ज्ञान गुरू देवा, लगा तन मन करो सेवा। ब्रह्मानन्द मोक्ष पद मेवा, मिले और बन्द कट जाइ।।

*635 गुरु ज्ञान की भांग पिलाई।।635।।

                                635 गुरु ज्ञान की भांग पिलाई मारी अंखियों में सुरती छाई।। पिया प्याला हो मतवाला रोग रहे ना राई। जन्म जन्म का संशय मिट जा, साधु संत ने पाई।। झिलमिल झिलमिल हो रहा है दोनों नेन के माही।आया ओहन सोहन सिमरन कर ले ज्योत जगे घट माही।। रोम रोम में हो उजाला खड़े रहो सब छाईं। जहां देखो वहां स्वाति नहीं है सब घट रहा समाई।। गुरु रामानंद जी तुम बलिहारी सब पर होते सहाई। कहत कबीर सुनो भाई साधो अटल नाम ने ध्याई।।

*635 गुरु ज्ञान की भांग।।635।।

                               635 गुरु ज्ञान की भांग पिलाई, म्हारी अंखियां में सुरती छाई।। पिया प्याला हो मतवाला रोग रहे ना राई। जन्म-जन्म का संशय मिट जा, साधु संत ने पाई।। झिलमिल झिलमिल हो रहा है दोनों नैन के माही। ओहम सोहम सिमरन कर ले, जोत जले घट माहीं।। रोम रोम में हो उजाला खड़े रहो सब छाई। जहां देखो वहां स्वाती नहीं है, सब घट रहा समाई।। गुरु रामानंद जी तुम बलिहारी, सब पर होत सहाइ। कहे कबीर सुनो भाई साधो अटल नाम ने ध्याई।।

*634 सुनाऊं तनै ब्रह्म ज्ञान को।।634।।

                                                             634 सुनाऊँ तनै ब्रह्म ज्ञान को लटको जी।।     पहली धारणा करो सत्संग की गुरू चरणों में रडको।     मान गुमान तजो, मत राखो अभिमान को पटको।। दूजी धारणा करो नाम की, ज्यूँ चढ़ै बांस पे नटको। पाप कर्म थारे सब जल जावै, फूटै पाप को मटको    तीजी धारणा चेतन रहना, पाओ ज्ञान को गुटको।    ऐसी सुरत लाओ नाम पे, मिट जाए सब खटको।। चौथी धारणा करो सेवा की, माया देख मत अटको। कह कबीर सुनो भई साधो, सीधा शब्द में सटको।। 

*636 भाई रे ज्ञान बिना पच मरता।।636।।

                                                                636 भाई रे ज्ञान बिना पच मरता। साँचा सद्गुरु पूर्ण साँई, नहीं जन्मे नहीं मरता।। ब्रह्मा एक सकल घट व्यापक ज्ञानी होय सो लगता। रहनी धार कहनी को साधे, जिनका कारज सरता।। रहता पुरूष विदेही घट में, अजर अमर सत्त करता। जानेगा कोई विरला ज्ञानी, जो अनहद में रमता।। शब्द स्नेही असल पारखी, नहीं काल से डरता। निर्भय होय रमे आत्मा में, नूर निरन्तर रहता।।  कह शिवानन्द ज्ञान बिन बन्दे, भाव नहीं इस तरता। साँचा ज्ञान सद्गुरु से मिलता, क्यों नहीं सफल नर होता।।

*634 गुरू गम ज्ञान एक न्यारा।।634।।

                                                                634 गुरू गम ज्ञान एक न्यारा रे। साधो भाई।।              समझेगा गुरू मुख प्यारा रे।। मूँड़ मुंडावै कोय लटा बंधावै, जोड़ जटा सिर भारा जी। पशु की तरियां कोय नँगा डोलै, अंग लगावैं चारा जी।। कन्दमूल फल खात कोय, वायु करै आहारा जी। गर्मी सर्दी भूख प्यास सहे, तन जीर्ण कर डारा जी।। सर्प छोड़ बांबी को पूजै, अचरज खेल अपारा जी। धोबन पे वश चले नहीं रे, गधे ने क्या बिगाड़ा जी।। ब्रह्मा विष्णु शंकर थक गए, धर-२ जग अवतारा जी। पोथी पन्ने में क्या ढूंढे, वेद कहत नित हारा जी। वेद कर्म और क्रिया से, वे वो लावैं वारा जी। कह कबीर सुनो भइ साधो, मानो वचन हमारा जी।। 

*633 तेरा जीवन है बेकार गुरु ज्ञान के बिना।। 633।।

                            633 तेरा जीवन है बेकार गुरु ज्ञान के बिना।। क्यों करता मेरा मेरी, यहां कौन चीज है तेरी। जो बीत गई सो भतेरी।तेरी जिंदगी अधूरी रह जाएगी।                                                    कल्याण के बिना।। क्यों करता है मनमानी संतो की बात नहीं जानी।। तुम बन बैठा अभिमानी। फिर अंत समय पछताएगा।                                             गुरु नाम के बिना।। जो गुरु शरण में आगया, वह मोक्ष पदार्थ पा गया। परमार्थ में हाथ बढ गया।नहीं कटे चौरासी तेरी बंदे।                                             गुरु ध्यान के बिना।। सतगुरु समनदास समझावे भूले को राह बतावे। गया वक्त हाथ नहीं आवे, मेघ दास जी मत जाइयो।                                            पहचान के बिना।।

*625 मरहम हो सोय जाणै।।625।।.

                                                                    625 मरहम हो सोय जाणै भाई साधो, ऐसा है देश हमारा जी। वेद कितेब पार नहीं पावै, कहन सुनन से न्यारा जी। जात वर्ण कुल क्रिया नाहीं, सन्ध्या नेम अचारा जी।। बिन जल बूँद पड़ै जहां भारी, नहीं मीठा नहीं खारा जी। सुन्न महल में नोबत बाजें, किंगरी बीन सितारा जी।। बिन बादल जहां बिजली रे चमकै,                        बिन सूरज उजियाला जी। बिना सीप जहाँ मोती उपजें,                        बिन सुर शब्द उचारा जी।। जोत लजाए ब्रह्म जहां दरसै, आगे अगम अपारा जी। कह कबीर वहाँ रहन हमारी, बुझै गुरू मुख प्यारा जी।। 

*625 बाजी बाजी बाजी डुगडुगी शहर में।।625।।

                              625 बाजी बाजी बाजी डुगडुगी शहर में बाजी।। आदि शाहिद अदली आए पकड़े पंडित काजी।। कोतवाल अन के गुरुआं पकड़े, पांच पच्चीस समाजी। कहत कबीर सुनो भाई साधो हो गई रैयत राजी।।

*619 मथुरा जाऊं ना मैं काशी ।।619।।।। रविदास।।

                               619 मथुरा जाओ ना मैं काशी, हम बेगमपुर के वासी।। रहने रहे तो रोगी कहिए कर्म करें तो कामि। रहनी गहनी दोनों नाही ना सेवक ना स्वामी।। इंद्रिय काट के बना कसाई जग में रहता बोरा। हम तो इन पांचों से नारे जी काले जम का जोरा।। ठाकुर तो सब ठोक जलाए, हल से हाट उठाई। राम खुदा वहां करें मजबूरी उस ते रे जाके पाई।। आपा मार अपन पर मेरा तेग गुरु से लाई। कह रविदास सुनो भाई साधो तेग में तीर दुहाई।।

*617 संगत तो कर ले साध की।।617।।

                          617 संगत तो कर ले साध की, या में उपजेगा आतम ज्ञान। जल देखे सुख उपजे जी, साधू देखे ज्ञान। माया देखे लोभ उपजे जी,  तीरिया देखें काम।। साधु माई बाप है जी साधु भाई बंध। संत मिलावें राम से जी कांटे वे यम के फंद ।। संत हमारी आत्मा जी हम संत की देह। रोम रोम में रम रहा जी ज्यों बादल में मेंह।। सत्संग की आधी घड़ी जी, आधी से पुनः आध। तुलसी संगत साधु की, हरे कोट अपराध।।

*615 बाकी साधु भजो नाम अविनाशी।।615।। घीसा संत।।

*627 उम्हाया मन उस घर का जागी पिया के देश।।627।।

                               627 ऊमहाया मन उस घर का जाऊंगी पिया के देश।। कब मेरा साजन सखी आए हे लेन ने।                        देखूं मैं बांट हमेश।। बहुत दिनो रही बाबुल घर याणी।                          बीते हैं बहुत क्लेश।। मेरा साजन सखी परम रूप है।                         जिसने कहीं अलेख।। घीसा संत करी गुरु कृपा।                        जीता को दिया उपदेश।।

*601 संतो घर में झगड़ा भारी।।601।।

                                 601 संतो घर में झगड़ा भारी।। रात दिवस मिल उठ उठ लागे, पांच चोर एक नारी। न्यारो न्यारो भोजन चाहे, चारों अधिक स्वादी। कोई काहू की बात ना माने, आपे आप मुरादी।। दुर्गति के दिन गिन भेंटे, चोर ही आप चोबेरे। कहे कबीर सुनो सो जन पूरा, जो घर की रार निवेरे।।

*600 जिस ने आपा मारा।।600।।

                                                          600 जिस ने आपा मारा, वो सद्गुरु सन्त कहावै।।     सच्चे मालिक के रहे आश्रय, दुविधा दूर भगावै।     ओरां को ऊंचा समझे,अपने को नींच बतावै।। जब तक मेर तेर नहीं छूटे, यूँ ए लोग हँसावै। अपना खोट बाहर नहीं कीन्हा, ओरां ने समझावै।।    घर घर के मा गुरु बने हैं, ऊंचा आसन लावै।    निर्धन तैं कोय बात करे ना, संगत तैं न्यारा खावै।। सबका ब्रह्म एक सा जानै,  वो सन्मार्ग जावै। सकल भरमना छोड़ जगत की, एक गुरु गुण गावै।। 

*624 रहना नहीं देश वीराना है।।624

                              624 रहना नहीं देश बिराना है।। ये संसार कागज की पुड़िया बूंद लगे गल जाना है।। ये संसार कांटे की बाड़ी, उलझ उलझ मर जाना है।। यह संसार झाड़ और झनखंड, आग लगे जल जाना है।। कहे कबीर सुनो भाई साधो, सत्य नाम ठिकाना है।।

*614 साधो! चुप का है निस्तारा।।614।।

                                   614 साधो ! चुप का है निस्तारा। क्या कहूँ कुछ कह न सकूँ मैं, अदभुत है संसारा।। अगमा चुप है निगमा चुप है, चुप है जन जग सारा। धरती चुप है गगना चुप है, चुप है जल परवाहरा।। पवना पावक सूरज चुप है, चुप है चाँद और तारा। ब्रह्मा चुप है विष्णु चुप है, चुप है शंकर प्यारा।। पहले चुप थी पीछे चुप है, चुप है सिरजनहारा। ब्रह्मानन्द तूँ चुप में चुप हो, चुप में कर दीदारा।। 

*634 मेरे साधु भाई पारख है निज ज्ञान।। मस्ताना।।634।।

                              634 मेरे साथ हूं भाई पारख़ है निज ज्ञान।। करके देखो परम गुरु की दरसे नूर निशान। शब्द सुरती दोनों लए हो गए मिट गया आवन जान।। सात मंजिल पर बिलख भोम है ना धरती ना आसमान। अजपा जाप है नहीं और ना सुमिरन ना ध्यान।। दिन-रात भजन का ना बेरा पाटे, रहता एक समान। आधार पर सतगुरु बस्ती वहां ना धरती ना भान।। बिन बक्शीश पहुंच नहीं सकता पारख पद निर्माण। कह छः सो मस्ताना पहुंचे दे शीश गुरु ने दान।।

*626 मैं देखूं थारी नगरी अजब योगीराज।।626।।

                         626 मैं देखूं थारी नगरी अजब योगीराज।। घर उजाड़ हो आपना जी लिए मरेडा हाथ। अपना भी घर फूंक के चलो हमारे साथ।। घर छोडूं घर होता है रे, घर रखूं घर नाए। जो घर ही में घर करें, ता को कॉल ना खाए।। अंधे को अंधा मिला लोचन फूटे चार। प्रेम गली में सतगुरु मिल गए गोदी लिए उठाए।। अब के सेवक तब के ठाकुर संतो करो विचार। कह रविदास सुनो भाई साधो देखा नजर निहार।।

*625 भूल गई रास्ता।।625।।

                                    625 भूल गई रस्ता मैं तो भूली रे ठिकाना।    इतना तो याद मेरा देश है दीवाना।। दुनिया के मेले में आई, मेरे पिता के साथ हे। मेले में मेरे पिता का, छूट गया हाथ हे।।              फिरूँ हूँ टोहवती मैं तो, मुश्किल है पाना।। पाँच ठगां ने घेर ली, मेरा कोन्या चाला जोर हे। मैं रोइ भी भतेरी किसे ने, सुना कोन्या शोर हे।       मैं किसने कह दूँ अपना जग में,                       दुश्मन है जमाना।। पाँच ठगां ने भाई बनके,जुल्मी के संग लादी। अंजाया पति नहीं मिला, मेरी नहीं हुई है शादी।         जो इबकै छुटवा दे इन तैं,                        ना भूलूँगी अहसाना।। बंगले के में सन्तों ने, भक्ति बेल लगाई। चालो हे म्हारी सूरत सुहागण, उड़ै मिलती नाम दवाई।            काटेंगे क्लेश म्हारा,                             छह सौ मस्ताना।। 

*622 हम मस्त दीवाने लोग।।622।।

                                 622 हम हैं मस्त दीवाने लोग, हमने राम पिछाना है।। ज्ञान ध्यान सहज पाया सुमरन, प्रेम वचन मुख बोल।। क्रिया कर्म भर्म ना म्हारै, हे ना शंसय ना सोग।।    ऊँच नीच की भिन्न नहीं म्हारै, ना दुतिया ना योग।।  घीसा सन्त चले हैं निर्गुण जी, ये पाई है वस्तु अनमोल।। 

*619 अमरपुर ले चलो सजना।।619।।

                                                                     619         अमरपुर ले चलो सजना।। अमरपुरी में खुली है बजरिया, सौदा तो कर चलना।। अमरपुरी की भिड़ी भिंडी गलियां, लङभिड़ के चलना।। ठोकर लगी मेरै ज्ञान शब्द की, खोल गई झपना।। अमरपुरी में सन्त बसत हैं, वहीं पुरूष अपना।। सन्त समाज सभा जहाँ बैठी, दर्शन कर चलना।। कह कमाली कबीरा थारी बाली, सन्त नाम जपना।। 

*635 गुरु ज्ञान की बरसात आपके वचनों से।।635।।

                               635 गुरु ज्ञान की हो बरसात आपके वचनों से।।           अमृत बरसे दिन रात आपके वचनों से।। सत्य का दर्पण दिखा दिया है नींद से मुझे जगा के। हे आचार्य मेरी आंखों में देखा जब मुस्कुरा के।                    मैं समझ गया हर बात।। सच कहता हूं आप से नाता जोड़ा मैंने जब से। लोभ मोह छल कपट वासना पास ना आए तब से।                हो शुरू मेरी प्रभात।। बूंद था में पानी की आपने सागर बना दिया। खाली मन को ज्ञान का गुरुवर गागर बना दिया।                  मिलता है प्रभु का साथ।।

*634 रे सुना था हमने।।634।।

रे सुना था हमने गुरु अपने का ज्ञान।  देखत देखत नैना थक गए सुनते सुनते कान।। धुए से महीन पवन से जीना ना वा के जीव ना जान। कब लग वाका करूं वर्णन बखानूँ, लो लागे ना ध्यान।। दृष्ट मुष्ट में आवे नाही, ना वा के पिंड दान।  देखत देखत नैना थक गए सुनते सुनते कान।।  हिंदू तो पुस्तक में देखें मुसलमान कुरान। यह दोनों कागज में रहेगी पाया ना निज नाम।। खसखस माना मेरु समाना राई में खलक जहान। चौदह तक तका गरव निवारा, रहा थाम का ठाम।। या सुमरे भय कल ना व्यापे, यह पद है निर्वाण। कहत कबीर सुनो भाई साधो मिट जाए आवन जान।।

*622 जावेंगे दीवाने देश।।622।।

                          622                                जावेंगे दीवाने देश, फेर नहीं आवेंगे।। ऊंचे ऊंचे मन्दिर हेली, गुरु जी डेरा,           पकड़ डोर चढ़ जावेंगे।। सुन्न बिच शहर शहर बिच बस्ती,            न्यारा ए नगर बसावांगे।। खीर खांड का अमृत भोजन,            गुरुआं ने न्योंत जिमावांगे।। कह कमाली कबीरा थारी बाली,             नूर में नूर समावांगे।।  

*621 अगम पुरी का ध्यान खबर सतगुरु करी621।।

                               621 आगम पुरी का ध्यान खबर सतगुरु करी।        जो तत्व विचार सूरत मन में धरी।। सूरत नीरत दोऊ संग, अगम को गमन कियो। शब्द विवेक विचार क्षमा चित में दियो।। गुरु के शब्द लो लगाए अगोचर घर कियो। शब्द उठे झंकार अलख ते लख लियो।। सतगुरु डोरे लाए पुकारे जीव को।। हंसा चलो संभाल मिलन निज पीव को।। मंगल ग्रह कबीर सो गुरु पास है। हंसा आई नो कमर घर वास है।।

*619 चलो चलें हम बेगमपुर गांव रे।।619।।

                              619 चलो चलें हम बेगमपुर गांव रे।                    मन से कहीं दूर कहीं आत्मा की राहों में।। चलो चलें हम एक साथ वहां, रूप रेख ना रंग जहां।                   दुख सुख में हम समान हो जाए।। प्रेम नगर के वासी हैं हम, आवागमन मिटाया है।                    शांति सरोवर में नित्य ही नहाए।। देह कि वहां कोई बात नहीं मन के मालिक खुद हैं हम।                     अपने स्वरूप में गुम हो जाए।। मुक्ति स्वरूप पहले से ही हैं खटपट यह सब मन की है।                    मन को मार भगाया है हमने।।

*612. मैं तो रमतां जोगी राम।।612।।

                            612 मैं तो रमतां जोगी राम, मेरा क्या दुनिया से काम।।     हाड़ मांस की बनी पुतलियां, ऊपर चढ़ रहा चाम।     देख-२ सब लोक रिझावें, मेरो मन उपराम।। माल खजाने बाग बगीचे, सुंदर महल मुकाम एक पल में सब ही छूटें, संग चले ना दाम।।     मातपिता और मित्र प्यारे, भाई बन्धु सुत वाम।     स्वार्थ के सब खेल बना है, नहीं इनमें आराम।। दिन दिन पल पल छिन छिन काया,छीजत जाए तमाम। ब्रह्मानन्द मग्न पृभु में, मैं पाऊं विश्राम।। 

*621 हमने देखा अजब नजारा अमर लोक के हम वासी।।621।।

                                 621 हमने देखा अजब नजारा अमरलोक के हम वासी। मात पिता का ना जन्म हमारा, न त्रिया संग में राची।। ऊंच-नीच कोई वरण ना म्हारा, ना हम जाति कुजाति। शिरीष महेश गणेश ना ब्रह्मा, ना धरती ना आकाशी।। दिवस रेन दोनों नहीं वहां पर ना चांद सूरज का प्रकाशी। अमृतधारा बहे वहां पर जहां पर मलमल हम नहास।। ना खाते ना पीते वहां पर,ना करते भोग विलासी।  ना जन्मे ना मरते वहां पर, उड़े ना रोवे ना हंसी।। ना ज्ञानी ब्रह्मचारी वहां पर ना तप वहां ना दासी। पति सती नहीं मुनि तपस्वी, उड़े ना योगी सन्यासी।। मूल बंद को बांधकर के हम मांगन जाएं जिज्ञासी। मेरुदंड को फोड़ फोड़ के, हम सुन्न शिखर चढ जासी।। काल जाल की दरार नहीं है वहां नहीं गमों की फांसी। सदा अमर रहे सब वहां पर,  सुन्न शहर के वासी।। अमर भये निर्भय पद पाया दरस अलख पुरुष अविनाशी। कह रविदास सुनो रे संतो, वहां जीवतड़ा मर जासी।।

*625 तुम राम भजन में लग जा।।625।।

                                625 तू राम भजन में लग जा, तने देश गुरु के जाना।। इच्छा कारण जग में आया, आया क्या तनै लालच पाया।  तू कर्मा ने भरमाया, तेरे लग रहा आना जाना।। एक-एक करके माया जोड़ी, कार करी थी ले ली घोड़ी।  तने बहुत करी असवारी, मानुष जन्म ना पाया।। क्यों करता है मेरा मेरी, कौन चीज यहां पर तेरी। तू करता हेरा फेरी, तनै बहुत पड़े पछताना।। राम नाम की ले ले माला, आ गया तने ले जावन वाला।  गुरु प्रकाश नंद समझावे, गुण सतगुरु के गाना।।

*624 मैं तो जाऊंगी पिया के देश।।624।।

                                624 मैं तो जाऊंगी पिया के देश, पीहर में बहुत रही।। पीहर बस कुकर्म कियो रे, भोगे कष्ट  महान। विषय वासना में फंसी रे, ना जानी पिया की पहचान।              उमरिया मेरी यूँ ही गई।। पांच पुत्र पीहर में जन्मे, वे रहे द्वंद मचाए। कुमति ननद बड़ी छड़छन्डी, नीचन के घर जाए।              वाहु से मैने बहुत कही।। तीन हमारे भ्राता कहिए, उन में एक सपूत। दो बजमारे संग ना छोड़ें, निरखत डोलै मेरो रूप।               काहे को भैया बहन भई।। जब मैं मिलन चली सद्गुरु से, कर्म दिये छिटकाय। पीहर को पटपटा कियो, गावैं सुरजन साध।               भर्मणा मेरी दूर हुई।। 

*620 अमरगढ़ बाँका है रे भाई।।620।।

                                   620                               अमरगढ़ बाँका है रे भाई, उड़ै पहुँचेगा विरला ए सन्त।। कहां से आया तेरा बोलता रब,साधो कहां पे वो मरजाए। इसका बेरा पाड़ लो साधो, जीवन मुक्त हो जाए।।    नहीं आया आकाश से साधो, ना धरती में पाए।    ये हंसा सत्तलोक का रे साधो, सत्त में रहा समाय।। दुष्ट मुष्ट आवै न रे साधो, दफ्तर लिखा न जाए। नामी ब्रह्म स्वरूप रे साधो, सब घट रहा समाए।।    नाथ गुलाब जोगी कह भइ साधो, ये सद्गुरु की सैन।   काला सर्प ख़िलावना रे साधो, नहीं है हंसी खेल।। 

*624 मैं जाऊंगा गुरु के देश फिर नहीं आऊंगा।। भानी नाथ।।624।।

                              624 मैं जाऊंगा गुरु के देश फिर नहीं आऊंगा।। सारी गठरी खोल बता दूं, पांच तीन की रचना ला दू।               अब लग रहा सीधा तार-तार चढ़ जाऊंगा।। पांचू गुण यह अपने किनहे, यह पांचों में सतगुरु से लीनहे             अब आठ पहर विश्राम सदा सुख पाऊंगा।। बहुत स्वाद गया जीव का जो चाकू तो लागे फीका।           देखत आवे छींक तुरंत भीग जाऊंगा।। उलट पृथ्वी नीर मिलाऊं ओला नीर तेज में लाऊं।           तेज पवन के बीच बैठ लो लाऊंगा।। दे दी मौज अगम घर पाया सुख सागर में डेरा लाया।          गुण गावे भानी नाथ अमर हो जाऊंगा।।

*623 हरि के बिना रे साधु सुना पड़ा जो देश।।623।।

                                623 हरि के बिना रे साधु, सूना पड़ा यो देश। ऐसा कोई हरि से मिला दे तन मन धन करूं पेश।। तुम्हारे कारण बन बन डोलूं, कर जोगन का भेष।। प्रीतम प्यारे दरस दिखा दो रहता है बहुत क्लेश।। अवधी बढ़ी गुरु आज ना आए रूपा हो गए केश।। मीरा के प्रभु गिरिधर नागर तज गए नगर नरेश।।

*622 हम परदेसी लोग फिर नहीं आएंगे।।622।।

                                622  हम परदेसी लोग फिर नहीं आएंगे।। बालू की भीत पवन का खंबा, सतगुरु पार लगाएंगे।। म्हारे गुरुवा के ऊंचे ऊंचे मंदिर, समझ पकड़ जाएंगे।। सम्मुख तोप धरी दरवाजे, भरम किले बुर्ज ढहाएंगे।।  उत्तर पूर्व पश्चिम दक्षिण सभी समझ घर आएंगे।  कह कबीर सुनो भाई साधो, जन्म मरण मिट जाएंगे।।

*618 निंदक यार हमारा।।618।।

                                 618 निंदक यार हमारा रे साधो, निंदक यार हमारा।। निंदक नियरे ही रखो, होन नहीं दो न्यारा।। पीछे निंदा कर अघ धोवे, सुन मन मिटे विकारा। जैसे सोना ताप अगन में, निर्मल करे सुनारा।। घन आहरण कर हीरा निपजे, कीमत लाख हजारा।। ऐसे परखे संत दुष्ट को, करें जगत उजियारा।। योग यज्ञ तप पाप कटन से, करें सफल संसारा। बिन करनी मय कर्म कठिन सब, मेटे निंदक प्यारा।। सुखी रहो निंदक जग माही, रोग ना हो तन छारा।  म्हारी निंदा करने वाला, उतरो भव जल पारा।। निंदक के चरणों की पूजा, करूं मैं बारंबारा।  चरण दास कह सुनियो साधु, निंदक साधक भारा।।

*616 बोलता नजर नहीं आया म्हारे साधु।।616।।

                                616 बोलता नजर नहीं आया तुम्हारे साधु।। बिना मूल एक दरख्त देखा, पात नजर नहीं आया। जब मेरा मनवा हुआ दीवाना तोड़ तोड़ फल खाया।। बिना ताल एक सरवर देखा नीर नजर नहीं आया। जब मेरा मनवा हुआ दीवाना कूद कूद के नहाया।। बिना ढूंढे एक हाथी देखा नैन नजर नहीं आया। जब मेरा मनवा हुआ दीवाना राक्षस मार गिराया।। बंद कोठरी में साधु तपता हाड मास नहीं पाया।  कह कबीर सुनो भाई साधो भेद कछु नहीं पाया।।

*613 साधो है मुर्दा का देश।।613।।

                              613                             साधो है मुरदां का देश, एक सन्तों का देश निराला।।     पीर मरा पैगम्बर मर गया, मर गया जिंदा जोगी।     राजा मर गया प्रजा मर गई, मरा वैद्य ओर रोगी।। चन्दा मर गया सूरज मर गया, मरगया धरण आकाशा। चोदह लोक का मरा चौधरी, इस कि भी के आशा।।     नोउ मरगे दसों मरगे, मर गए सहस अठासी।     तेतीस करोड़ देवता मर गए, ये पड़े काल की फांसी।। नाम अनामी सदा सत्त है, दूजा सन्त न होई। कह कबीर सुनो भई साधो, भटक मरो मत कोई।। 

*616 साधु भाई अवगत लिखा न जाए।।616।।

                                  616 साधु भाई, अवगत लिखो ना जाई। जो कुछ लिखे संत सूरमा, नूर में नूर समाई।। जैसे चंदा उदक में दरसे, न्यू साहिब सब माही। ला चश्मा घट भीतर देखो, नूर निरंतर माही।। उरे से उरा दूर से दूरा, हरि हृदय के माही। सपने नार गवाया बालक, जाग पड़ी जब वहां ही।। जागृति ज्योत जगे घट भीतर, जहां देखो वहां साईं। उग्या भान बीत गई रजनी, हरि हम अंतर नाही।। ममता मेट मिलो मोहन से, गुरु से गुरु गम पाई। कहे बन्ना नाथ सुनो भाई साधो, अब कुछ धोखा नाही।।

*617 या विद मारो गोता साधव।।617।।

                              617 या विद मारो गोता साधु।। सिमरन सार पार सागर, फिर जन्म नहीं होता। आशा तृष्णा काट के नदिया, फिर भक्ति फल होता।। हुई भेंट मिलेंगे खेवटिया, भरम बोझ नहीं ढोता।। संकल्प विकल्प काट पंखुड़ी फिर मन से जंग होता। सूरा होवे लड़े रन माही, उड़ जा पोल सब थोथा।। हो होशियार यार नहीं टूटे, तेरे ताप मल धोता। सतगुरु पास वास अमरापुर, दूर खड़ा यम रोता।। सतगुरु साक्षी हैं दोनों के, भूल भरम सब खोता संगति नाथ कह फिर कोई भव ना, गुरु चरणन जो खोता।।

*614 साधु एक आप जग माही।।614।। कबीर।।

साधु एक आप जग माही।। दुजा कर्म भरम है कृत्रिम जो दर्पण में छाई।। जलतरंग जो जल से उपजे फिर जल माही रहाई। काया झाई पांच तत्व की विंसे कहां समाई।। या विधि सदा देह गति सबकी या विधि मन ही विचारों। आपा होय न्याय कर न्यारों परम तत्व निखारो।। सहज रहे समाय सहज में ना कहूं आवे ना जावे। धरे ना ध्यान करें नहीं जप तप राम रहीम ना गावे।। तीरथ व्रत सकल परित्यागे, सुन्न  डोर नहीं लावे। यह धोखा जब समझ पड़े तब पूजे काहे पुजावे।। जोग जुगत से भरम ना छूटे जब लग आप ना सुझे। कहे कबीर सोई सतगुरु पूरा जो कोई समझे बूझे।।

*611 हे जी हे जी साधु कैसे ये विश्व बनाया।।611।।

                               611 हे जी हे जी साधु, कैसे यह विश्व बनाया। बिना रचना के देख देख के, मोहे अचंभा आया।। निराकार निर्लेप पुरुष था, नहीं ईश्वर नहीं माया। मात-पिता दोनों ही नाहीं, पुत्र कैसे जाया।। धरती और आसमान नहीं थे, कैसे भवन बनाया। बिना भवन के कहां बैठ, रचना का मता उपाया।। मात कुमारी ब्रह्मचारिणी, पुत्र कैसे जाया। बाप कुंवारा बेटा चाहिए, कैसा ढोंग रचाया।। मन बुद्धि अहंकार नहीं थे, इच्छा में दर्शाया। इन इच्छा से बने मुकदमा, वेदव्यास ने गाया।। बिना भेद का भेद गुरु, ओंकारानंद लखाया। माया से प्रकट करता, सोई तत्व मसि बनाया।।

*603 सद्गुरु अलख लखाया।।603।।

                                                                603 सद्गुरु अलख लखाया, जिसमें अपना आप दिखाया।। जैसे नभ में सुन्न दिखता, ओंकार सुन्न समाया। अक्षर में निःअक्षर दिखै, हर अक्षर में पाया।। जैसे किरण बसै रवि माहीं, किरण बीच रोशनाया। पार ब्रह्म से जीव ब्रह्म है, जीव में सांस समाया।। सांस बीच मे शब्द विराजे, अर्थ में शब्द बताया। ब्रह्म में जीव जीव में मन है, गुरू इनसे न्यारा ध्याया।। आपै बीज वृक्ष अंकुर में, आपै फूल फल छाया। सूरज किरण प्रकाश आप ही, आप ब्रह्म जीव माया।। आत्म में परमात्म दिखै, परमात्म में छाया। छाया के में काया साधो, कबीरा सद्गुरु पाया।। 

*605 सद्गुरु ब्रह्म लखाया।।605।।

                                   605 सद्गुरु ब्रह्म लखाया साधो भाई। लखा ब्रह्म भर्मना भागि, नहीं भर्म में आया।। नाम न गाम नहीं कोई मेरै, मैं बेनाम कहाया। रंग न रूप नहीं कुछ मेरै, सदा बेरंगी थाया।। है अडोल तोल नहीं मेरै नहीं तोलन में आया। सदा अखंड अजर अतीता, नहीं खण्डन में आया।। गुप्त से गुप्ता रहता नाही, पर घट गुरु गुण गाया। नभ ही जैसा ब्रह्म ही व्यापक, फैल रहा जग सारा।। टीकमराम ता गुरु फेटियाँ, जिन मोहे भेद बताया। कन्नीराम तो कह सभी से, गुरु से गम मनै पाया।। 

*604 मेरे सद्गुरु चेतन चोर।।604।।

                                604 मेरे सद्गुरु चेतन चोर, मेरा मन मोह लिया जी।। जिसकै लागै वो ही जाणै, के जाणै कोय और। घायल की गत घायल जाणै, के जाणै पगचोर।। भूल गई मैं तन मन अपना, भूली लाख करोड़। लगी हुई एक पल ना बिसरूं, जैसे चाँद चकोर।। जबसे दृष्टि पलटी मेरी, नजर न आवै कोय और। ढूंढ लिया मनै घट के अंदर, मिट गई मन की लौर।। चली चली सद्गुरु पे पहुंची, भाज गए सब दूर। मीरा को रविदास मिले हैं, चला नहीं कोय जोर।। 

*560 गगन मण्डल लाग्या ताला।।560।।

                                    560 गगन मण्डल लगा ताला। खोलैगा कोय, साधु जोहरी, सैन परखने वाला।।           प्रथम सोहं ध्यान लगावै, उस मे सूरत जमावै।           फेर आगे की सुद्ध धर कै, देखो नूर निराला।। मण्डल भीतर पुरूष विराजे, चीन्है अगम अपारा। जिसकी कुंजी गुरु गम माहीं, ज्ञान ग्रन्थ कर टाला।।     जग कर जोग समाधि लगावै, लाखों करै विचारा।     पुरूष रूप फिर भी ना दरसै, जो गुरु मिले दयाला जब गुरु सँग हो दया विधि, निज मत खोल सुधारा। तभी हंस को मार्ग सूझै, खोलै कल्प द्वारा।।      बात हमारी मानो रे हंसा, सभी ज्ञान से न्यारा।      जीवित हंसा लोक समावै, ये है ज्ञान सम्भाला।। अजपा ध्यान गगन में दरसै, बरसै शब्द निराला। कह कबीर सुनो भई साधो, इस विध खुलता ताला।। 

*663 क्यूँ चाल चलै सै काग की।।663।।

                                                                   663 क्यूँ चाल चलै सै काग की, मनै हंस जान के पाला।। मनै पाला हंसे का बच्चा, खूब चुगाया मोती सच्चा। तूँ निकलाहै मति काकच्चा, इब समयआया तेरे भाग का।                            रे तेरा मन विष्टा पै चाला।। फर दे आवै फरदे उड़जा, सन्त शब्द फिर उल्टा पडजा। घोड़ा छोड़ गधे पे चढजा, तेरी नीत हुई हराम में।                           तनै मुँह करवा लिया काला।। मनै बाग लगाया नामी, इस कारण आगी खामी। लाया आप कटाई जब तेरी, नियत हुई हराम।                         मैं रह गया पेड़ निराला।। मनै दूध पिलाया प्यारा, इस कारण लाग्या खारा। जियादास कहदोष हमारा, तेरीशक्ल लगै जहरी नाग की।                       तूँ बन गया डँसने आला।।