*657 जहां हंस अमर हो जाए।।657।।

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जहां हंस अमर हो जाई, देश मारा बांका है रे भाई।।
देश हमारे की अद्भुत लीला, कहूं तो कहीं ना जाई।
शेष महेश गणेश थके हैं, ताकि मति बोराई।।
चांद सूरज अग्नि तारों की, ज्योति जहां मुरझाई।
अरब खरब जहां बिजली रे चमके, तिन की छवि शर्माई।।
म्हारे देश का पंथ कठिन है, तुम से चला ना जाआई।
संत रूप धर के जाना हो, ना काल ले खाई।।
परधन मिट्टी के सम जानो, माता नार पराई।
राग द्वेष की होली फूको, तज दे मान बड़ाई।।
सतगुरु कि तुम शरण गहों रे, चरणों में चित लाई।
नामरूप मिथ्या जग जानो, तब वहां पहुंचो जाई
घाटी विकट निकट दरवाजा, सतगुरु राह बताई।
बिन सदगुरु वा को राह न पावे, लाख करो चतुराई।।
गुरु अपने को शीश नवाऊं, आतम रूप लखाई।
निर्भयानंद है गुरु अपने, शंसय दिया मिटाई।।

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