*621 हमने देखा अजब नजारा अमर लोक के हम वासी।।621।।

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हमने देखा अजब नजारा अमरलोक के हम वासी।
मात पिता का ना जन्म हमारा, न त्रिया संग में राची।।

ऊंच-नीच कोई वरण ना म्हारा, ना हम जाति कुजाति।
शिरीष महेश गणेश ना ब्रह्मा, ना धरती ना आकाशी।।

दिवस रेन दोनों नहीं वहां पर ना चांद सूरज का प्रकाशी।
अमृतधारा बहे वहां पर जहां पर मलमल हम नहास।।

ना खाते ना पीते वहां पर,ना करते भोग विलासी।
 ना जन्मे ना मरते वहां पर, उड़े ना रोवे ना हंसी।।

ना ज्ञानी ब्रह्मचारी वहां पर ना तप वहां ना दासी।
पति सती नहीं मुनि तपस्वी, उड़े ना योगी सन्यासी।।

मूल बंद को बांधकर के हम मांगन जाएं जिज्ञासी।
मेरुदंड को फोड़ फोड़ के, हम सुन्न शिखर चढ जासी।।

काल जाल की दरार नहीं है वहां नहीं गमों की फांसी।
सदा अमर रहे सब वहां पर,  सुन्न शहर के वासी।।

अमर भये निर्भय पद पाया दरस अलख पुरुष अविनाशी।
कह रविदास सुनो रे संतो, वहां जीवतड़ा मर जासी।।

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