*560 गगन मण्डल लाग्या ताला।।560।।

                                    560
गगन मण्डल लगा ताला।
खोलैगा कोय, साधु जोहरी, सैन परखने वाला।।
          प्रथम सोहं ध्यान लगावै, उस मे सूरत जमावै।
          फेर आगे की सुद्ध धर कै, देखो नूर निराला।।
मण्डल भीतर पुरूष विराजे, चीन्है अगम अपारा।
जिसकी कुंजी गुरु गम माहीं, ज्ञान ग्रन्थ कर टाला।।
    जग कर जोग समाधि लगावै, लाखों करै विचारा।
    पुरूष रूप फिर भी ना दरसै, जो गुरु मिले दयाला
जब गुरु सँग हो दया विधि, निज मत खोल सुधारा।
तभी हंस को मार्ग सूझै, खोलै कल्प द्वारा।।
     बात हमारी मानो रे हंसा, सभी ज्ञान से न्यारा।
     जीवित हंसा लोक समावै, ये है ज्ञान सम्भाला।।
अजपा ध्यान गगन में दरसै, बरसै शब्द निराला।
कह कबीर सुनो भई साधो, इस विध खुलता ताला।। 


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