*614 साधु एक आप जग माही।।614।। कबीर।।
साधु एक आप जग माही।।
दुजा कर्म भरम है कृत्रिम जो दर्पण में छाई।।
जलतरंग जो जल से उपजे फिर जल माही रहाई।
काया झाई पांच तत्व की विंसे कहां समाई।।
या विधि सदा देह गति सबकी या विधि मन ही विचारों।
आपा होय न्याय कर न्यारों परम तत्व निखारो।।
सहज रहे समाय सहज में ना कहूं आवे ना जावे।
धरे ना ध्यान करें नहीं जप तप राम रहीम ना गावे।।
तीरथ व्रत सकल परित्यागे, सुन्न डोर नहीं लावे।
यह धोखा जब समझ पड़े तब पूजे काहे पुजावे।।
जोग जुगत से भरम ना छूटे जब लग आप ना सुझे।
कहे कबीर सोई सतगुरु पूरा जो कोई समझे बूझे।।
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