*973 गुरू से लग्न कठिन है रे।।441।।

                                     441
गुरू से लग्न कठिन है रे भाई।
लग्न लगे बिन कारज नहीं सरहिं, जीव प्रलय हो जाई।।

जैसे पपिहा प्यासा बूँद का, पिहू पिहू टेर लगाई।
प्यासे प्राण तड़फ दिन राती, और नीर नहीं भाई।।

जैसे मृगा शब्द स्नेही, शब्द सुनन को जाई।
शब्द सुने और प्राण दान दे, तन की रहे शुद्ध नाहीं।। 

जैसे सती चढ़ी सत्त ऊपर, पिया की राह में भाई।
पावक देख डरे नहीं मन मे, चिता में बैठ समाई।।

दो दल सम्मुख आए डटे हैं, सूरा लेत लड़ाई।।
कट कट शीश पड़े धरणी में, खेत छोड़ ना जाई।।

छोड़ो तन अपने की आशा, निर्भय हो गुण गाई।
कह कबीर सुनो भई साधो, ना तै जन्म लजाई।।


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