*986 तेरे घट में झलका।।446।।
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तेरे घट में झलकै जोर, बाहर क्या देखै।।
पांचों ऊपर बंध लगाले, ओर पचीसों मोड़।
मन की बाघ सुरत घर लाओ, प्रीत जगत से तोड़।।
देह नगर में अद्भुत मेला, सौदा कर रहे चोर।
आतमराम अमर पद पावै, मग्न रहे निशिभोर।।
एक पलक के फेर में रे, रहे निरंजन पोर।
उल्टा पूठा तज जग झूठा, काहे मचावै शोर।।
प्रेम गली विच साहेब पावै, औऱ नहीं नर ठोर।
पहुंचे साध अगाध अगम घर, बंधे इश्क की डोर।।
कोटि चन्द्र अमी जहां बरसे, निकसे भान करोड़।।
नित्यानन्द महबूब गुमानी, जहां अनहद घनघोर।।
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