*988 घट ही में अविनाशी।।447।।
घट ही में अविनाशी रे साधु घट ही में अविनाशी रे।।
काहे रे नर मथुरा जावे, काहे जाए काशी रे।।
तेरे मन में बसे निरंजन जो बैकुंठ निवासी रे।
नहीं पाताल नहीं स्वर्ग में नहीं सागर जल राशि रे।।
जो जन सुमिरन करे निरंतर सदा रहे तीन पासी रे।
जो तू उसको देखा चाहे सबसे रहो उदासी रे।।
बैठ एकांत ध्यान नित कीजे, होए जोत परकाशी रे।
हृदय में जब दर्शन हो गए शक्ल मोह तम नाशी अरे।।
जोत से जोत प्रकाशी रे अंतर तिमिर विनाशी रे।
ब्रह्मानंद मोक्ष पद पावे कटे जन्म की फांसी रे।।
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