*951 मुखड़ा क्या देखे दर्पण में।।

                              951
मुखड़ा क्या देखे दर्पण में, तेरे दया धर्म नहीं मन मे।।

कागज की एक नाव बनाई, उतरा गहरे जल में।
धर्मी-२ पार उतरगे, पापी डूबे जल में।।

आम की डाली कोयल राजी, मछली राजी जल में।
घर वाली तो घर में राजी, फक्कड़ राजी वन में।।

ऐंठत पाग मरोड़े मूंछें, तेल चुवै जुल्फ़न में।
गली गली की सखी रिझाई, दाग लगाया तन में।।

पत्थर की एक नाव बनाई, उतरा चाहवै छिन में। 
कह कबीर सुनो भई साधो, ये क्या लड़ेंगे रण में।।

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