*854 ये दो दिनका जीवन तेरा फिर क्यों इस पर इतराता है।। 401।।
यह दो दिन का जीवन तेरा फिर इस पर क्यों इतराता है।
यह जीवन है चंद सांसों का फिर क्यों तुम भुला जाता है।।
माटी की तेरी यह काया है नश्वर जग की यह छाया है।
धन वैभव और सुंदर यौवन चलती फिरती यह माया है।
तेरा सारा सपना झूठा है सत धर्म यही बतलाता है।।
पापों सी गहरी का बोधा तेरे कंधों पर जाना है।
अपनी करनी अपने भरनी फिर इतना क्यों दीवाना हैं।
अब तो संभलकर चल बंदे, क्यों जीवन व्यर्थ गंवाता है।।
तू खाली हाथों आया है और हाथ पसारे जाएगा।
अपना जिसको तू मान रहा सब यही पड़ा रह जाएगा।
अपनी ना समझे कि खातिर क्यों जीवन भर दुख पाता है।।
तूं सत्य धर्म को भुला है ना भुला दुनियादारी है।
जो आज आया है दुनिया में कल जाने की भी बारी है।
सुख पाता है वोही दुनिया में, जो परमार्थ को अपनाता है।।
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