*889 मन मार सूरत ने डाटो रे।। 414।।
414
मन मार सुरत ने डाटो रै, निर्भय बनो फकीर।।
माला जपै तो ऐसे जपनी, जैसे चढ़े बांस पे नटनी।
मुश्किल है ये काया डटनी।
डटे तो परले पार।।
जल भरने को चली पनिहारी, सिर पे घड़ा घड़े पे झारी।
हाथ छोड़ बतलावै सारी,
छलकन दें ना नीर।।
गैया चरण गई थी वह में, बछड़ा छोड़ गई भवन में।
सुरत बसै बछड़े के मन मे,
ऐसे साध शरीर।।
कुमोदिनी का जल में वासा, चन्द्रमा की लग रही आशा।
सुन ले रे तूँ, धर्मिदासा,
कह गए दास कबीर।।
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