*914। मनुआ मान रहे कह्यो।।421।।

                 मनवा मान रे कह्यो।
    सतनाम एक सार जगत में भूल क्यों गयो।।
बंद कोठरी बीच अंधेरा नो दस मास रह्यो।
 बाहर आन के भूल गया क्यों जर में लिपट रह्यो ।।
     भांति भांति के भोजन चाहिए, वस्त्र नित नयो।
     घड़ी पलक का दुख अंधियारों क्यों ना जाए सह्यो।।
ना तो तन मन वश में किया तृष्णा ने आन गह्यो।
काम क्रोध की मझधारा में अब क्यों जात बहयो।।
      मान मान मत करें मान जा लंकापति गयो।
      साहेब कबीर के शब्दों से पापीको भी गर्व गयो।।


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