*926 हरि हर भजता नाही रे।।425।।
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हरिहर भजता नाही रे, यह मन भया दीवाना।काम क्रोध मद लोभ मोह का घट में ही कुफराना।।
बाहर बुगला ध्यान लगावे भीतर पाप समाना।
भला बुरा भीतर बाहर का साहब से नहीं छाना।।
सुर असुर ऋषिस्वर लूटे, मुनिवर मार गिराना।
जोगी जति तपी सन्यासी भूले भगत ठिकाना।।
प्रेम पंथ पग धरन न देवें, तजा ज्ञान और ध्याना।
कुमति रूप में यो गिर जावे, जैसे नीर निवाना।।
मन्मुख पंडित मन्मुख मंडित मन्मुख राजा राणा।
नित्यानंद जैसे महबूब गुमानी, गुरुमुख मार्ग जाना।।
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