*920 धीरे धीरे मोड़ तूँ।।423।।
423
धीरे धीरे मोड़ तूँ इस मन को। इस को रे इस मन को।मन मोड़ा फिर डर नहीं, कोई दूर पृभु का घर नहीं।।
मन लोभी मन कपटी, मन है चोर।
कहते आए ये पल पल में और।
बेइमान तूँ नादान तूँ, गफलत ऐसे कर नहीं।।
जप यप तीर्थ सब होते बेकार,
जब तक मन में रहते भरे विकार।
कुछ जान ले पहचान ले, होना है विचलित नहीं।।
जीत लिया मन फिर ईश्वर नहीं दूर,
जान बूझ कर इंसां क्यूँ मजबूर।
अभ्यास से वैराग्य से, कुछ भी है दुष्कर नहीं।।
Comments
Post a Comment