*923 इस ने मैं कैसे समझाऊं।। 425।।

                              
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इस ने मैं कैसे समझाऊं, मेरा यो मन मानता नहीं।।
    एक देव की पूजा मानूँ, दूजा ना ध्याऊँ।
    घट में बसते आप कुदरती, नित उठ दर्शन पाऊँ।।
भाई व्रत करूँ तो पीछे रोऊँ, दोज़ख में जाउँ।
नहीं काम कोय पूजा का, न कोय तीर्थ नहाऊं।।
   वन जाउँ तो कांटे लागैं, दूना दुःख पाऊँ।
   धूना लाऊँ तो जीव जलें रे, कैसे मुक्ति पाऊँ।। 
धर्म करूँ तो फेर देह धारूँ, चौरासी में जाउँ।
अधर्म करूँ तो मिलूं जोत में, लौ में लौ मिल जाऊं।
     कह कबीर सुनो भई साधो, सुरत निरत में नहाऊं।
    इस काया ने छोड़ के रे, अमरापुर चला जाऊं।।

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