*862 मनवा उल्टी तेरी रीति।। 405
मनवा उल्टी तेरी रीत किन्ही परदेसी से प्रीत।।
स्वार्थ के सब बंधु जगत में सुत दारा और मीत।
जीव अकेला आगे जावे कोई ना संगी मीत।।
यह संसार स्वप्न की रचना तुम समझे एक रीत।
घड़ी पलक का नहीं ठिकाना क्या बंधु क्या मीत।।
हरि का भजन करो मेरे प्यारे चल अपने को ही जीत।
ब्रह्मानंद परम पद पावे तू भव जावे जीत।।
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