*922 है कोई मन मूर्ख।।424।।
है कोई मन मूर्ख समझावै।।
यो मन मूढ़ कह्या नही माने, राम भक्ति नहीं भावै।।
प्रेम की बात पिछाने नाही, दसों दिशा उठ ध्यावै।
भाव प्रीत गुरु ज्ञान काण तज, जित बरजू तीत जावै।।
सत्य शब्द से सुख नही माने, आल जाल उठ गावे।
जो धुन लाय ध्यान में राखूं, आतुर अति अकुलावै।।
कब हूं बढ़े आकाश शिखर को, दीर्घ देह बढ़ावै।
पल में होय पवन से पतला, ढुंढ रहूं नहीं पावै।।
विषय विकार डार बुगलों की, नित का संग सुहावै।
मानक मान सरोवर त्यागै, भव जल गोता खावै।।
अस्थिर करत बहुत दिन बीते, चेतन घर नही आवैं।
नित्यानंद महबूब गुमानी, तुम बिन कौन छुड़ावै।।
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