*878 तजो रे मन हरि विमुखन को संग।।411।।

                               411
तजो रे मन हरि विमुख को संग।
जिनके संग कुबध उपजे पड़े भजन में भंग।।

क्या होई पये पान कराए विश नहीं तज़े भुजंग।
कागा कहां कपूर चुगाए स्वान नहाए  गंग।।

खर को कहां अर्गजा लेपन, मर्कट भूषण अंग।।
गज को कहा नहाई सरिता, फिर धरें खेह अंग।।

वाहन पतित बाण नहीं बेधत रितो करें निशंक।
सूरदास की काली कमरिया, चड़े ना दूजा रंग।।

Comments

Popular posts from this blog

*165. तेरा कुंज गली में भगवान।। 65

*432 हे री ठगनी कैसा खेल रचाया।।185।।

*106. गुरु बिन कौन सहाई नरक में गुरु बिन कौन सहाई 35