*888 तेरी दुर्मत कौन मिटावै।।414।।

                              
                              414
तेरी दुर्मत कौन मिटावै रे मन तनै,गुरू भक्ति ना भावै।।

खर पकड़ पौल बीच बांधा, हरी हरी घास चरावै।
शाल दुशाले कितने उढा लो,फेर भी कुरड़ी पै जावै।।

   काग पकड़ पिंजरे में रोक्या, चारों वेद पढावै।
कितने मनखा दाख चुगा लो, काग कर्क पै जावै।।

सर्प पकड़ पिटारे में रोक्या, नाना बीन बजावै। 
कितने दूध पतासे प्यालो, डंक मार डंस जावै।। 

गुरू के वचन में चेला चालै, माँ के वचन में बेटी।
कह कबीर सुनो भई साधो, इस विध दुर्मत मेटी।।

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