869. मन तेरी चाल समझ ना आई।। 408

      मन तेरी चाल समझ ना आई।
पल में उपजे पल में विनसे ज्यों बादल की छाई।।
         लोभ लांगुरा करे सवारी इत उत डाक लगाई।
         दर दर पर फिरे भरमता हाथ कछु नहीं आई।।
काम क्रोध और इच्छा तृष्णा इनमें रहा समाई।
क्षण में दुखी और क्षण में दुखी पल-पल दुविधा दुचिताई।।
    इंद्रियां वश में फस कर रहे बदन की भूल भुलायी।
    मृगा के ज्यों चाल भरे माने ना समझाई।।
झूठा लेना झूठा देना झूठ में रहे लपटाई ।
कभी सत्य ना चित् में लाता, यूं ही उम्र गवाई।।
     सतगुरु ताराचंद जी का नाम दान ले मन को लो दबाई।
    जितने लागे मेल पुराने सतगुरु साबुन से धुल जाएगी।।

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