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वेद प्रकाश शर्मा।।

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Book Hub Saturday, January 9, 2021          Ved Parkash Sharma। list   f no vel । ।       वेद प्रकाश शर्मा जी का जन्म 10 जून 1955 को हुआ था।आग के बेटे उनका प्रथम उपन्यास था जिसके मुखपृष्ठ पर वेद प्रकाश शर्मा का पूरा नाम छापा गया। उसी साल ज्योति प्रकाशन और माधुरी प्रकाशन दोनों ने उनके नाम के साथ  फोटो भी छापना शुरू कर दिया। कैदी नं. 100 उनका सौवाँ उपन्यास था जिसकी बकी 2,50,000 प्रतियां छपने के दावा किया जाता है। इसके बाद उन्होंने 1985 में खुद अपना प्रकाशन शुरू किया: तुलसी पॉकेट बुक्स। उनके कुल 176 उन्यासों में से 70 इसी ने छापे हैं. लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा लोकप्रियता 1993 में वर्दी वाला गुंडा से मिली जिसके बारे में दावा है कि 15 लाख प्रतियां पहली बार छापी गई थीं।  1985 में उनके उपन्यास "बहू मांगे इंसाफ" पर शशिलाल नायर के निर्देशन में "बहू की आवाज" फिल्म बनी। इसके दस साल बाद सबसे बड़ा खिलाड़ी (उपन्यास लल्लू ) और 1999 में इंटरनेशनल खिलाड़ी बनी। मजेदार बात यह कि उन्होंने बाद की दो फिल्मों का स्क्रीनप्ले और डायलॉग खुद लिखे लेकिन सिर्फ फिल्म के लिए कोई कहानी कभी नहीं लिखी।

*1558. हो संतो का सत्संग वहां नित जाइए।

हो संतो का सत्संग वहां नित जाइए।         उप का आत्मज्ञान राम गुण गाइए।। संतोके संग प्रीत पले तो पा लिए।                 राम भजन में देह गले तो गालीये।। यह तन ऐसा जान बालू की भींत है।                बूंद पड़े गल जाए अधर की नीव है।। यह तन ऐसा जान कि बर्तन कांच का।                लगे ठोकर फूट जाए भरोसा ना सांस का।। वह सभा जलजाए कथा नहीं रामकी।               बिन नोशे की बारात कहो किस काम की।। मलते तेल फुलेल काया बड़ी चाम की।                मर्द गर्द में मिल जाए दुहाई सतनाम की।। हाथ सुमरनी बगल कतरनी कांख में।                आग बुझी मत जान दबी है राख में।। सूखेंगे सरवर ताल कमल मुरझाएंगे।                 तड़पैं हमारे सब जीव,  काल भख जाएंगे                

*1557. समर्थ दीनदयाल कृपा मो पे कीजिए।।684।।

     समर्थ दीनदयाल कृपा मो पे कीजिए।      मांगू दोऊ कर जोड़ नाम बक्स दीजिए।। भक्ति दान मोहे दीजिए, और कुछ ना चाहूं। प्रेम प्रतीत आधार और सुख ना लहू।      मंगल मूल आधार सफल दर चाहूं      दर्शन चरण आधार प्रेम चित् लावहुँ ।। मैं अती नींच निकाम सूरत मेरी ना चढ़ी। अब के लिए उभर शीश चरणों धरी।।     पदम दास पद सार, वेद दर्शाइए।      लीला चरण विलास, चित् ठहराइए।।

*1556. जागो रे माया के।।683।।

                                683 जागो रे माया के लोभी, सद्गुरु चरणों लाग रे।। जो सुमरै सो हंस कहावै, कामी क्रोधी काग रे। भर्म मत भोवरा विष के बन में, चल बेगमपुर बाग रे।। कुब्द्ध काँचली चढ़ी है चित्त पे, हुआ मनुष्य से नाग रे। सूझे नाही सजन सुख सागर, बिना प्रेम वैराग रे।। उम्दा चौला रत्न अमोला, लगै दाग पे दाग रे। दो दिन की गुजरान जगत में, क्यो जले बिरानी आग रे।। तन सराय में जीव मुसाफिर, करता बहु अनुराग रे। रैन बसेरा कर ले डेरा, अजर हुए उत लाग रे।।   उठ सवेरा भरा तमाखू, फूटे तेरे भाग रे।  राम भजा ना सुकर्म कीन्हा, क्या जाग्या निर्भाग रे।। शब्द सैन सद्गुरु की पिछानी, पावै अटल सुहाग रे। नित्यानन्द महबूब गुमानी, पूर्ण प्रगट भाग रे।।

*1555. संत सेन को समझ भूल में क्यों भूलियां।

संत सेन को समझ भूलमें क्यों भूलियां।         यह जग मिथ्या जान इसीमें क्यों डोलिया।। मनुष्य जन्म अनमोल काम कर लीजिए।               सत्संग अमृत धार शरबत हो पीजिए।। इब के चुके चाल ठोर नहीं पाएगा।                यह जन्म बड़ा अनमोल फिरनहीं आएगा।। तीन गए तेरे बीत चौथा आएगा।                चेत ले न मूर्ख जन्म अकारथ जाएगा।। सतगुरु ताराचंद संत, वक्त रुक्का दे रहा।                बैठो शब्द की नाव टिकट को दे रहा।।

*1554 सुन सतगुरु की तान नींद नहीं आती।।

सुन सतगुरु की तान नींद नहीं आती। हे विरह में सूरत गई पछाड़ी खाती।।             तेरे घट में है अंधियार भरम की रा।             तेरी हुईना पिया से भेंट रही पछताती ।। सखी सेन बैन की बात ढूंढ क्यों ना लाती। तेरे पिया बसे सतलोक नाम गुण गाती।।             तेरी आवा गमन की त्रास सभी मिट जासी।             छवि देखत भाई निहाल, काल मरझासी।। सखी मानसरोवर ताल हंस जित पाती। कहे कबीर विचार सीप मिले स्वाती।।

*1553 अखंड साहिब का नाम और सब खंड है।।

अखंड साहिब का नाम और सब खंड है। खंडित मेहर सुमेर खंड ब्रह्मांड है।।        थिर ना रहे धन धाम, सो जीवन द्वंद है।         लख चौरासी जीव पड़े यम फंद हैं।। जा का गुरु से हेत सोई निर्बंध है। उन साधक के संग सदा आनंद है।।         चंचल मन स्थिर रख तब ही भल रंग है।         उलट निकट कर जीव बहे अमृत गंग है।। दया भाव चित् राख, यही भक्ति का अंग है। कहे कबीर चित चेत, सो जगत पतंग है।।

*1552 संत समागम होय तहां नित जाइए।।

संत समागम होय, तहां नित जाइए। हीय मैं उपजे ज्ञान राम गुण गाइए।।              ऐसी सभा जल जाए कथा नहीं राम की।                बिन नोशे की बारात, कहो किस काम की।। संतों सेती प्रीत पले तो पा लिए। राम भजन में देह गले तो गालिये।।             यह मन मूढ़ गवार मरे तो मारिए।              कंचन कामनी फंद, करें तो टारीए।। चल रही पछवा पवन चिन्ह उड़ जाएंगे। हर्ष कही बाजिंद, मूर्ख पछताएंगे।।

1551 सतगुरु सरने आए राम गुण गाइए।

सतगुरु शरण में आए राम गुण गाइए। तेरा अवसर बीता जाए फिर पछताइए।।               झूला तो नरक द्वार, मांस ना बीच रे।              तूने किया था कोल करार ,भूल गया मीत रे।। लगा तेरे लोभ अपार माया के मद का। बंद गया रे बंधन अपार नाम तू ना ले सका।             माया में अंधा हुआ, मृग जल डूब रे।             तू तो भटकत फिरे गवार माया के रूप रे।। मोह को करके मैल, श्वान ज्यों भोंक रहा। तू तो शुद्ध स्वरूप विसार, चौरासी लाख फिरा।।        यह जग है मूड अज्ञान कार शुद्ध ना करें।        भानी नाथ बिनानाम, कार्ज कैसे सरे।।

*1550. जो तूँ पिया की लाडली।।681।।

                                                                  681 जो तूँ पिया की लाडली री, अपना कर ले री। कलह कल्पना मेट के, चरणों चित्त ले री।।    पिया का मार्ग कठिन है, खांडे की धारा।    डगमग हो तो गिर पड़े, नहीं उतरे पारा।। पिया का मार्ग सुगम है तेरी चाल अमेढा। नाच न जाने बावली री, कह आंगन टेढा।।     जो तूँ नाचन निकसी फेर घूंघट कैसा।     घूंघट के पट खोल दे, मत करै अंदेशा चंचल मन इत उत फिरैं, पतिव्रता जनावै। सेवा लागी नाम की, पिया कैसे पावै।।     खोजत ही ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि देवा।     कह कबीर विचार के, करो सद्गुरु सेवा।। 

1549 प्रीत उसी से कीजिए जो औड निभावै।

प्रीत उसी से कीजिए जो औड़ निभावे। बिना प्रीत का मानवा कहीं ठोड़ ना पावे।।         नाम स्नेही जब मिले तब ही सत पावे।         अगर अमर घर ले चलो भव नहीं आवे।। जो पानी दरियाव का, दूजा ना कहावे।  हिल मिल एक हो रहे सतगुरु समझावे।।         दास कबीर विचार के, कह कह समझावे।         आपा मेटे साहब मिले, तब वह घर पावे।।

*1548. प्रीत लगी तुम नाम की।।680।।

                                  680 प्रीत लगी तुम नाम की, पल बिसरूं नाही। नजर करो अब मैहर की, मिलो मोहे गोसाई।। बिरहा सतावे है जीव यो, तड़फे मेरा।  तुम देखन का चाव है, प्रभु मिलो सवेरा।। नैना तरसे दर्श को, पल पलक न लागे। दर्द बंद दीदार का, निशि वासर जागे।। जो अब के प्रीतम मिले विसरू नहीं न्यारा। कहे कबीर गुरु पाईया प्राणों का प्यारा।।

*1546. औऱ बात थारै।।679।।

                               औऱ बात थारै काम ना आवै, रमता सेती लाग रे। क्या सोवै गफलत के मा, जाग जाग उठ जाग रे।।     तन सराय में जीव मुसाफिर, करता रहा दिमाग रे।     रैन बसेरा करले न डेरा, ऊठ सवेरा त्याग रे। उम्दा चौला रत्न अमोला, लगे दाग पे दाग रे। दो दिन की गुजरान जगत में, क्यों जले वीरानी आग रे।    कुब्द्ध कांचली चढ़ी है चित्त पे, हुआ मनुष्य से नाग रे।    सूझत नाही सजन सुख सागर, बिना प्रेम वैराग्य रे।। हरि सुमरै सो हंस कहावैं, कामी क्रोधी काग रे। भरमत भंवरा विष के वन में, चल बेगमपुर बाग रे।।    शब्द सैन सद्गुरु की पिछाणी, पाया अटल सुहाग रे।    नित्यानन्द महबूब गुमानी, प्रगटे पूर्ण भाग रे।। 

*1545. तन सराय में जीव मुसाफिर।।679।।

                              679 तन सराय में जीव मुसाफिर करता रहे अवघात रे। रैन बसेरा करले न डेरा, उठ सवेरा त्याग रे।। यह तन चोला रतन अमोला लगे दाग पे दाग री। दो दिन की गुजरान जगत में, क्यों जले बिरानी आग रे।। कुब्ध काचली चढी है चित्त पर हुआ मनुष्य से नाग रे। सूझत नाही सजन सुख सागर, बिना प्रेम वैराग रे।। सरवण शब्द बूझ सतगुरु से, पूर्ण प्रगते भाग रे कह कबीर सुनो भाई साधो, पाया अटल सुहाग रे।।

*1544. दुविधा को कर दूर धनी को सेव रे।।679।।

                              679 दुविधा को कर दूर, धनी को सेव रे। तेरी भवसागर में नाव सूरत से खेव रे।। सुमर सुमर सतनाम चिरंजी जीव रे। खांड नाम बिन मूल घोल क्यों ना पीव रे।। काया में नहीं नाम धनी के खेत का। बिना नाम किस काम मटीला डला रेत का।। ऊंची कचहरी बैठे जो न्याय चुकावते।   गए माटी में मिल नजर नहीं आवते।। तुम माया धन-धाम देख मत फूल रे। चार दिनों का रंग मिलेगा धूल रे।। बार-बार यह देह नहीं है वीर रे। चेता जा तो चेत न्यू कहत कबीर रे।।

*1543. बख्सो न थारी याद याद बिना हम दुखी।।678।।

बक्सों ना थारी याद याद बिना हम दुखी। जैसी दोहागिन नार पिया बिन ना सुखी।।            सुरा बिना सुनी धाङ,फौज राजा बिना।            जन्म अकारथ जाए साहब थारे नाम बिना।। बाढ़ बिहूना खेत सवायज हरिया चरे। जल बिन तड़पे मीन पपीहा प्यासा मारे।।        जीतादास अधीन आश थारी करें।        घीसा बंदी छोड़ कार्ज तुमसे सरे।।

*1542. हो हंसा भाई देश पूर्व ले जाना।।674।।

            हो हंसा भाई देश पूर्वले जाना।। विकट बाट है रहा रपटीली कैसे करूं पयाना। बिना भेदी भटक के मरियो, खोजी खोज पयाना।।       वहां की बातें अजब निराली अटल अवीचल अस्थाना।       निराकार निर्लंब विराजे रंग रूप की खाना।। चंद्र चांदनी चौक सजा है फूल खिले बहू नाना। रिमझिम रिमझिम मेघा बरसे मौसम अजब सहाना।।     मानिक मोती लाल घनेरे, हीरो की वहां खाना।      जो माल कोई गिनती नहीं अपरंपार खजाना।। नूर नगरिया कोस अठारह ता का बांध निशाना। अखंड आवाजा मोहन बाजा वहां का पुरुष दीवाना।।     काहे ताराचंद समझ कंवर अमर यह देश बेगाना।      ना कहीं जाना ना कहीं आना, आपे बीच समाना

*1541. मेरे हनसा भाई यू होता है आत्मज्ञान।।

मेरे अंसा भाई न्यू होता है आत्मज्ञान।। संकल्प विकल्प मनके छोड़ो, तज देना अभिमान। गुरु वचन पर डट के चालो कट जा पाप तमाम।। ब्रह्म मुहूर्त में सोकर जागो फिर करना चाहिए स्नान। आसन उकड़ू लाके बैठो सूरत चडे आसमान।। छठे चक्कर से नाम उठाओ रखो बंद जुबान। थोड़ा सा तुम भोजन जीमो खूब लगेगा ध्यान।। धीरे-धीर आगे चालो, पहुंचो पद निर्वाण। वहां परियोजन तख्त पिता का, वहां पर मौज महान।। उदर समाना टुकड़ा जीमो, तज दो रस तमाम। पांच विषयों को वश में रखें वही है बलवान।। सच्चे सतगुरु हमको मिल गए राम सिंह अरमान। ताराचंद से भोला भाला हरदम जपते नाम।।

*1540. फिर तू धोखा खावेगा जब लूटे हंस रस्ते में।।

                                673 फिर तू धोखा खावेगा, मत लूटे हंस रस्ते में।। नर देही की कदर ना जानी ना संतो की बात पहचानी। माया मद में रहा टूलता, उम्र चली गई सारी।                                  वक्त फिर हाथ न आवेगा।। काम क्रोध मद लोभ ने घेरा, बिन सतगुरु कोई ना तेरा। यह संसार जुए की बाजी हार जीत एक सार।                                पूंजी यहां पर खोवेगा।। कनक कामिनी से नाता जोड़ा इंद्रियों से मन ना मोड़ा। अंत समय में पकड़ा जागा कोई ना आवे पास।।                               फिर तू खड़ा लखावेगा।। काया माया यह नहीं तेरी क्यों करता है मेरा मेरी। प्रकाशनंद कह गुरु भजन बिन, आवेगा यम लेन।                              फेर तू बैठा रोवेगा।।

1539. काया रे तेरी पावनी, हंस बटेऊ लोग।।

          काया रे तेरी पावनी रे बंदे, हंस बटेऊ लोग।। जो जन्मा सो आया मरण में, सभी काल के भोग। आपे ने भी मरना होगा औरों का के शोक।।         बालपन हंस खेल गंवाया जवानीमें भोगै भोग।         बूढ़ा हुआ कफ वायु ने घेरा, काया मेंहो गया तेरे रोग।। भरी जवानी यूं फिरता ज्यों जंगल का रोज। कालबली का लगे तमाचा, टोह्या ना पावे तेरा खोज।।        राम भजन में आलस माने, कुब्ध कमावे रोज।        संत देख तेरा माथा ठनके, मरा पाप के बोझ।।

*1537. चुग हंसा मोती मानसरोवर ताल।।672।।

                                672 चुग हंसा मोती मानसरोवर ताल।। सात समुंदर पुर रहे रे, उठे कुदरती झाल। इनको समझ के तू नहा ले बिल्कुल मत करें टाल।। आगे पर्वत गुफा सुंदरी देखत भए निहाल। वहां मोती सदा निपजते, कभी ना पड़ता काल।। सूरत पलट के देख प्यारे खिला अमोलक लाल। चांद सूरज वहां दोनों ना ही जले कुदरती मशाल।। अजब रोशनी देखी कोन्या,न्यू ए बिता दिए साल। कौवा काग गिद्ध के जंग में न्यू ए उम्र दई गाल।।

*1536 निर्गुण अजर अमर रे हंसा।।671।।

सरगुन मरण जीवन वाली शंसय, निर्गुणकी गम कर ले हंसा               निर्गुण अजर अमर रे।। जन्म मरण से न्यारे हंसा, ना इनपे कालचक्र रे। मरण जीवन में दुनिया सारी, साध की सूरत शिखर रे।।      धरती आकाश से साधु ऊंचे, इनकी तेज मंजिल रे।।      पवन से आगे संत चलत हैं, इनका तेज सफर रे।। ब्रह्मा विष्णु शिवजी तीनों इनको भी नहीं खबर रे। कोई कोई साधू लखे हैं वाणी, वाणी बहुत जबर रे।।       हद बेहद से परे बसत है, पर वाणी से पर रे।       कह रविदास वे संत ना मरते रहते अमरापुर रे।।

1535 हंसा गहो शब्द टकसार, अमर घर खोजियो भाई।।

हंसा गहों शब्द टकसार, अमर घर खोजियो भाई।। भवसागर की धार में बहा जाए संसार। संत तमाशा देखते, वे गुरु भज उतरे पार।।       सुरा रण में जाए के किसकी देखें बाट।       आगे को पग धरे चाहे आप कटे चाहे दे काट।। अलल पंख का जतला वह छुट के करें विचार। सूरत बांध चेतन हुआ वो जाए मिला परिवार।।        अलल पंख आवे नहीं रे सुत अपने को लेन।        उलट समाना देख ले रे यह संतों की सैन।। हरी सा हीरा छोड़के, करें और की आश। वे नर यमपुर जाएंगे रे, सत्य भाखे रविदास।।

*1534. काया नगरी में हंसा बोलता।।671।।

                                                                   671 काया नगरी में हंसा बोलता रे।। आप ही बाग और आप हैं माली।                         आप ही फूल तोड़ता।। आप डांडी आप पलड़ा,                         आप ही माल तोलता।। आप गरजे आप ही बरसे,                         आप ही हवा में डोलता।। कह रविदास सुनो भई साधो,                           पूरे को क्या तोलता।। 

*1533. कर मेरे हंसा चेत, सतगुरु हेला दे रहे।। राधा स्वामी।।670।।

                               670 कर मेरे हनसा चेत सतगुरु हिला दे रहे।। संत रूप में सतगुरु आए दिया अगम का भेद। सो गए हनसा नींद भरम की एक ना लागी टेक।। जी हां रात का ड्यूटी खजाना पहचाने कंकर रेत। बिना संभालने उजड़ गया रे भोंदू सुंदर काया खेत।। घर का देव मनाया को ना पूजा भूत प्रेत। सत को छोड़ असत्य को पकड़े, डूबेगा कुटुंब समेत।। सुरती शब्द का योग साध, सुन संतों का संकेत। सतगुरु ताराचंद में भेद बताया अब क्यों करें सै पछेत।।

*1532. चल हंसा वही देश जहां तेरे पीव़ बसे हैं।।670।।

         चल हंसा वही देश जहां तेरे पीव  बसे हैं।। नो दस मूल दसों दिसी खोले सुरती गगन चढ़ावे। चढ़े अटारी सूरत संभाली फिरना भवजल आवे।।        जगमगज्योत गगन मैं झलके बिरह राग सुनावे।        मधुर मधुर अनहद बाजे, प्रेम अमृत झड़ लावे।। ठाडी मुक्ति भरे जहां पानी लक्ष्मी झाड़ू लगावे। अष्ट सिद्धि खड़ी कर जोड़ ब्रह्मा वेद सुनावे।।       जग में गुरु बहुत कनफूका, पानी लाई बुझावे।        कहे कबीर सोई गुरु पूरा, कंत ही आन मिलावे।।

*1531. चल हंसा उस देश जहां कभी मौत नहीं।।670।।

                            670 चल हंसा उस देश जहां कभी मौत नहीं।। हर पल भय यहां मौत का रहता,            अरे कोई मौत का दर्द है सहता।                   रंक हो चाहे नरेश अमर कोई जोत नहीं।। सच और झूठ की रहे लड़ाई, देख के हंसता काल कसाई।              ठीक वक्त पर केस दया दिल होत नहीं।। मां भी रोए बेटी भी रोए, पूत अनेकों हमने खोए।            करें श्मशान में पेश, पूछते गोत नहीं।। दास बिजेंदर कभी ना भूलना अमरपुर से अब है मिलना।          लगे  काल की ठेस भजन कर सोच नहीं।।

*1530.. क्यों पीवे तूं पानी हंसनी ।।669।।

                                669 क्यों पीवे तू पानी हंसिनी तो पी ले।। सागर खीर भरा घट भीतर पियो सुरती तानी। जग को जार धंसो नभ अंदर, मंदिर परख निशानी।। गुरु मूर्ति तू धार है मन के संग क्यों फिरत निमांनी।। तेरे काज करें गुरु पूरे सुन ले अनहद वाणी।। कर्म भरम वश सब जग बोरा तू क्यों होती दीवानी। सूरत संभाल करो सतसंगत क्यों विश अमृत सानी।। तेरा धाम अधर में प्यारी क्यों थारे संग बंधानी। जल्दी करो चलो ऊंचे को राधा स्वामी कहत बखानी।।

*1529. सकल हंस में राम हमारा।।669।। गुरु नानक।।

                                   669 सकल हंस में राम हमारा राम बिना कोई धाम नहीं। अखंड ब्रम्हांड ज्योत वसा राम को समरो दजा नहीं। तीन गुणों पर तेज हमारा पांच तत्व में ज्योति जगी।। जिनका उजाला चौदह, लोक में सूरत डोर या स्वास चढ़ी।। नाभि कमल से निर्तख लेना हरदे कमल में फिरे मनी। हीरा मोती लाल जवारा परम पदार्थ कोश आंटी। आधा मोती निरखत लेना काम धनी से म्हारी धनी लगी।। हरिजन हो तो घाटी में गैरों बाहर शहर में भटको मत। गुरु प्रताप वरने नानक शाह भीतर यह बोले दूजा नहीं।।

*1528. है सन्त समागम सार।।669।।

                                                                                                        669 है सन्त समागम सार, हंस कोय आवैगा।          हो भँवसागर से पार, ध्यान जो लावैगा।। लाख वर्ष जो तप भी करले,चार धाम चाहे तीर्थ फिर ले।          तप करले वर्ष हज़ार, भर्म नहीं जावैगा।। बिन सत्संग बहुतेरे भटके, शेख फरीद कुएँ में लटके।          फिर भी न पाया पार, कर्म फल पावैगा।। करते साहब ना देखा देखी, पहर भगवां हुए भेखा भेख़ी।        न्यू ना मिलता करतार, बहुत पछतावैगा।।  

*1527. . हँसों का एक देश है।।668।।

                                                             668 हँसों का एक देश है रे, वहाँ जात न कोई। काग कर्म ना छोड़ सकै रे, कैसे हंसा होई।।             हंसा नाम धराय के रे, मन बगुला फूला।             बोलचाल में ठंड सै रे, काया भूला।। मानसरोवर का रूप रे, बगुला नहीं जानै। जिनका मन मुलताई में रे, वो कैसे मानै।             हंस बसै सुखसागरा रे, बगुला नहीं आवै।             मोती ताल को छोड़ के रे, नहीं चोंच चलावै।। हंस उड़ै हंसा मिले रे, बगुला भया न्यारा। कह कबीर उड़ ना सकै रे, बगुला दीन बिचारा।। 

*1526. जिंदगी में हजारों का मेला लगा।।668।।

                                668 जिंदगी में हजारों का मेला लगा।                  हंस जब भी गया तो अकेला गया।। ना वह राजा रहे ना वह रानी रही,           सिर्फ कहने को उनकी कहानी रही।                        साथ मरघट से आगे कोई ना गया।। कोठी बंगले बने के बने रह गए, रिश्ते नाते लगे के लगे रहे।           प्राण राम जब निकलन लागे,                           उलट गई दोनों नैन पुतरिया।। अंदर से जब बाहर लाए,            छूट गई सब महल अटरिया।                           साथ रुपइया देना गया।।

1525. डाट्या ना डटीगा रे

डाटा ना डटेगा रे रोक न रुकेगा रे,  हंसा पावना दिन चार।। मंदिर में चोरी हुई रे , हड़ा लखीना माल। पैड़ खोज चला नहीं रे, या टूटी नहीं दीवार।।        फूंक धवन से बंद हुई रे, ठंडे पड़े अगार।        आहरन का संशय मिटा रे , लद गए मीत कुम्हार।। बीन बजन से रह गई रे टूटे तीर्गुण तार। बीन बिचारी क्या करें जब गए बजावन हार।।        हाथी छूटा ठान से, कस्बे गई पुकार।        दस दरवाजे बंद पड़े यो निकल गया सरदार।। चित्रशाला सूनी पड़ी रे, उठ गए साहूकार।  तेरी गलीचे न्यू पड़े रे, ज्यों चोपड़ पर सार।।        हाड जले ज्यों लकड़ी रे केश जले ज्यों घास।        जलती चिता ने देख के हुआ कबीर उदास।।

*1524. मेरे हंसा परदेसी जिस दिन तो उड़ जाएगा।।667।।

                                   667 मेरे हंसा परदेसी जिस दिन तो उड़ जाएगा।         तेरा प्यारा यह पिंजरा यहां जलाया जाएगा।। पिंजरे को तो सदा सभी ने पाला पोसा प्यार से। खूब खिलाया और खूब पिलाया रखा इसे संभाल के।         हो तेरे होते इसको नीचे सुलाया जाएगा।। तेरे बिना तरसती आंखें रहना चाहती साथ में। तेरे बिना ना खाती खाना तू ही था हर बात में।        तेरे पूछे बिना ही सारा काम चलाया जाएगा।। रोए थे तो पर थोड़े दिन तक, भूल गए फिर बात को। भाई हद से ज्यादा इतना ही कहना करवा देंगे वह याद को।           हलवा पूरी खा कर तेरा दिवस मनाया जाएगा।। तुझे पता है अरे जो कुछ होना फिर भी क्यों ना सोचता। मूर्ख वह दिन भी आएगा पड़ा रहेगा नोचता।           जन्म अमोलक खो के प्राणी, फिर पछताएगा।।

1523 सुख सागर में आए के मत जाए प्यासा।।

सुखसागर में आए के मत जाए रे हंसा प्यासा।।     गगन मंडल में आमिरस बरसे पीले स्वासम सासा।     धन्ना ने पिया सुदामा ने पिया और पिया रविदासा।। ध्रुव ने पिया प्रहलादने पीया, मिट गई मन की त्रासा।। गोपीचंद भरथरी पिया, हुआ शब्द प्रकाशा।।      शबरीने पिया कमांली ने पिया पी गई मीराबाई खासा।।     कहे कबीर प्रेम रस पियो थारी पूर्ण हो जाए आशा।।

*1522. देश वीराना रे हंसा देश वीराना।।666।।

                                667 देश विराना रे हंसा देश विराना।         नहीं है ठिकाना अपना देश बेगाना।। जितने दिन का है दाना पानी उतने दिन अरे राजा रानी।      आखिर को ना कुछ आनी जानी, वापस जाना रे हनसा।। सोच समझ के तू काट बावले, मन की झाल ले डांट बावले।             दुनियादारी है हॉट बावले मोल चुकाना रे हंसा।। मत ना राख तुम रूख नाटन में, सुख मिलेगा सुख बाटन में।             लाभ रहेगा रे हंस काटन में, हो जा स्याना रे हंसा।। रीत रीत से ने जीत जगत ने भूलना मत ना रे अपने अगत ने         ओम छोड़ तू लालच लत ने ना रे उलहाना रे हंसा

*1521. न्हा हंसा न्हा हंसा।।666।।

                                666                                न्हा हंसा न्हा हंसा, घटमें अड़सठ धार तूँ मलमल न्हा हंसा।। विषय गन्ध की चढ़ रही गारा, मैला ढूंढ बना लिया सारा।                  गुरू मुख डुबकी ला। तूँ मलमल न्हा।। गाफिल नींद नशे ने घेरा, लुट रहा ढूंढ तनै ना बेरा।                     तूँ चेतन तार बजा हंसा।। ठाले शस्त्र गुरु ज्ञान का, करले सुमरन रामनाम का।                         यो अवसर चुका जा।। मूर्ख बदी करन तैं डरले, कुछ तै कालबली तैं डर ले।                      तनै  एक दिन खा।। धर्मराज की लगै कचहरी, देगा कौन गवाही तेरी।                      मिलती तनै सजा।। रामकिशन या तेरी मजूरी, हरि भजन से होगी पूरी।                       ना वृथा जन्म गवाँ।।

*1520. मत लूटे हंस रस्ते में।।665।।

                               665 मत लूटे हंस रस्ते में, उड़े तनै कौन छुड़ावेगा। आदम देही धार के तू, गया ईश्वर ने भूल। ओछे मंदे काम करें तने, खो दिया ब्याज और मूल।                                गुरु बिन न्यूए जावेगा। बाजी खेली पाप की अरे, पोह पे अटकी सार। सत का पासा फेंक बावले, उतरे भव जल पार।                                गुरु बिन धक्के खाएगा।। विषयों में तू लगा रहे और पड़ा रहे बीमार। सिर पे गठरी पाप की रे, डूबेगा मझधार।                                कर्म ने कडे छुपाएगा।। कृष्णा में तू लगा रहे तन नहीं धर्म की जान। मन विश यू में लगा रहे तेरी कुत्ते बरगी बान।                              इस मन ने कब समझाएगा।। झोली से झगड़ा हुआ रे  पच-पच मरा जहान। कह कबीर सुनो भाई साधो, धर के देखो ध्यान।                              भजन बिन खाली जावेगा।।

*1519. हंसा ये पिंजरा नहीं तेरा।।665।।

                                                              665 हंसा ये पिंजरा नहीं तेरा।       माटी चुन चुन महल बनाया, लोग कहें घर मेरा।       ना घर तेरा ना घर मेरा, चिड़िया रैन बसेरा।।  बाबा काका भाई भतीजा, कोय न चले सङ्ग तेरा। हाथी घोड़ा माल खजाना, पड़ा रहा धन तेरा।।       मातपिता स्वार्थ के लोभी, कहते मेरा मेरा।       कह कबीर सुनो भई साधो, एक दिन जंगल डेरा।। 

*1518. जाएगा हंस अकेला तू राम नाम रट भाई है।।665।।

                                  665 जायेगा हंस अकेला तुम राम नाम रट भाई रे।        झूठा यह जगत झमेला तू राम नाम रट भाई रे।। सोच समझ इंसान बावले, काला काला करे गुमान बावले।                        यह तन माटी का ढेला।। पल में तेरा घमंड तोड़ दे, माया की बावले मरोड़ छोड़ दे।                          तेरे साथ ना जावे धेला।। राम नाम सुखदाई रे, तेरी क्यों ना समझ में आई रे।                          दो दिन का जग में मेला।। मुक्ति का कोई जतन कर ले, ईश संग तू राम सुमर ले।                          तू बन जा भगत अलबेला।।

*1517. कर ले भाई हंसा।।664।।

*1516. रे हंसा भाई हो जा न।।664।।

                                                              664 रे हंसा भाई हो जा न नाम दीवाना।।    हर पल सुमरन करो नाम का, गुरु चरणों चित्त लाना।    एक आश विश्वास गुरु का, हरदम धर ले ध्याना। ध्यान धरो अधर आंगन में, जगत बहुत बिसराना। मनसा वाचा कर्म साथ ले, पावै पड़ निर्वाणा।   नाम नैया चढ़ के उतरै, हरदम रहे मस्ताना।   पाँच तत्व का छोड़ साथ दे, छोड़ भरम भरमाना। शील सत्य क्षमा ढाल हाथ ले, जीतो जंग मैदाना। आपै अंतर आप बैठ के, निशदिन रहो हरषाना।।   सद्गुरु ताराचंद समझावै कंवर ने, कर किया बौराना।   नाम अमरफल कल्पतरु है, सहज ही नाम कमाना।।    

*1515. हनसा कौन लोक के वासी।।664।।

हंसा कौन लोग के वासी।। कौन लोक से आया अंसा कौन लोग को जासी। क्या-क्या कॉपी उस लोग की हमको कहो जरा सी।। अमर लोक से हम आए हैं जहां पुरुष अविनाशी। दुख सुख चिंता नहीं वहां पर ना कोई शौक उदासी।। दीया बाती चांद सूरज सदा वहां उजियासी। बीन बांसुरी मिरदंग बाजे, छः ऋतु बारह मासी।। हीरे पन्ने लाल वहां पर अर्पण सूर्य प्रकाशी। अगम अपार हवा वहां की करें आराम काया  सी।। सतगुरु ताराचंद समझा में कुंवर ने अंदर की करो तलाशी लोक हमारा।।।।

*1514. रे हंसा भाई देश पुरबले जाना।।663।।

                               663 रे हंसाभाई देश पूरबले जाना।। विकट नाट रपटीली कैसे करूं पयाना। बिन भेदी भटक के मरीयो, खोजी खोजी सयाना।। वहां की बातें अजब निराली अटल अविचल अस्थाना। निराकार निर्लम्ब विराजे रूप रंग की खाना।। चंद्र चांदनी चौक सजा है फूल खिले बहू नाना। रिमझिम रिमझिम मेघा बरसे, मौसम अजब सुहाना।। मानिक मोती लाल घनेरे हीरो की वहां खाना। तोल मोल कोई गिनती नहीं अपरंपार खजाना।। नूर नगरिया कोश अठारह, ता का बांध निशाना। अखंड आवाजां मोहन बाजे, वहां का पुरुष दीवाना।।

*1513. क्यूँ चाल चलै सै काग की।।663।।

                                                                   663 क्यूँ चाल चलै सै काग की, मनै हंस जान के पाला।। मनै पाला हंसे का बच्चा, खूब चुगाया मोती सच्चा। तूँ निकलाहै मति काकच्चा, इब समयआया तेरे भाग का।                            रे तेरा मन विष्टा पै चाला।। फर दे आवै फरदे उड़जा, सन्त शब्द फिर उल्टा पडजा। घोड़ा छोड़ गधे पे चढजा, तेरी नीत हुई हराम में।                           तनै मुँह करवा लिया काला।। मनै बाग लगाया नामी, इस कारण आगी खामी। लाया आप कटाई जब तेरी, नियत हुई हराम।                         मैं रह गया पेड़ निराला।। मनै दूध पिलाया प्यारा, इस कारण लाग्या खारा। जियादास कहदोष हमारा, तेरीशक्ल लगै जहरी नाग की।                       तूँ बन गया डँसने आला।। 

*1512. हंसा चाल बसों उस देश।।662।।

                                 662 हनसा चाल बसों उस देश, जहां के वासी फेर ना मरे।। अगम निगम दो धाम, वास तेरा परै से परे। वहां वेदा की भी गम ना, ज्ञान और ध्यान भी उड़े।। जहां बिन धारणी की बाट, पैरा के बिना गमन करें।  उड़े बिन कानां सुन लेय, नैना के बिना दर्श करें।  बिन देहि का एक देव,  प्राणों के बिना सांस भरे।  जहां जगमग जगमग होए, उजाल दिन रात रहे।। त्रिवेणी के घाट एक, दरियाव बहे। जहां संत करें स्नान, दूजा तो कोई नहाए ना सके।।  जहां नहाए तैं निर्मल हो, तपन तेरे तन कि बुझे।  तेरा आवागमन मिट जाए, चौरासी के फंद कटे।। कहते नाथ गुलाब, जाए अमरापुर वास करें।  गुण गा गए भानी नाथ, लगन सबकी लागी ए रहे।।

*1511. हम हंसा उस ताल के।।662।।

                                         662      हम हंसा उस ताल के जी, जहां मानक लहरी।।     हंसा तो मोती चुगें, बुगला मछली का वैरी।। है कोय देशी म्हारे देश का, परखनिया जोहरी। त्रिवेणी की धार में, सुरतां न्हा रही मोरी।।     पाँच तत्व की हेली बनी रे, बिच रख दई मोरी।     सुन्न शिखर में भया चांदना,लगी सोहंग डोरी।। चार चकुटे बाग में जी, बीच रख दई मोरी। बेल अंगुरां लाग रही, खिली केशर क्यारी।।     बारामासी फल लगें, मीठा स्वाद चकफेरी।     ज्ञान शब्द की झाल रे, म्हारी नागिन जहरी।। 

*1510. भज हंसा सत्तनाम।।662।।

                            662 भज हंसा हरि नाम, जगत में जीवन थोड़ा रे।।     काया आई पावनी रे, हंस आए महमान।     पानी केरा बुलबुला, तेरा थोड़ा सा उनमान।                               बना कागज का घोड़ा रे।।     मातपिता भाई सुत बन्धु, और तेरी दुल्हन नार।    मिले यहीँ बिछड़े सभी रे, ये शोभा दिन चार।                              बना दो दिन का दौड़ा रे।। सोऊं सोऊं क्या करे रे, सोवत आवै नींद। यम सिरहाने यूँ खड़ा रे, ज्यूँ तोरण पे बीन।                             खिंचा जैसे ताजी घोड़ा रे।। राम भजन की हंसी करते, मन में राखे पाप। पेट पलनियाँ वे चलें रे, ज्यूँ वन जंगल का सांप।                             नेह जिन हरि से तोड़ा रे।। 

*1509. जगमग जगमग होइ हंसा रे।।661।।

                                                               661 जगमग जगमग होइ, हंसा रे जगमग जगमग होइ।।   बिन बादल जहां बिजली रे चमके, अमृत वर्षा होइ।   ऋषि मुनिदेव करें रखवाली, पी ना पावै कोई।। निशिवासर जहां अनहद बाजै, धुन सुन आनन्द होइ। जोत जगे साहिब के निशदिन, सहज में सहज समोई।।   सार शब्द की धुन उठत है, बुझे विरला कोई।   झरना झरै नहर के नाके, पीते ही अमर हो जाई।। साहिब कबीर भये वैदेही, चरणों में भक्ति समोई। चेतन आला चेत प्यारे, ना तै जागा बिगोई।। 

*1508. पूर्णगढ़ चल भाई।।661।।

                                                                  661 पूर्णगढ़ चल भाई, हंसा रे पूर्णगढ़।। कच्चा कोट पक्का दरवाजा, गहरी जंजीर लगाई। मस्ता हाथी आए झुकावै, दुर्मत लेत लड़ाई।। ज्ञान ध्यान दो अनी रे बराबर, ये दो अदल सिपाही। हृदय ढाल राख कर सिमरन, यम की चोट बचाई।। कह कबीर जो अजपा जपै, तिन को कॉल न खाई।। 

*1507. गुरू मेहर करे जब।।661।।

                                                              661 गुरू मेहर करें जब, कागा से हंस बनादें।। जबगुरुआं कि फिरजा माया।पल में काज पलट दें काया।       जब गुरू सिर पे कर दें छाया।                    पल में वे शिखर पहुँचा दें।। कव्वे से कुरड़ी छुटवा कर, मान सरोवर पे ले जाकर।      तुरत काग से हंस बनाकर।                    मोती अनमोल चुगा दें।। पुत्र प्यारा बहुत माँ का, उनसे बढ़कर शिष्य गुरुआं का।      फेर न बेरा पाटै रजा का, कुछ तैं वे कुछ बना दें।। कोड़ी से गुरू हीरा बनादें, कंकर से कर लाल दिखादें।         कांसी राम चरण सिर ना दें,                        हुक्म करें पद गा दें।।            

*1506. हंसा परम् गुरु जी के।।660।।

                               660 हंसा परम् गुरू जी के देश चलो, जहां अमर उजाला रे।। धरती नहीं आकाश नहीं, ना वहाँ पवन पसारा रे। बिन सूरज बिन चन्दा जहां, चमक अपारा रे।। बिन बादल बरसात बरसती, अमृत धारा रे। पीवै सन्त सुजान सुरमा, ही मतवाला रे।। ब्रह्मा वेद पुराण कली में, कहते हारा रे। जाना नहीं निज रूप भर्म में, डूब गया सारा रे।। गम बेगम के पार परमपद, ज्ञान करारा रे। शिवकरण स्वरूप समझ, तेरा दीदारा रे।।

*1505. एक दिन उड़े ताल के हंस।।660।।

*1504. कहो पुरातम बात।।660।।

                                                            660 कहो पुरातम बात, हंसा कहो पुरातम बात।।     कहां से हंसा आइया रे, उतरा कौन से घाट।     कहां हंसा विश्राम किया तनै, कहाँ लगाई आश।। बंकनाल तैं हंसा आया, उतरा भँव जल घाट। भूल पड़ी माया के वश में, भूल गया वो बात।।     अब तूँ हंसा चेत सवेरा, चलो हमारी साथ।    शंसय शोक वहां नहीं व्यापै, नहीं काल की त्रास।। सदा बसन्त फूल जहां फूलें, आवै सुहंगम बॉस। मन मोरे क्यूँ उलझ रहे हो, सुख की नहीं अभिलाष।।     मकर तार से हम चढ़ आए, बंकनाल प्रवेश।     सोई डोर अब चढ़ चलो रे, सद्गुरु के उपदेश।। जहां सन्तों की सेज बिछी है, ढुरें सुहंगम चौर। कह कबीर सुनो भई साधो, सद्गुरु के सिर मोर।। 

*1503. हंसा हंस मिले सुख होइ।।659।।

                                                                     659 हंसा हंस मिले सुख होइ। रे हंसा। ये तो पाती है रे बगुलन की, सार न जाने कोई।।   जो तूँ हंसा प्यासा क्षीर का, कूप क्षीर ना होइ।   यहां तो नीर सकल ममता का, हंस तजा जस खोई।। छः दर्शन पाखण्ड छियानवे, भेष धरै सब कोई। चार वर्ण औऱ वेद कुराना, हंस निराला होइ।।     ये यम तीन लोक का राजा, शस्त्र बांधे सँजोई।     शब्द जीत चलो हंसा प्यारे, रह जा काल वो रोइ।। कह कबीर प्रतीत मान ले, जीव ना जाए बिगोई। अमरलोक में जा बैठा हूँ, आवागमन ना होइ।। 

*1502. सुन हंसा भाई, हंस गति में होना जी।। 659।।

                               659 सुन हंसा भाई हंस गति में होना जी। जागै इतनै ज्ञान विचारै, ध्यान लगा के सोना।। मनुष्य जन्म का चोला पा के बीज भजन का बोना। बिना भजन कीमत ना इसकी, बेगी यो मत खोना।। राम नाम का निर्मल जल है, भीतर मलमल धोना। जन्म जन्म के पाप कटैं तेरे, मिटेचौरासी का रोना।। दिल है ये एक जल का सागर, उलटी झाल समोना। बिना विचार बड़बड़ बोलै, हुए कुरड़ी का ढोना।। तेरी काया पे माल चौगुना, चौकस हो के रहना। आज्ञाराम कर चले फैंसला, दूजा नहीं बिगोना।। 

1501 चल हंसा उसे देश समंद विच मोती है।।

          चल हंसा उस देश समंद विचमोती है।। चल हंसा वहदेश निराला बिन शशि भान रहे उजाला।          लगे ना काल की चोट जगामग ज्योति है। करु चलन की जब तैयारी, दुविधा जाल फंसे अति भारी।         हिम्मत कर पग धरू हंसिनी रोती है।। चल पड़ा जब दुविधा छूटी पिछली प्रीत कुटुंब से टूटी।         सत्रह उड़ गई पांच धरण में सोती हैं।। जय किया अमरपुर वासा, फिर ना रही जीने की आशा ।         धरी कबीर मौत के सिर पर जुती है।।

*1500. सुन हंसा भाई हंस रूप था जब तू आया।। 658।।

                               658 सुन हंसा भाई हंस रूप था जब तू आया। अपना रूप भरम में बोला जब तू जीव कहाया।। कर्मों के चक्कर में फंस के, असली तत्व भुलाया। पांच तत्वों में आन मिला तने मिली माटी की काया।। जो मिला दो गर्जी मिला, माया जाल फैलाया। अपना स्वार्थ सिद्ध करने को झूठा लालच लाया।। अष्टांग योग की करी तपस्या, वृथा देह सुखाया। जब तक सतगुरु मिले ने पारखी, जन्म जन्म दुख पाया।। साहिब कबीर मिले बंदी छोड़, जीने निजी स्वरूप दिखाया। धर्मी दास जब आपा चिन्हा, छोड़ दिया जग दाया।।

*1499. हंसा कहां से आया रे।।658।।

                                                                    658     हंसा कहां से आया रे,वहाँ का भेद बता भाई।      तूँ तो पूरा ज्ञानी रे, इस का पद समझा भाई।। धोले अम्बर धूल नहीं थीं, नहीं था चन्दा सूरा। उस दिन की मनै खबर बता दे, कौन गुरु मिला पूरा।   काया माया कुछ भी नहीं था, नहीं था ये ओंकारा।   नाभि कंवल विष्णु भी नहीं था, कहां था हंस तुम्हारा जिया जून में कुछ भी नहीं था नहीं था मुल्ला काज़ी। उसदिन की मनै खबरबतादो, किस दिन रची या बाजी।।    काया में कुछ भी नहीं था, नहीं था पिंड ब्रह्मंडा।    सूतक सातक काम चलाऊ, नहीं था 18 खंडा। 16 शंख पे तकिया हमारा, अगम महल पे चन्दा। हंस सरूपी हम से निकले, काटन यम का फंदा।।    इस ग़ैब का भेद न पाया, अनुरागी लौ लीना।    कह कबीर सुनो जति गोरख, भेद न पाया मीना।। 

1498। हंसा निकल गया पिंजरे से खाली पड़ी रही तस्वीर।।

       हंसा निकल गया पिंजरे से खाली पड़ी रही तस्वीर।। यम के दूत लेन ने आवें तनिक धरे ना धीर। मार के सोटा प्राण काढ ले बहे  नयन से नीर।।          बहुत मनाए देई देवता बहुत मनाए पीर।          अंत समय कोई काम ना आवे जाना पड़े आखिर।। कोई रोवे कोई तुझे नह, कोय उढावे चीर। चार जने रल मता उपाया, ले गए मरघट तीर।।           भाग्य कर्म की कोई न जाने संग ना चले शरीर।           जा जंगलमें डेरा ला दिया, कह गए दास कबीर।।

*1497. मेरे हंसा भाई, सब जग।।657।।

                              657 मेरे हंसा भाई, सब जग भुला पाया।।       इसी भूल में ब्रह्मा भुला, वेद पुराण रचाया।       वेद पढ़े तो पंडित भूले, सार शब्द नहीं पाया।। इसी भूल में विष्णु भुले, वैष्णव पंथ चलाया। कर्म कांड में बांध जीव को, चौरासी भरमाया।।      इसी भूल में शंकर भुला, भिक्षुक पंथ चलाया।      सिरपर जटा हाथ मे खप्पर, घर घर अलख जगाया।। इसी भूल में मोहम्मद भुला, न्यारा पंथ चलाया। पर स्त्री सँग फिरा भर्मता, लिंग और मूँछ कटाया।।     इसी भूल में भुला, मछँदर, सिंगल द्वीप बसाया।     विषय वासना के वश होकर, अपना योज नसाया।। कह कबीर सुनो भई साधो, हम युग युग जीव चिताया। जिसने जान्या भर्म भूल का, फेर गर्भ ना आया।। 

*1496. जहाँ हंस अमर हो जाए।।657।।

                              657 जहाँ हंस अमर हो जाई, देश म्हारा बांका है रे भाई। देश म्हारे की अद्भुत लीला, कहूँ तो कही न जाई।           शेष महेश गणेश थके हैं,                              नारद मति बौराई।। चाँद सूरज अग्नि तारों की, ज्योति जहां मुरझाई।            अरब खरब जहां बिजली रे चमके,                            तिन की छवि शरमाई।। देश म्हारे का पंथ कठिन है, तुम से चला न जाई।             सन्त रूप धर के जाना हो,                             ना तै काल ले खाई।। पर धन मिट्टी के सम जानो, माता नार पराई।             राग द्वेष की होली फूंको,                                 तजदे मां बड़ाई।। सद्गुरु की तुम शरण गहो रे, चरणों में चित्त लाई।               नाम रूप मिथ्या जग जानो,                                  तब वहां पहुँचो जाइ।। घाटी विकट निकट दरवाजा, सद्गुरु राह बताई।               बिन सद्गुरु वाको राह न पावै,                      लाख करो चतराई।। गुरू अपने को शीश नवाऊँ, आत्म रूप लखाई।                 निर्भयानन्द हैं गुरु अपने,                          शंसय दिया मिटाई।                        

*1495. सतगुरु मिलने चालो हेली, करो ना सिंगारो।।655।।

                            655 अरथ सिंगारों हेली सेज सिंगारो। सतगुरु मिलने चालो हेली, करो ना सिंगारो।। गम का घाघरा पहर सुहागिन नेम का नारा घालों। करमा गांठ जुगत से लालो, लोग हंसे जग सारो।। चेतन चुनरी ओढ़ सुहागन नेम से गाती मारो। लाज शर्म का कार्ड घुंघटा कुल लजेगो थारो हे।। और पिया म्हारे दाए ना आवे, अमर पिया घर म्हारो हे। उन्हीं पिया से लगन लगी है, तनिक ना हो पिया न्यारो हे।। नाथ गुलाब मिला गुरु पिया दीया शब्द का सहारो हे। भानी नाथ शरण सतगुरु की सहजे मिला किनारों हे।।

*1494. चल गुरुओं के देश हे हेली।।654।।

                                654 चाल गुरुओं के देश हे हेली, सांस ये वृथ्या जा।। पूर्व दिशा से उठी बदरिया हे हेली पश्चिम बरसी जाए। धरती से झड़ लग रही हे, अंबर मलमल न्हाय।। नदी किनारे रूख खड़ा मारी हेली डगमग डगमग होय। पात झड़ें तो यूं कहे  हे, दूर पड़ेंगे जाए।। सौदा धरा दुकान में हे हेली, बिन गाहक मत खोल। अभी कोई ज्ञानी परख ले हे, मोल चौगुना री दे।। हिरणा तैं हिरण कह म्हारी हेली, दूर चरन ना जा। आवे पारधी मारदे हे, घर-घर गोश्त बिकाय।। नाथ गुलाब तने कहे म्हारी हेली, संग हमारे होय। ले चलो उस देश में हे, फिर आवन ना होए।।

1493। सतगुरु में वो दिया हेला रे तुम सुनियो संत सुजान।।

सतगुरु ने वो दिया हेला रे तुम सुनियो संत सुजान।।         और जन्म बहुतेरे होंगे, मानुष जन्म दुहेला रे।। अरब खरब लग मायाजोडी, संग चले ना एक धेला रे।।        तू तो कहे मैं लश्कर जोडूं, जाना तुझे अकेला रे। यह तो मेरी चलती बरियां, सतगुरु पार पहेला रे।।        कहे कबीर सुनो भाई साधु शब्दगुरु चित्त चेला रे।।

*1492 म्हारै सद्गुरु दे रहे हेला रे, सत्तनाम ।।654।।

                                                                    654 म्हारै सद्गुरु दे रहे हेला रे,                  सत्तनाम सुमर मन मेला रे।।      कोढ़ी कोड़ी माया जोड़ी, जोड़ भरा एक थैला रे।      खाली आया खाली जागा, सङ्ग चले न एक धेला रे।। मातपिता तेरा कुटुंब कबीला, ये दो दिन का मेला रे। यहीँ मिला ओ यहीँ बिछुड़ जा, जागा हंस अकेला रे।।      एक डाल दो पँछी बैठे, कोन गुरु कौन चेला रे।    चेला तो चंचल है भाई, गुरु निरंतर खेला रे।। इस पद का तुम भेद सुनो, कौन गुरु कौन चेला रे। रामानन्द का कह कबीरा, शब्द गुरु चित्त चेला रे।।

*1491. पायो निज नाम हेली।।653।।

                              653 पाया निज नाम हे ली पाया नीज नाम।। अगम धुन लागी हे पायो निज नाम।। मने सतगुरु नाम सुनायो, म्हारी नाभि कमल ठहरायो।              सखी गगन मंडल गर्नायो हे।। म्हारे सतगुरु राह बताया, मने ज्ञान यथार्थ पाया।             झट आनंद सुख पाया हे । म्हारी सूरत सुहागन शयानी, मन सूरत गगन में तानी।          वहां बैठे मौजा मारो हे। म्हारी सूरत सुहागन प्यारी, तुम करो शब्द से यारी।          कबीर मुक्त भंडारी हे।।

*1490. दिल महरम की बात।।653।।

                                  653 दिल महरम की बात, हेली किसने कहूंगी।। चंदन का तेरा रथ बनाया हे, करके न बड़ी हे खुभात।। दिल का वो प्यारा साजन, ब्याह के लाया।     बड़ी सज के न चढ़ी थी बरात।। बलते दिवे के वो तो झोली भी मार गया हे।      बैरी दिन की कर गया रात।। मैं तो रथ में साजन, पैदल डिगर गया हे।        चलते ना बुझी मेरी बात।। कहती कमाली कबीरा थारी बाली।          रहते मसलते हाथ।।

1489। हेली हमने नींद ना आवे हे , सोवे है नगरिया सारी।।

हेली हमने नींद ना आवे हे सोवे है नगरिया सारी।। पिया मिलन की आज हमने लगन लगाई हे।।     लगन मगन होके विरिहन जगाई हे।     आगे सुर नर मुनीजन बैठे हमने सुरती ठहराई हे।। बिना दीपक बिन बाती तेल जोत जगाई हे। सुंदर-मुंदर दर्श गुरुओ के म्हारे हुई रोशनाई हे।।      सतगुरु हम साथ लागी गगन मंडल में ध्याई हे।      गगन मंडल में सजे पिया की बड़ी मुश्किल से पाई हे।। ओहम सोहन बोली प्यारी, हमने आवाज लगाई हे। सूरत वहां जा मगन हो बैठी, सुखमणि सेज बिछाई हे।।       शत-शत आनंद रूप गुरु का शोभा वर्णी ना जाई हे।       कह सुखदेव सुनो मेरी सुरती पिया में समाई हे।।

1488। कौन मिलावे मोहे पीव से।।

कौन मिलावे मोहे पीव से, पिया बिना रह्यो ए ना जाए हेली।। मैं हिरनी पिया पारधी री, मारे शब्द के बाण। जिसके लागे सौतन जाने, दूजे ने के जान।।         दर्श दीवानी मैं पीव की रे, रटती मैं पिया हे पिया।         पिया मिले तो लखूंगी हे, तज दूंगी सहज जिया।। पिया की मारी हुई रे बैरागन, लोग कहे पिंड रो। सो सो लांघन मैं किया रे पिया मिलन के योग।।         कहे कबीर सुनो हे घोघड़ तन मन धन बिसराय।         थारी प्रीत के कारण  फिर मिलेंगे आए।।

*1487. हेली छोड़ दे विराना देश।। 652।।

                                652 हेली छोड़ दे वीराना देश चलो सतगुरु जी की शरण रे।। राम कृष्ण अवतार देवनार यह  करें सुमर्णा रे। शिव ब्रह्मा अधिक शीश धरे सतगुरु जी के चरणों रे।। निर्मल भक्ति सतगुरु जी की घट भीतर धरना रे। मलिन किसी के आवे मन में दूर भगाना रे।। मन ममता और मोह त्याग भाव भक्ति का भरना रे। गुरु भक्ति वैराग्य बिना चोरासी में फिरना रे।। गुरु पद पारख सार समझ के अनुभव करना रे। शिव करण पारक कर अपनी फिर नहीं डरना रे।।

*1485. अगम गवन कैसे करूं।।651।।

                                651   अगम गवन कैसे करूं हेली, बिन पायन का पंथ है री हेली। पांच तत्व गुण तीन सै री हेली, पूर्ण ब्रह्म एकांत। बाट घाट सूझे नही री हेली, निपट विकट वह पंथ। रजनी माया मोह की री हेली, ता में मद महमंत।। उलझी जन्म अनेक की री हेली, देह मध्य विश्रंत। लागी विषय विकार से री हेली, कुछ नही भाव भगवंत।। मार्ग नदियां बहे री हेली, लख चौरासी धार। कर्म भंवर का में फिरे री हेली,  कहां उतरे वो पार।। साध संगर हेरा करो री हेली, गुरु के शब्द विचार। प्रेम उमंग के रंग में री हेली, उतरत लगे न वार।। पारधिया का भेष है री हेली, बारह मास बसंत। परम योग आनंद में री हेली, स्वामी गुमानी संत।। चलो सखी इस देश को री, जहां बसे गुरुदेव। नित्यानंद आनंद में री हेली, परसो अलख अभेव।।

*1484. हरदम पृभी न्हा।।651।।

                                                                651 हर दम पृभी न्हा म्हारी हेली, तीर्थ जाए बलाय।     सांस सांस में हरि बसै री हेली, दुर्मत दूर बहाय।     सुरत सिंध पे घर करो री हेली, बैठी निर्गुण गाय।। सत्त शब्द का राह है री हेली, शील सन्तोष श्रृंगार। काम क्रोध को मार के री हेली, देखे अजब बहार।।     क्षमा नीर आंगन भरा री हेली, बहे गंग निज धार।     जो न्हाय सो निर्मल री हेली, ऐसा है निज धाम।। घीसा सन्त वहां न्हा रहे री हेली, धोया मान गुमान। लख चौरासी से ऊबरै री हेली, आवागमन मिटाय।। 

*1483. कर सद्गुरु से प्रीत हेली।।651।।

                                    651 कर सद्गुरु से प्रीत हेली, दे चरण कंवल में चित्त है।। छिन छिन प्रेम बढ़ा हे हेली, उन सा ना कोय मीत हे।। कुल कुटुम्ब जग मर्यादा, इनसे तेरा होए अकाजा।                    वक्त करै है बड़ा तकाजा,                                      जन्म रहा तेरा बीत हे।। धन संपत्ति मान बड़ाई, ये तो सभी यहां रहाई।             इन संग कैसी कोली पटाई,                               ये बालू कैसी भीत है। सद्गुरु खोज तुझे भेद बतावै, परमार्थ की राह चलावै।              कर्म भर्म तेरे सब मिट जावै,                              सत्संग में दे चित्त हे।। सुनना ध्यान से तुम उपदेशा, होके चरण शरण लौ लेशा              तेरे कटजा सभी कलेशा,                             तनै पड़े भजन की रीत है।। सन्त ताराचंद ओतार धार आया,             राधा स्वामी का रुक्का लाया।                        कंवर तुझे भी मौका पाया,                                  तूँ भँव जूए सर जीत हे।। 

*1482. चलो उस देश में हे हेली।।650।।

                                                                 650 चलो उस देश में हे हेली, हुए काल की टाल।।       निर्गुण तेरी सांकडी हे हेली, चढो न उतरो जाए।       चढूं तो मेवा चाखलूँ हे, मेरो जन्म सफल हो जाए।। अनहद के बाज़ार में हे हेली, हीरों का व्यापार। सुगरा सौदा कर चले हे, नुगरा फिर फिर जाए।।        गेहूँ वर्णो सांवरो हे हेली, रूपा वर्णो रूप।        पिया मिले मोहे आदरो हे, पिया मिलन की आश।। एक भान की क्या कहूँ हे, कोटि भान प्रकाश। कह कबीरा धर्मिदास ने, मैं सदा पीव के साथ।। 

*1481. दो नैनां के बीच।।650।।

*1480. मिल बिछड़न की पीर री हेली।।649।।

                                  649 मिल बिछड़न की पीर री हेली, मिल बिछड़े सोइ लखै। हरि से बिछड़ी आत्मा री हेली, जग में धरयो शरीर।। बौरी हो डोरी लगी री हेली, पिछली बात सम्भाल। हमसे किस विध बिछड़े री हेली, वह हरि दीनदयाल।। अब हम अपने वश नहीं री हेली, फिरैं जगत वन माहीं। साध सन्देशा दे गए री हेली, समझ समझ पछताई।। जा दिन से हरि बिछड़े री हेली, तन मन धरै ना धीर। हमरी गति ऐसी भई री हेली, ज्यूँ मछली बिन नीर।। बिसर गई हम देह को री हेली, लाग्या उनमन ध्यान। तन जग में मन पीव में री हेली, छीन इत छिन उत प्राण।। स्वामी गुमानी एक है री हेली, मन मन्दिर के माय। नित्यानंद की गह लई री हेली, आप निरंजन बांह।। 

*1479. चल सद्गुरु के धाम हेली।।649।।

                                                                   649 चल सद्गुरु के धाम हेली, तजदे सारे काम हे। लेकर उनसे नाम करो तुम, भजन सुबह और शाम हे।। नाम बिना कोय गांव न पावै, बिना नामकोय भेद न आवै              नाम बिना कैसे घर जावै,                                       सबसे बड़ा है नाम हे।। नाम बिना कोय खत न आवै,            नाम बिना जग धक्के खावै                        नाम बिना नुगरा कहलावै,                                   भोगै कष्ट तमाम हे।। नाम बिना क्लेश न जावै,           नाम बिना नित काल सतावै।                    चोरासी में रह भरमावै,                                भोगै चारूं खान हे।।  नाम ये खोजो तुम सद्गुरु का,         भेद मिलेगा तुझको धुर का।                  भूल भर्म का तार के बुरका,                             करो सुमरण आठों याम हे।। गुरू ताराचंद हैं सद्गुरु पूरा,          लियो नाम बेवक्त हजूरा।                      कंवर इर्ष्या करके दूरा,                               उनको करो सलाम हे।।

*1478. कर जिन्दड़ी कुर्बान।। 649।।

                                                               649 कर जिन्दड़ी कुर्बान, साथिन म्हारी हे। तेरो आयो हज़ारी हंसा पावना म्हारी हेली हे।। तत्व से तुर्या तुरत मिलावना, म्हारी हेली हे।             हो ज्ञान घोड़े असवार साथन म्हारी।। गगन मण्डल में बाजा बाजिया, म्हारी हेली हे।          बिन पायल बिन रमझोल ।। सुन्न महल में दिवला जोतिया म्हारी हेली हे।           बिन बाती बिन तेल साथन।। सत्तलोक में झूला झुलिया म्हारी हेली हे।           सद्गुरु झुलावन हार साथन।। कह कबीरा धर्मिदास से म्हारी हेली हे।           तुम चलो शब्द की लार साथन।। 

*1477. हेली हमने नींद ना आवे हे।।653।। सुखदेव।।

                                  648 हेली हमने नींद ना आवे हे, सोवे है नगरिया सारी।। पिया मिलन की आज हमने लगन लगाई है।। लगन मगन हो के, विरिहन जगाई है। आगे सुर नर मुनि जन बैठे हमने सूरत ठहराई है।। बिन दीपक बिन बाती तेल बिना ज्योत जगाई है। सुंदर-मूंदर दरस गुरुओं के मारे हुई रोशनाई हैं।। सतगुरु हम साथ लागी गगन मंडल में ध्याइ है। गगन मंडल में सेज पिया की बड़ी मुश्किल से पाई है।। सोहम सोहम बोली प्यारी हम ने आवाज लगाई है। सूरत वहां जा मगन हो बैठी सुखमणि सेज बिछाई है।। शत-शत आनंद रूप गुरु का शोभा वर्णी ना जाई है। कहे सुखदेव सुनो मारी सुरती, पिया में समाई है।।

1476। अभी खाली है।।

*1475 बिन सद्गुरु पावै नहीं।।648।।

                                                              648 बिन सद्गुरु पावै नहीं, जन्म धराओ सो सो बार।।    चाहे तो लौटो धरण में हेली री, सुन्न में बंगला छाय।     लटा बढाओ चाहें शीश पे, नाद बजाओ दो चार।। कड़वी बेल की कचरी हे हेली, कड़वा ए फल होय। जींद भई जब जानिये, बेल बिछोवा होय।।    जिन्द भई तो क्या भई हे हेली, चहुँ दिशा फूटी बात।    बचना बीज बाकी रहा हे, फिर जामन की आश।। वो लागी घणी बेलड़ी री हेली, जल बुझ हो गया नाश।  आवागमन जब से मिटा हेली री कह गया धर्मिदास।।

*1474. कठिन चोट वैराग्य की।। कबीर।।647।।

                                  647 कठिन चोट बैराग की जाने कोई बिरला ए साध।। कौन बूंद धरनी रची हे, कौन बूंद आकाश। कौन बूंद साधु रचे कौन बूंद संसार।। शब्द बूंद साधु रची हे सर्प बूंद आकाश। सूरत बूंद साधू रचे हे गर्व बूंद संसार।। रेन समाई भान में है भान समाया आकाश। आकाश समाया सुन्न में, सुन्न या काहे में समाए।। बिन देखे उस देश की ही बात करें सब कोई। अपना खारी खाद्य है रे चेतन फिरे हैं कपूर।। हम हमेशा उस देश के हैं छिन आवे छिन जाए। कह कबीरा धर्मी दास से है आवागमन मिट जाए।।

*1473. पीव मिलन का मौका भला।।647।।अधूरा।।

                                   647 पीव मिलन का मौका भला म्हारी हेली री,                   करलो न बेगी सिंगार।। लग्न का लहंगा पहर लो म्हारी हेली री,                    नेह का नाड़ा घाल। शील का शालू थारै सिर सजै, अंगिया हे अगम विचार।। पायल तो पहरो पग में प्रेम की, झीनी करो झनकार। करनी का कंगन थारै कर सजै, चेतन चूड़ी डार।। सत्त की तो पहरो सत्त लड़ी, गल बिच हरि का हार। नथनी तो पहरो निज नाम की, विषय तजो हे विकार।। सुन्न शिखर चढ़ देख ले---------- 

*1472. पिया के फिक्र में भयी मैं दीवानी।।646।।

                                  646 पिया के फिक्र में भई मैं दीवानी, नैन गंवाए रो रोय।। बालापन बच्चों सङ्ग खेली, भरी जवानी गई सोय। के मुख ले के मिलूँ मैं पीव से, रंग रूप दिया खोय।। बालकपन की चमक चुनडिया, दिन-२मैली होय। मेरा मन करै मैं फेर रंगा लूँ, फेर इसा ना होय।। चन्दन चौकी हाथ जल झारी, पिया का न्हाण संजोय। ऊंची अटारी लाल किवाड़ी, पिया जी का पौढ़न होय।। गहरी नदियां नाव पुरानी, तरना किस विध होय। सखी सहेली पार उतर गई, मैं पापन गई सोय।। इसे देश का सखियों बसना छोड़ो, लोग तकें सैं मोय। मीराबाई पार उतर गई, फेर जन्म नहीं होय।।  

*1471. पिया पाया हेली तेरा हे।।646।।

                             646 पिया पाया हेली तेरा हे जिसका, करलो दीदारा हे।।   बिन धरणी आकाश बीज बिन, वृक्ष लगाया जी।   जात पात फल है नहीं, ना काया छाया जी।। नहीं राम का नाम खुदा का खोज न पाया जी। नहीं अनघड़िया देव, किसे ने ना गीतब गाया जी।              बेनामी बेरूप है वो, कहन सुनन से न्यारा।। नहीं मन्दिर नहीं देव वहां, नहीं पूजा पाठी जी। है नार पुरुष की है नहीं, कोय सूरा साथी जी।          अधर पधर की मौज है,कोय पहुंचे सन्त पियारा।। मनै देखे तीनों लोक, सभी मे मैं फिर आया जी। इधर उधर की न बात, क्यूँ उसके दोष लगाया जी।         बिन सद्गुरु पावै नहीं रे, वो है देश अपारा।। कह कबीर पुकार, गुरू रामानन्द पाया जी। अंड पिंड ने छोड़, पुरूष में जाए समाया जी।         ये तो उनका नाम है रे, मूल जो सन्त बताया।। 

1470 शब्द झड़ लाग्या हे हेलि बरसन लग्या रंग।।

शब्द झड़ लागया हे हेली बरसन लागा रंग।। सुमिरन नाम भजन लो लागी, जन्म मरण की चिंता भागी।        सतगुरु दिनही सेन सत घर पा गया हे।। चढ़गई सुरती पश्चिम दरवाजा, त्रिकुटी महल पुरुष एकराजा।        अनहद की झंकार बजे जहां बाजा हे।। अपने पिया संग जाके सोई, संशय शोक रहा नाकोई।      कट गए करम क्लेश भरम भय भागा हे।। शब्द विहंगम चल हमारी कहे कबीर सतगुरु दी ताली।       रिमझिम रिमझिम होय, कॉल वश आ गया हे 

*1469. हे हेली तूं कौन कहां से आई।।645।।

                                        645 हे तू कौन कहां से आई।। किसने तेरे बटना मसला किसने बान बठाई। किसने तेरा करा आरता, किसने घाली शाही।। कौन देश घर गाम तुम्हारा कौन पिता की जाई। कितने तेरे गोती नाती कितने तेरे भाई।। पीछे का कोई पता नहीं है, बतलाते शरमाई। जो कोई घर बाबुल का भूले, होती बड़ी दुखदाई।। सतगुरु राम सिंह जी पूछ रहे तू किसकी आई खंदाई। ताराचंद को भी पता नहीं था सतगुरु ने समझाई।।

1468 सदा रहूंगी सत्संग में हेली जाऊंगी गुरु के देश।।

          सदा रहूंगी सत्संग में हेली री, जाऊंगी गुरु के देश।। अपना पिया निर्धन भला हे, चाहे काला कुश्टी हो। वाहे की सेज पधारिया हेली री, भला कहे सब लोग।।         अपना तो कालर भला हेली री निपजो चाहे खारी नून।         देख वीराने डहर ने हेली री, मत ललचावे जी।। पीर पैगंबर झूठ है हेली री ,झूठे तीर्गुण लोक। बैठ सभामें कड़वा बोलना हेली री बुरा कहे सबलोग।        मीरा ने सतगुरु मिला हेलीरी गुरु मिला रविदास।        बांह पकड़ गुरु ले गया नाम धनी के पास।।

*1467. कैसे मिलूं मैं पिया संग जाए मिलना तो कठिन है जी।।644।।

                                 644 कैसे मिलूं मैं पिया संग जाए मिलना तो कठिन है जी।। झीना रास्ता मुश्किल चढ़ना मुझसे चढ़ा ना जाए। औघट घाट बाट रपटीली पांव नहीं ठहराए।। लोक लाज कुल की मर्यादा मुझसे सही ना जाए। घर में पिया परदेश बराबर देखे बिन रहा ना जाए।। आशा तृष्णा जाग बावली गगन मंडल चढ जाए। गम से दूर अगम से आगे सूरत झकोलें खाए।। रामानंद गुरु पूरे मिल गए मार्ग दिया बताएं। कह कबीर सुनो भाई साधो सीधा अमरापुर जाए।।

*1466. पिया मिलन का योग से हमने कौन मिलावे।।644।।घीसा।।

                                644 पिया मिलन का योग से हमने कौन मिलावे।। मंदिर जाऊं रोज में री करूं पिया की खोज में। दिन कट जा मेरा मोज में री मने रेन सतावे।। दो घड़ी में सूती रे आंखें खुले जब रोती रे। कुंज गली में टोहती रे पिया हाथ नहीं आवे।। देख पिया ना हंसा सरे ना जानू कित जाए फंसा रे। ज्ञान का दीपक ना चसा री रो रो उदम मचावे।। गगन मंडल बंगाला पड़ा री गुरु ले ताला खड़ा री। देख अचंभा हो रहा जी सुन सुन अचरज आवे।। हद बेहद दोनों खड़ी री उनके वश की मैं ना रही री। घीसा संत ने साध दई री, जीता दास गुण गावे।।

*1464 पांच तत्व और तीन गुना में।।641।।

                           641 पांच तत्व और तीन गुणों में, अपना ध्यान लगा तू। इन सारां की पारख करके, निर्भय हो गुण गा तूं।। गगन धरण पवन और पानी, अग्नि का प्रवेश हुआ। जिन जिन में यह खोज लिया, उन्हें सतगुरु का उपदेश हुआ। मान बढ़ाई गेर दी जिसने, श्रृंगी उनका भेष हुआ। निश्चय करके बैठ गए फिर, असली वो उन का देश हुआ।    अब काम क्रोध मद लोभ मोह का, मत ना जिक्र चला तू।। कर्म धर्म ओर रिद्धि सिद्धि, पास  इन्ही के रहती। ज्ञान विवेक करे घट अंदर, जब चमके वा जोती। इधर-उधर की छोड कल्पना, चुग ले न निज मोती। आठ पहर रहे खोज नाम की, किस्मत ना फिर सोती।         आशा तृष्णा माया की मत, इच्छा विरह लगा तूं।। दसों इंदरी तेरे पास बसत है, इनका ज्ञान करा नहीं। ज्ञान इंद्री है मन का राजा, बिल्कुल ध्यान धरा नही। शील संतोष ज्ञान ना बरता, आत्म सम्मान करा नहीं। लख तीरथ को खोज करी ना, निजी कर्म करा नहीं।       अष्ट कमल में तार पुरा है, सत की बेल खिला तूं।। ओहम सोहम तेरे समीपी, मेरुदंड का करिए ख्याल। भंवर गुफा के बीच बसत है, जिसको कहते हीरा लाल। आतम में परमातम दरसे, टूटे तेरा माया जाल। कान्हा दास के चरण कमल में, श्याम चं

*1463. तत्व ज्ञान के बारे में।।641।।

                             661 तत्व ज्ञान के बारे में, गुरु गोरख करे बखान।        पाँच तत्व का मनुष्य खिलौना मान।। निराकार परमेश्वर ने ये, रची बैठ के माया सै। प्रथम करी आकाश की रचना, फेर ये पवन बनाया सै।           पवन से अग्नि जाया सै,                       जिस की अलग पहचान।। अग्नि तैं हुई जल की रचना, जल तैं पृथ्वी बाद बनी। पाँच तत्व ये पाँच तत्व सैं, औघड़नाथ तेरे याद बनी।           पाँच तत्व के पाँच भेद सैं,                         करके सुन ले ध्यान।। पाँच तत्व से मिल के नै, काया का निर्माण हुआ। नाभि तैं ऊपर 72हज़ार, नाड़ी का प्रमाण हुआ।          जीव ड्राइवर इस काया का,                        ये पाँच तत्व का ज्ञान।। प्रलय होके सारी सृष्टि, पाँच तत्व में लौलीन हुवै। लोकपरलोक और ब्रह्मलोक में, सबकुछ जीवविहीन हुवै।       कँवलसिंह संसार तत्व,                         तत्व बिना सुनसान।।

*1462. जिनके ज्ञान हुआ था।।640।।

                                  640 जिनके ज्ञान हुआ था, छोड़ चले राजधानी।। ज्ञान हुआ था गोपीचंद कै, बात मात की मानी। सत्त के कारण राज छोड़ दिया, छोड़ी तख्त निशानी।। ज्ञान हुआ था मोरध्वज के, सुन ऋषियों की वाणी। अपने हाथां लड़का चीरा, ले के करोत कमानी।। ज्ञान हुआ था हरिश्चन्द्र के, सुन ऋषियों की वाणी। सत्त के कारण तीनों बिक गए, लड़का राजा रानी।। ज्ञान हुआ था प्रह्लाद भक्त के, रहा सन्तों के साहमी। कह कबीर सुनो भई साधो, नहीं किसी से छानी।। 

1461 ऐसा ज्ञान हमारा साधो ऐसा ज्ञान हमारा जी।।

       ऐसा ज्ञान हमारा साधो ,ऐसा ज्ञान हमारा जी।। जड़ चेतन दो वस्तु जगत में, चेतन मूल आधारा रे। चेतन से सब जग उपजत है नहीं चेतन से न्यारा रे       ईश्वर अंश जीव अविनाशी नहीं कुछ भेद विचारा रे ।      सिंधु बिंदु सुरत दीपक में, एक ही वस्तु निहारा रे।। पशु पक्षी नर सब जीवन में पूर्ण ब्रह्म अपारा रे। ऊंच नीच जग भेद मिटायो, सब सामान निर्धारा रे।।      त्याग ग्रहण कुछ कर्तव्य नहीं, संशय सकल विचारा रे।      ब्रह्मानंद रूप सब भासे,यह संसार पसारा रे।।

*1460. जिसको नहीं है बोध तो गुरु ज्ञान क्या करें ।। 639

जिसको नहीं है बोध तो, गुरु ज्ञान क्या करें। निज रूप को जाना नहीं पुराण क्या करें।। घट घट में ब्राह्म ज्योत का प्रकाश हो रहा। मिटा ना द्वैतभाव तो फिर ध्यान क्या करें।। रचना प्रभु की देखके ज्ञानी बड़े-बड़े। भावे ना कोई पार तो नादान क्या करें।। कर के दया दयाल ने मानुष जन्म दिया। बंदा ना करे भजन तो भगवान क्या करें।। सब जीव जंतुओं में जिसे है नहीं दया। ब्रह्मानंद वर्त नेम पुण्य दान क्या करें।।

*1459. मोहे दिजो ज्ञान अपार साधु दीजो ज्ञान अपार।। 639

मोहे दीजो ज्ञान अपार, गुरु दे दो ज्ञान अपार। सेवक शिष्य जानियो हमको, सतगुरु पालनहार।। कैसे काबू होवे रे मनवा, साधक गति विचार। जो भाखें सत्य वाणी शिष्य को, सो गुरु हो उदार।। सूरत निरत का लक्ष्य बताओ, तत्व वास का सार। काहे हेत मुंडावें सिर को, कौन ज्ञान करें पार।। मन का रूप समझ ना पाऊं, ना जानू पवना सार। प्राण दशा को जानू नाही, साधु बिन कौन द्वार।। बिना मूल का कौन तरु, पंछी बिन पंखार। बिन तटी नदी काल बिन मृत्यु, गोरख रहे पुकार।। 

*1458. बरह्म है सबमें एक समान।।638।।

आज मेरे गुरु ने बतलाया, मुझ को ये ही ज्ञान।             बरह्म है सब में एक समान।। बरह्म एक अद्वैत रूप है, नही भेद स्थान।। विद्या विनय युक्त ब्राह्मण में, वो हस्ती और पशु पक्षिन में। वही आत्मा है स्वास्न में, वही रम रहा है हरिजन में।              ये सब जग जगदीश रूप है, करो इसी का ध्यान।। ना वो जन्मे ना वो मरता, ना वो जलता ना वो गलता। ना वह घटता ना वह बढ़ता, सदा एक ही रूप में रहता।             अविनाशी निर्गुण निर्लेपी व्यापक उसको जान।। मनसे तो वह लखा न जावे वाणी से कहा ने जावे। सतगुरु अब कैसे समझावे नीति नीति वेद बुलावे।            खुद ही खुद को तुम पहचानो करो अमीरस पान।।

*1457. मेरे सच्चे गुरु ने ज्ञान की भांग पिलाई।।638।।

                             638 मेरे सतगुरु ने ज्ञान की भांग पिलाई।। पीले प्याला हो मतवाला, रोग रहे ना राई। जन्म जन्म के बंधन कट जा सूरत लगाई घट माही।। आसन लाय जुगत से बैठे, जगत त्याग धुन लाई। अपार लहर उठे घट माही, शब्द में सूरत समाई।। झिलमिल झिलमिल होय झिलामिल दो नेनों के माही। सूरत निरत बीच देख ले तमाशा सतगुरु खेले माही।। नाथ गुलाब गुरु मिले पूरे न्यू कह के समझाई। भानी नाथ शरण सतगुरु की अगम जन्म दर्शाई।।

*1456. कोई समझे चतुर सुजान समझ गुरुदेव की।।638।।

                                 638 कोई समझे चतुर सुजान, समझ गुरुदेव की।। पग बिन चले नैन बिन देखे, सुनता है बिन कान। बिन हाथों के लेता देता, बोले से बिना जुबान।। बिना नासिका लेत सुगंधी, बिन मुख अमृत पान। बिन बुद्धि के निर्णय करता, मन बिना धरता ध्यान।। है सब भांति अलौकिक करनी, कहते वेद पुराण। नेति नेति कह है वेद पुकारे, ऐसा है आत्मज्ञान।। ज्ञान तीर कोमल को बिंधे, बिंधते नहीं पाषाण। लाखों बार गगन में छोड़ो, होता नहीं रे निशान।। जागृत स्वप्न सुषुप्ति तज के, तुरिया में स्थान। गम से दूर आगम से आगे, ऋषि मुनि धरते ध्यान।। बाहर विषयों से सुरती हटा के, अपने को पहचान आत्मानंद आनंद तू ही है, तत्व मसी पहचान।।

*1455. सद्गुरु पूरण ज्ञान तुम्हारा।।637।।

*1454. मिलता ना आत्मज्ञान।।637।।

                           637 मिलता ना आत्मज्ञान, गुरु के बिना। बस्ती बसों चाहे वन को जाओ।                झोली फेरो चाहे भंगवा रंगाओ,                                       मरता ना मन मान।।   लटा बढ़ाओ चाहे मूंड मुंडाओ,              जपतप करो चाहे धूनी रमाओ।                                    होता नही है कल्याण।। गीता पढ़ो चाहे तबला बजाओ,         पढ़ पढ़ पोथी पंडित कहाओ।                         मिलता नहीं निज नाम।। कांसी जाओ चाहे मथुरा जाओ,           तीर्थ जाओ चाहे मल मल नहाओ।                         धुलता ना मन का मैल।। मंदिर जाओ चाहे ठाकुर जाओ,            मस्जिद में जाओ चाहे शीश झुकाओ।                        होता ना परकट भान।।    मोन करो चाहे वचन सुनाओ,            वर्त करो चाहे घर घर खाओ।                         भटको चारों धाम।। गुरु ताराचंद की शरण में आओ,            दास मदन अगम गुण गाओ।                       मिलता ना राधास्वामी धाम।।

*1453. फीका लागे रे सिपाही सरदार ज्ञान तलवार बिना।।

फीका लागे रे सिपाही सरदार ज्ञान तलवार बिना।।           काया गढ़ के बीच में रे भली बजी तलवार।           सूरा छाती दे रहे रे, कायर भाग भाग जाए।। सुरा के संग राम है रे, कायर जूझे आप। ना मारे ना मार सके रे मन ही मन पछताए।।          सूरा सोई सराहीए जो लड़े धनीके हेत।          शीश काट धरनी धरण कभी ना छोड़े के।। कहने के सुरा घने रे, सब बांधे हथियार। वहां तो कोई बिरला डटे रे, बाज रही तलवार।।          यमराज जाने दूत पथाए ले गए मस्क चढ़ाए।          कहे कबीर सुनोभाई साधो, सीधा यमपुर जाए।।

*1452. सदगुरु बांटे सै पुड़िया ज्ञान की।।636।।

                              636 सदगुरु बांटे सै, पुड़िया ज्ञान की।। बाहर नही धरणी या भीतर नही धरनी।           हृदय में धर नी सै पुड़िया।। साबुन नही लगता, सोडा नहीं लगता।           मैल न काटे सै।।  गोली नहीं लगती, दवाई नहीं लगती।            रोग ने काटे सै।। कहत कबीर सुनो भई साधो।            या पार उतारै सै।।

*1451. भाई रे ज्ञान बिना पच मरता।।636।।

                                                                636 भाई रे ज्ञान बिना पच मरता। साँचा सद्गुरु पूर्ण साँई, नहीं जन्मे नहीं मरता।। ब्रह्मा एक सकल घट व्यापक ज्ञानी होय सो लगता। रहनी धार कहनी को साधे, जिनका कारज सरता।। रहता पुरूष विदेही घट में, अजर अमर सत्त करता। जानेगा कोई विरला ज्ञानी, जो अनहद में रमता।। शब्द स्नेही असल पारखी, नहीं काल से डरता। निर्भय होय रमे आत्मा में, नूर निरन्तर रहता।।  कह शिवानन्द ज्ञान बिन बन्दे, भाव नहीं इस तरता। साँचा ज्ञान सद्गुरु से मिलता, क्यों नहीं सफल नर होता।।

1450 गुरु ज्ञान की हो बरसात आपके वचनों से।।

गुरु ज्ञान की हो बरसात आपके वचनों से।                अमृत बरसे दिन रात आपके वचनों से।। सत्य का दर्पण दिखा दिया है, नींद से तुझे जगा के। हे आचार्य मेरी आंखों में, देखा जब मुस्कुरा के।                    मैं समझ गया हर बात।। सच कहता हूं आपसे नाता जोड़ा मैंने जब से। लोभ मोह छल कपट वासना, पास ना आए तब से।                      हो शुरू मेरी प्रभात।। बूंद था मैं पानी की आपने सागर बना दिया।। खाली मन को ज्ञान का गुरुवर गागर बना दिया।।                   मिलता है प्रभु का साथ।।

*1449. गुरु ज्ञान की भांग।।635।।

                               635 गुरु ज्ञान की भांग पिलाई, म्हारी अंखियां में सुरती छाई।। पिया प्याला हो मतवाला रोग रहे ना राई। जन्म-जन्म का संशय मिट जा, साधु संत ने पाई।। झिलमिल झिलमिल हो रहा है दोनों नैन के माही। ओहम सोहम सिमरन कर ले, जोत जले घट माहीं।। रोम रोम में हो उजाला खड़े रहो सब छाई। जहां देखो वहां स्वाती नहीं है, सब घट रहा समाई।। गुरु रामानंद जी तुम बलिहारी, सब पर होत सहाइ। कहे कबीर सुनो भाई साधो अटल नाम ने ध्याई।।

*1448 अगर है ज्ञान को पाना।।635।।

                               635                             अगर है ज्ञान को पाना, तो गुरू की आ शरण भाई। जटा सिर पर लगाने से, भस्म तन में रमाने से। सदा फल फूल खाने से, कभी न मुक्ति हो पाई।। बने मूरत पुजारी है, तीर्थ यात्रा प्यारी है। कह वृद्धा ने भारी हैं, भरम मन का मिटे नाहीं।। कोटि सूरज शशी तारा, करें प्रकाश मिल सारा। बिना गुरू घोर अंधियारा, न पृभु का रूप दर्शाई।।  ईश सम ज्ञान गुरू देवा, लगा तन मन करो सेवा। ब्रह्मानन्द मोक्ष पद मेवा, मिले और बन्द कट जाइ।।

*1447 गुरू गम ज्ञान एक न्यारा।।634।।

गुरु गम ज्ञान एक न्यारा साधु भाई।।        मूंड मुंडावे कोई लटा बढ़ावे, जोड़ जटा सिर भारा।        पशु की त रिया कोई नंगा डोले, अंग लगावे छारा जी। कंदमूल फल खाए कोई, वायु करें आहारा। गर्मी सर्दी भूख प्यास सहे, तन जीर्ण कर डाला।        सर्प छोड़ बंबी को पूजे, अचरज खेल अपारा।       धोबन पर वश चले नहीं रे, गधेने क्या बिगाड़ा।। ब्रह्मा विष्णु शंकर थक गए, धर-धर जग अवतारा जी। पोथी पत्रेमें क्या ढूंढे वेद कहत निज हारा जी।।       वेद कर्म और क्रिया से, वे तो लगावे झाड़ा जी।       कहां कबीर सुनो भाई साधु मानो वचन हमारा जी।।