*840. यह संसार असार रे काहे प्रीत लगावे।। 393
यह संसार असार रे काहे प्रीत लगावे।।
जिस से प्रीत करे तूं प्यारी कोई ना रहने हार री।।
धन और धाम संग नहीं जावे झूठा सकल पसार री।।
मानुष जन्म मिला जग माही, कर हरि भजन सुधार री।।
ब्रह्मानंद छोड़कर ममता करो जगत व्यवहार री।।
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