*25. हमारा दाता अपने ही पुर में पाया.. 8

हमारा दाता अपने ही उर में पाया..
जुगन जुगन की मिटी कल्पना सतगुरु भेद बताया।।

जैसे कुमरी कंठा मणि भूषण जाने कहां घुमाया।
एक साथी ने आज बताया मनका भेद नसाया।।

क्यों तिरिया सपने सुत खोया जान के जी अकुलाया।
जाग गई पलंगों पर पाया कहीं गया ना कहीं आया।।

जो मुर्गा नाभि कस्तूरी ढूंढत वन वन ध्याया।
उल्टी सुगंध नाभि की लिंगी स्थित हुआ अकुलाया।।

कहे कबीर सुनो भाई साधो ज्यों गूंगे गुड़ खाया।
वा को स्वाद वह कैसे बखाने मन ही मन मुस्काया।।

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