*101 ऐसे गुरु मूर्त की बलिहारी। । 34
ऐसे गुरु मूरत की बलिहारी। जिने डूबत हंस उभारी।।
गुरु दाता गुरु आप विधाता, परमार्थ उपकारी।
आनंद रूप स्वरूप दयानिधि, पतित अनेक उबारी।।
गुरु महिमा नहीं कह सकते, शारदा शेष सहस मुख हारी।
सो महिमा मैं कैसे बरनूं, चक नहीं चलती हमारी।।
चकमक पत्थर ही रहे एक संग उठत नहीं अंगारी।
बिना दया संजोग गुरु के, घट में ना हो उजियारी।।
जो माया प्रचंड चहू दिशी, दस अवतार धरा री।
सो माया गुरु मुरत आगे, जुग-जुग आज्ञाकारी।
सम्मुख लड़े सो सूर कहावे, अगम पंथ पग धारी।
कायर होय बचाव नहीं है, काल कभी नहीं छाड़ी।।
जीती बाजी अब मत हारो यह अवसर तेरा भारी
कह कबीर गावे नाद घट भीतर, सोई सुघड़ खिलारी।।
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