*300 सतसंगत जग सार साधु सत्संगति जग सार रे 123

सतसंगत जग सार साधु सतसंगत जग सार रे।।

काशी नहाए मथुरा नहाए-नहाए हरिद्वार रे।
चार धाम तीर्थ फिर आए मन का नहीं सुधार रे।।

वन में जाए किया तप भारी, काया कष्ट अपार रे।
इंद्रिय जीत करी वश अपने, हृदय नहीं विचार रे।।

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