*536 जाग रे नर जाग प्यारे अब तो गाफिल जाग रे ।।241

जाग रे नर जाग प्यारे अब तो गाफिल जाग रे।।

सपन जैसी जान रचना खिला ये दुनिया बाग रे।
देखते मुरझाए जावे, क्या करता है राग रे।।

काम क्रोध अहंकार तृष्णा सब इनको त्याग रें।।
ध्यान धर जगदीश का नित्य मोड़ मन की बाग रे।।

जाल माया का बिछा है दूर इससे भाग रे।।
जान ले निज रूप तेरा गुरुचरण अनुराग रे।।

नासमझ कलिकाल में नहीं दान जप तप योग रे।
ब्रह्मानंद भजन बिना सब, व्यर्थ योग विराग रे।।

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