*255 किस विद हरि गुण गाऊं।। 99
किस विध हरि गुण गाऊं अब मैं।।
जहां देखूं वहां तुझको देखूं किसको गीत सुनाऊं।।
जल मैं मैं हूं थल में मैं हूं सब में मैं ही पाऊं।
मेरे अंश बिना नहीं कोई किसकी धूम मचाऊं।।
मेरी माया शक्ति से में सारी सृष्टि रचाऊं।
मैं उसका पालन करके मेरे में ही मिलाऊं।।
पहले था अब हूं और होऊं, पक्का पीर कहाऊं।
इन बातों को जग क्या जाने जग को धूल फंकाऊं।।
धरती तो रोती छोड़ो जब यह गाना गाऊं।
शंकर मस्त शिखर चंद खेलें, खेलत गुम हो जाऊं।।
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