तेरा कुंज गली में भगवान मंदिर में क्या ने ढूंढती डोले।। सोहनी सोहनी मूर्ति धरी मंदिर में, मावे मुख से बोले। बोलतड़ा को काहे विचारों, राई पर्वत ओलहे।। गोमुख से गंगा निकली, पांचों कपड़े धोले। बिन सतगुरु तेरा मैल कटे ना, हरि भज हल्का होले।। तन की कुंडी मन का साबुन, याही में शील समोले। सूरत ज्ञान का कर मोगरा दिल का दागल धोले।। शिव शक्ति की नौका चढ़ने हरी दर्शन तूं जोह ले। कह कबीर सुनो भाई साधो राई पर्वत ओलहे।।
185 हेरी हेरी ठगनी, कैसा यो खेल रचाया। ऋषि मुनि सन्यासी योगी, सबका करा सफाया।। माया ठगनी सबसे पहले, करने लागी ये विस्तार। माता बन शिवजी से खेली, पुत्र की खुद बनगी नार। दोनोँ की शादी का मेल, होग्या एक सो आठ बार। लक्ष्मी बन विष्णु से खेली, सागर के में बैठ गई। पति के दबाए पाँव, शेष शैय्या पर लेट गई। पुत्री बन ब्रह्मा तैं खेली, हिरन बनके फेट गई। खुद ब्रह्मा भी हिरन बनाया।। उद्दालक ने मौन किया, छः महीने में भोजन खाया। सपने के में ठगनी देखी, ऋषि जी की डोली काया। टूट ग्या लँगोट उसका, गंगा जी मे जा के नहाया। सागर का जब मंथन किया, ठेस लागी तीन कै। मोहनी बनके ठगनी नाची, अमृत लेगी छीन कै। देवासुर से संग्राम किया, धार थी संगीन कै। राहु का शीश कटवाया।। मेनका का रूप धार के, विश्वामित्र दिया चीर। विश्व मोहनी बन के ठगनी, नारद ऊपर फैंका तीर। नाच के उर्वशी भागी, दुर्वासा होग्या अधीर। सीता बन रघुवर से खेली, फेर वनवास किया। रावण के सँग गई जब, लंकपुरी का नाश किय
गुरु बिन कौन सहाई जग में गुरु बिन कौन सहाई।। मात-पिता सुत बांधव नारी स्वार्थ के सब भाई रे। परमार्थ का बंद जगत में सतगुरु बंद छुड़ाई रे।। भवसागर जल दुस्तर भारी ग्रह बसें दुखदाई रे। गुरु खेवरिय पार लगावे ज्ञान जहाज बठाइ रे।। जनम जनम का मेट अंधेरा, संशय शक्ल नशाई रे। पारब्रह्म परमेश्वर पूर्ण घट, में दे दरसाई रे।। गुरु के वचन धार ह्रदय में भाव भक्ति लाई रे। ब्रह्मानंद करो नित्य सेवा, मोक्ष पदार्थ पाइ रे।।
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