*277. मैं तो इस विधि सुमिरन की ना।। 113

मैं तो इस विधि सुमिरन कीन्हा रे साधु।।

होठ नहीं ले कंठ नहीं खाते सो युक्ति कर लिंहा 
सासा नाही जरा दुख पावे बिन मुख अमृत पिंहा।।

माला ना फेरी घिसा ना मनिया, कष्ट हाथ नहीं दिन्हा।
पकड़ सूरत निजी माही रोको तभी भय मत हिना।।

मौन ना लिया गुफा ना बैठे ना उपवास यो किन्हा।
मूल कमल से दसवें तक योर बाजी है बेहद वीणा।।

भगवा पेश किया नहीं तन पर सॉन्ग सजाई ना किन्हा।
नार ना तजी भजा ना वन में, घर में ही घर किन्हा।।

परा पश्यन्ती मध्य बैखरी यह चारों एक सी किन्हा।
इन चारों का दृष्टा हूं मैं विधि एक रही ना।।

देवनाथ गुरु निर्भरम निष्ठा देव स्वरूप कर दीन्हा।
मानसिंह यह जय समाधि इन्हीं सो आत्म चिन्हा।।

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