*383 अब मैं क्या करूं गुरु साईं।। 161

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अब मैं क्या करूं गुरु साईं, मृगा चरे खेत की मांही

हितचित करके खेती बोई, बोई डहर के माही।
चाहत मृगा चर चर जावे ताहूं तो माने नाही।।

सूखी खेती हुई हरियाली, मृगा छोड़े नाही।
बालकपन का हिला मृगला, बिल्कुल माने नहीं,

सुखमण धोरे डांचो मांडो, गुरु गम टाट बिछाई।
कुब्द्ध मृग्ला मार गिराया, तब खेती गरनाईं।।

आप पर ही मैं आपा दरशा सतगुरु सैन लखाई।
कहत कबीर सुनो भाई साधो ऐसी करो कमाई।।

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