*642 मेरे सतगुरु काट जंजीर।। 318
मेरे सतगुरु काट जंजीर, जिवड़ा दुखी हुआ।।
एक हाथ माया ने जकड़ा, एक हाथ सतगुरु ने पकड़ा।
नाचे अधम शरीर।।
कभी मन जाए ध्यान योग में, कभी मन जाए विषय भोग में।
एक लक्ष्य दो तीर।।
जल थल दुनिया बहती धारा, गहरा पानी दूर किनारा।
सोचे खड़ा राहगीर।।
जब तू आए कुछ बन नहीं पाए,
जब तू न आए तो विरह सताए ।।
ज्यों मछली बिना नीर।।
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