*425 ठगियों की नगरी।। 183
ठगियों की नगरी फंस गया, तूं संभल_२ के चाल।।
तूं बंद मुट्ठी आया था, सांसा रूपी पूंजी लाया था।
छिन छिन होता जा सै कंगाल।।
बीती ने क्यों रोवै अब भी व्यर्था क्यों खोवै।
बाकी बची हुई को संभाल।।
पांच चोर पच्चीस लुटेरी, रात दिनों तेरै घालें घेरी।
चोगीर्दे फैलाया जाल।।
बेटे पोते और परिवारा, गोती नाती और संसारा।
अंत तेरा कोय न पूछे हाल।।
वचन भरा था अब तो भुला, घूमै सै तूं फूला फूला।
अंत तेरा सिर पीटेगा काल।।
टिकट नाम की लेलो भाई, शाम स्वेरे करो कमाई।
ये ही है अनमोला लाल।।
दास कंवर हैं निपट अनाड़ी,सतगुरु ताराचंद जो करोसंभारी।
तुम बिन मेरा कौन हवाल।।
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