नास्तिक का क्या अर्थ है. -What does atheist mean?

SAMAYBUDDHA's Dhamm Deshna
नास्‍तिक का क्या अर्थ है?…ओशो
 KSHMTABUDDHA
3 years ago
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देवानंद, नास्तिक का अर्थ है—जो नहीं को जीवन का आधार बना ले, जो नकार को जीवन की शैली बना ले। नास्तिक का अर्थ वैसा नहीं है जैसा साधारणत: समझा जाता है। साधारणत: समझा जाता है जो ईश्वर को इनकार करे वह नास्तिक। वह परिभाषा मूलत: गलत है। क्योंकि बुद्ध ने ईश्वर को इनकार किया और बुद्ध से बड़ा आस्तिक पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ। महावीर ने ईश्वर को इनकार किया, लेकिन क्या महावीर को नास्तिक कह सकोगे? और जो कह सके वह अंधा है। जो कह सके वह जड़ है।
नास्तिक की पुरानी परिभाषा ओछी पड़ गई, छोटी पड़ गई। इसलिए मैं नहीं कहता कि नास्तिक वह है जो ईश्वर को अस्वीकार करता है। नास्तिक वह है जो अस्वीकार में जीता है। स्वभावत:, मेरे आस्तिक की परिभाषा भी भिन्न हो जाएगी। आस्तिक का अर्थ नहीं है कि जो ईश्वर को स्वीकार करता है, आस्तिक का अर्थ है जो स्वीकार में जीता है। आस्था में जीए, वह आस्तिक। अनास्था में जीए, वह नास्तिक।
साधारणत: सौ में से निन्यानबे प्रतिशत लोग नास्तिक हैं। क्योंकि नहीं उनके जीवन का ढंग है। हर बात में नहीं। नहीं उनको बिलकुल सहज है, जबान पर रखी है; हां कहना बहुत कठिन है। और कारण साफ है। नहीं कहने से अहंकार को पोषण मिलता है और हां कहने से अहंकार की मृत्यु होती है।
तुम जरा देखना, अवलोकन करना, निरीक्षण करना। जब भी तुम नहीं कहोगे, एक अकड़ पैदा होगी—एक सूक्ष्म अकड़, जो किसी और को चाहे दिखाई पड़े या न पड़े, तुम्हें तो जरूर दिखाई पड़ जाएगी। तुम्हारे अंतर्तम में कोई चीज सख्त हो जाएगी पत्थर बता। जितना ज्यादा तुम नहीं कहोगे उतना ही लगेगा तुम कुछ हो! और जितना तुम हां कहोगे उतना ही लगेगा मैं कुछ भी नहीं, ना—कुछ हूं।
स्वयं को ना—कुछ जानना आस्तिकता है। स्वयं को शून्य जानना आस्तिकता है। लेकिन स्वयं को शून्य जानने के पहले अहंकार की मृत्यु होनी आवश्यक है। जितना तुम्हारा जीवन हां से भर जाए, स्वीकार से, उतना ही जल्दी मैं विदा हो जाएगा। जरा हां कहना शुरू करो और तुम चकित होओगे, अहंकार बाधाएं डालेगा। तुम उन बातों में भी नहीं कहते हो जिनमें नहीं कहने की कोई जरूरत न थी और उन बातों में भी हां कहने में अड़चन पाते हो जिन्हें कहने में तुम्हारा भी हित था। जो नहीं कहता है, जो नहीं को अपनी जीवन—विधि बना लेता है, वह नास्तिक है।
ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है, जिस पर तुम्हें आस्था करनी पड़े, या जिस पर तुम अनास्था कर सको। ईश्वर जैसा कोई भी नहीं है— ईश्वरत्व है, भगवत्ता है, दिव्यता है। कोई व्यक्ति नहीं है आकाश में किसी स्वर्ण—सिंहासन पर बैठा हुआ, जो सारे जगत का नियंत्रण कर रहा है। एक व्यवस्था है, एक लयबद्धता है। उस लयबद्धता के साथ तुम भी एक हो जाओ, तो आस्तिक, और अलग— थलग चलो, तो नास्तिक। तुम अपनी ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकाओ, तो नास्तिक, और तुम विश्व के विराट आयोजन में सम्मिलित हो जाओ, तो आस्तिक। तुम अपनी बूंद को बचाओ, तो नास्तिक, और तुम अपनी बूंद को सागर में सरक जाने दो, एक हो जाने दो, तो आस्तिक।
इसलिए ईश्वर से नास्तिक—आस्तिक शब्द का संबंध तोड़ लो, उससे कुछ लेना—देना नहीं है। ईश्वर को न मानने वाले आस्तिक हुए हैं और ईश्वर को मानने वाले नास्तिक तो तुम्हें रोज मिलते हैं— मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में, गिरजों में। उनकी कुछ कमी है? ऊपर—ऊपर आस्तिक मालूम होते हैं, क्योंकि मंदिर में दो फूल चढ़ाते हैं, दीया जलाते हैं। और भीतर? और उनके जीवन को गौर से देखो तो उसमें कहीं तुम्हें आस्तिकता की सुगंध मिलती है? कहीं रोशनी दिखाई पड़ती है आस्तिकता की? कहीं श्रद्धा का कोई फूल खिला हुआ दिखाई पड़ता है न’ ईश्वर पर भरोसा करते हैं—कम से कम कहते हैं कि भरोसा है— और किसी पर भरोसा नहीं करते! पति पत्नी पर भरोसा नहीं करता, पत्नी पति पर भरोसा नहीं करती, मित्र मित्र पर भरोसा नहीं करते। भरोसा कोई करता ही नहीं यहां किसी का। यहां हरेक से हरेक सावधान है। और ये आस्तिक हैं।
एक झेन फकीर के घर रात चोर घुसे। घर में कुछ भी न था। सिर्फ एक कंबल था, जो फकीर ओढ़े लेटा हुआ था। सर्द रात, पूर्णिमा की रात। फकीर रोने लगा, क्योंकि घर में चोर आएं और चुराने को कुछ नहीं है, इस पीड़ा से रोने लगा। उसकी सिसकियां सुन कर चोरों ने पूछा कि भई क्यों रोते हो? न रहा गया उनसे। तो उस फकीर ने कहा कि आए थे— कभी तो आए, जीवन में पहली दफा तो आए! यह सौभाग्य तुमने दिया! मुझ फकीर को भी यह मौका दिया! लोग फकीरों के यहां चोरी करने नहीं जाते, सम्राटों के यहां जाते हैं। तुम चोरी करने क्या आए, तुमने मुझे सम्राट बना दिया! क्षण भर को मुझे भी लगा कि अपने घर भी चोर आ सकते हैं! ऐसा सौभाग्य! लेकिन फिर मेरी आंखें आंसुओ से भर गई हैं, मैं रोका बहुत कि कहीं तुम्हारे काम में बाधा न पड़े, लेकिन न रुक पाया, सिसकियां निकल गईं, क्योंकि घर में कुछ है नहीं। तुम अगर जरा दो दिन पहले खबर कर देते तो मैं इंतजाम कर रखता। दुबारा जब आओ तो सूचना तो दे देना। मैं गरीब आदमी हूं। दो—चार दिन का समय होता तो कुछ न कुछ मांग—तूंग कर इकट्ठा कर लेता। अभी तो यह कंबल भर है मेरे पास, यह तुम ले जाओ। और देखो इनकार मत करना। इनकार करोगे तो मेरे हृदय को बड़ी चोट पहुंचेगी।
चोर तो घबड़ा गए, उनकी कुछ समझ में ही नहीं आया। ऐसा आदमी उन्हें कभी मिला न था।
चोरी तो जिंदगी भर से की थी, मगर आदमी से पहली बार मिलना हुआ था। भीड़— भाड़ बहुत है, आदमी कहां! शक्लें हैं आदमी की, आदमी कहां! पहली बार उनकी आंखों में शर्म आई, हया उठी। और पहली बार किसी के सामने नतमस्तक हुए, मना नहीं कर सके। मना करके इसे क्या दुख देना, कंबल तो ले लिया। लेना भी मुश्किल! इस पर कुछ और नहीं है! कंबल छूटा तो पता चला कि फकीर नंगा है। कंबल ही ओढ़े हुए था, वही एकमात्र वस्त्र था— वही ओढ़नी, वही बिछौना। लेकिन फकीर ने कहा. तुम मेरी फिकर मत करो, मुझे नंगे रहने की आदत है। और तुम तीन मील चल कर गांव से आए, सर्द रात, कौन घर से निकलता है। कुत्ते भी दुबके पड़े हैं। तुम चुपचाप ले जाओ और दुबारा जब आओ मुझे खबर कर देना।
चोर तो ऐसे घबड़ा गए कि एकदम निकल कर बाहर हो गए। जब बाहर हो रहे थे तब फकीर चिल्लाया कि सुनो, कम से कम दरवाजा बंद करो और मुझे धन्यवाद दो!
आदमी अजीब है, चोरों ने सोचा। और ऐसी कड़कदार उसकी आवाज थी कि उन्होंने उसे धन्यवाद दिया, दरवाजा बंद किया और भागे। फिर फकीर खिड़की पर खड़े होकर दूर जाते उन चोरों को देखता रहा और उसने एक गीत लिखा— जिस गीत का अर्थ है कि मैं बहुत गरीब हूं मेरा वश चलता तो आज पूर्णिमा का चांद भी आकाश से उतार कर उनको भेंट कर देता! कौन कब किसके द्वार आता है आधी रात!
यह आस्तिक है। इसे ईश्वर में भरोसा नहीं है, लेकिन इसे प्रत्येक व्यक्ति के ईश्वरत्व में भरोसा है। कोई व्यक्ति नहीं है ईश्वर जैसा, लेकिन सभी व्यक्तियों के भीतर जो धड़क रहा है, जो प्राणों का मंदिर बनाए हुए विराजमान है, जो श्वासें ले रहा है, उस फैले हुए ईश्वरत्व के सागर में इसकी आस्था है।
फिर चोर पकड़े गए। अदालत में मुकदमा चला, वह कंबल भी पकड़ा गया। और वह कंबल तो जाना—माना कंबल था। वह उस प्रसिद्ध फकीर का कंबल था। मजिस्ट्रेट तत्‍क्षण पहचान गया कि यह उस फकीर का कंबल है— तो तुम उस गरीब फकीर के यहां से भी चोरी किए हो! फकीर को बुलाया गया। और मजिस्ट्रेट ने कहा कि अगर फकीर ने कह दिया कि यह कंबल मेरा है और तुमने चुराया है, तो फिर हमें और किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। उस आदमी का एक वक्तव्य, हजार आदमियों के वक्तव्यों से बड़ा है। फिर जितनी सख्त सजा मैं तुम्हें दे सकता हूं दूंगा। फिर बाकी तुम्हारी चोरियां सिद्ध हों या न हों, मुझे फिकर नहीं है। उस एक आदमी ने अगर कह दिया…।
चोर तो घबड़ा रहे थे, कंप रहे थे, पसीना—पसीना हुए जा रहे थे— जब फकीर अदालत में आया। और फकीर ने आकर मजिस्ट्रेट से कहा कि नहीं, ये लोग चोर नहीं हैं, ये बड़े भले लोग हैं। मैंने कंबल भेंट किया था और इन्होंने मुझे धन्यवाद दिया था। और जब धन्यवाद दे दिया, बात खत्म हो गई। मैंने कंबल दिया, इन्होंने धन्यवाद दिया। इतना ही नहीं, ये इतने भले लोग हैं कि जब बाहर निकले तो दरवाजा भी बंद कर गए थे।
यह आस्तिकता है। मजिस्ट्रेट ने तो चोरों को छोड़ दिया, क्योंकि फकीर ने कहा. इन्हें मत सताओ, ये प्यारे लोग हैं, अच्छे लोग हैं, भले लोग हैं। फकीर के पैरों पर गिर पड़े चोर और उन्होंने कहा हमें दीक्षित करो। वे संन्यस्त हुए। और फकीर बाद में खूब हंसा। और उसने कहा कि तुम संन्यास में प्रवेश कर सको इसलिए तो कंबल भेंट दिया था। इसे तुम पचा थोड़े ही सकते थे। इस कंबल में मेरी सारी प्रार्थनाएं बुनी थीं। इस कंबल में मेरे सारे सिब्दों की कथा थी। यह कंबल नहीं था। जैसे कबीर कहते हैं न—झीनी—झीनी बीनी रे चदरिया! ऐसे उस फकीर ने कहा प्रार्थनाओं से बुना था इसे! इसी को ओढ़ कर ध्यान किया था। इसमें मेरी समाधि का रंग था, गंध थी। तुम इससे बच नहीं सकते थे। यह मुझे पक्का भरोसा था, कंबल ले आएगा तुमको भी। और तुम आखिर आ गए। उस दिन रात आए थे, आज दिन आए। उस दिन चोर की तरह आए थे, आज शिष्य की तरह आए। मुझे भरोसा था। क्योंकि बुरा कोई आदमी है ही नहीं।
बुरे से बुरे आदमी में भी जिसे भरोसा है, वह आस्तिक। चोर में जो अचोर को देख ले, वह आस्तिक। बेईमान में जो ईमानदार को देख ले, वह आस्तिक। असाधु में भी जो साधुता को खोज ले— हालांकि ढेर है असाधुता का, लेकिन कहीं न कहीं साधुता का हीरा भी दबा पड़ा होगा— वह आस्तिक। और इससे उलटा नास्तिक है। नास्तिक वह है जो गुलाब की झाड़ी के पास जाए तो गुलाब के फूल तो उसे दिखाई ही न पड़े, कांटों की गिनती कर ले। और कांटों को गिनोगे तो कांटे चुभेंगे भी, हाथ लहूलुहान भी हो जाएंगे, क्रोध भी जगेगा।
कहते हैं कि एक आस्तिक न्यूयार्क में अपनी एक सौ बीस मंजिल के मकान से गिर पड़ा। रास्ते में खिड़कियों में लोगों ने उससे पूछा क्या हाल है? उसने कहा अभी तक तो सब ठीक है।
आस्तिक क्षण— क्षण जीता है। अभी तक तो सब ठीक है! पहुंचेंगे जमीन पर तब देखा जाएगा। और जो ऐसा कह सकता है मकान से गिरने के बाद जमीन की तरफ जाता हुआ कि अभी तक सब ठीक है, उसका सदा के लिए ठीक रहने वाला है, वह जमीन पर बिखर भी जाएगा तो सिर्फ देह ही बिखरेगी, उसकी चेतना को बिखेरने का कोई उपाय नहीं है। उसकी चेतना अब अमृत को उपलब्ध हो गई। जिसके पास ऐसी आस्था है, ऐसे व्यक्ति को जगत सौंदर्य से भरा दिखाई पड़ेगा— सत्य से आप्लावित! ऐसे व्यक्ति को पत्ते—पत्ते पर भगवत्ता के लक्षण, फूल—फूल पर भगवत्ता की गंध, लहर—लहर पर भगवत्ता की लीला दिखाई पड़ेगी। आस्तिकता मंदिरों में पूजा करने का नाम नहीं है। तुम मिट्टी की, पत्थर की मूर्तियां बना कर जो पूजा कर लेते हो, वह सब धोखा है। आस्तिकता बहुत गहन जागरण का नाम है— इतना गहन जागरण, ऐसी गहरी आख कि अमावस की रात में भी पूर्णिमा का दर्शन हो सके। अंधेरे से अंधेरे में भी ऐसी गहरी आख कि दीये जल उठें। मृत्यु में भी महाजीवन का सूत्र मिल सके।

नास्तिक वह है जिसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता, जो अंधा है। नहीं ने उसकी आंखों पर धूल जमा दी है। नहीं कहते—कहते, नहीं कहते—कहते उसका दर्पण हां कहना भूल गया है। और हां सेतु है, नहीं दीवार है।

तुम जरा एक दिन प्रयोग करो। चौबीस घंटे कुछ भी तुम से कहा जाए, नहीं कहो। मित्रों से संबंध टूट जाएंगे, परिवार से संबंध टूट जाएंगे, परिचितों से संबंध टूट जाएंगे। चौबीस घंटे कुछ भी कहा जाए, तुम नहीं से ही जवाब देना। चौबीस घंटे में तुम पाओगे, तुम बिलकुल अकेले रह गए, सारी दुनिया से विच्छिन्न हो गए। और चौबीस घंटे हां कहने का प्रयोग करना, कुछ भी कहा जाए, हां कहना— और तुम पाओगे संबंध ही संबंध जुड़ गए।
इस दुनिया में जो लोग असली विजेता हैं, उनकी विजय का सूत्र यही है कि वे जानते हैं हां की कला। वे ही कहना जानते हैं। इसलिए हर हृदय को जीत लेते हैं। उनकी विजय का राज इतना ही है।
नास्तिक वह है कि अगर तुम उससे कहो कि फलां आदमी कितनी प्यारी बांसुरी बजाता है, वह उसी क्षण कहेगा अरे वह क्या बांसुरी बजाएगा—झूठा कहीं का, बेईमान, धोखेबाज! और आस्तिक वह है, अगर तुम उससे कहो कि वह आदमी बड़ा बेईमान है, बड़ा धोखेबाज है, बड़ा झूठा है— तो वह कहेगा. नहीं, यह असंभव है! क्योंकि मैंने उसे बांसुरी बजाते सुना है। इतनी प्यारी वह बांसुरी बजाता है, झूठा हो नहीं सकता।
नास्तिक रातें गिनता है और कहता है दो रातों के बीच जरा सा दिन है। और आस्तिक दिन गिनता है और कहता है दो दिनों के बीच जरा सी रात, जरा सा विश्राम। रातें भी वही हैं, दिन भी वही हैं, लेकिन गिनती अलग, गणित अलग, देखने का कोण अलग।
अगर तुम्हें प्रकृति के सौंदर्य में परमात्मा की छवि दिखाई पड़ने लगे, रात चांदनी से भरी हो और तुम्हें परमात्मा से भरी मालूम होने लगे, तो तुम आस्तिक हो। आस्तिक की दृष्टि से धीरे— धीरे पदार्थ खो जाता है और परमात्मा ही शेष रह जाता है। और नास्तिक की दृष्टि में परमात्मा खो जाता है और पदार्थ शेष रह जाता है।
नास्तिक मूढ़ है, क्योंकि अस्तित्व को इनकार करने से सिर्फ अपनी आत्मा को खो रहा है, कुछ कमा नहीं रहा है। नास्तिक दया का पात्र है। उस पर नाराज मत होना। वह भिखारी है। उसे जीवन मिला है, लेकिन जीवन से परिचित होने की कला उसे नहीं आती। वह मंदिर के बाहर ही बाहर दीवारें टटोलता हुआ घूम रहा है, मंदिर के भीतर आने का द्वार उसे नहीं मिलता। और जब द्वार नहीं मिलता तो क्रोध में, अहंकार में वह कहता है. द्वार है ही नहीं, मंदिर है ही नहीं, बस दीवार ही दीवार है!
आस्तिक अपनी हां में से द्वार खोज लेता है। आस्तिक को मस्जिद, मंदिर, काबा, काशी जाने की जरूरत नहीं है। यहां तो नास्तिकों को जाना पड़ता है। यहां तो नास्तिकों की भीड़ ही जाती है। आस्तिक तो जहां है वहां परमात्मा है, जहां बैठता है वहां तीर्थ बन जाता है, जहां उसके कदम पड़ेंगे वहां काबा बनेगा। उसका परमात्मा कोई छोटी—मोटी चीज नहीं कि कहीं कैद हो। उसका परमात्मा फैला है सारे अस्तित्व पर। ब्रह्मांड ही उसका ब्रह्म है।
लेकिन देवानंद, नास्तिक की तुमने जो परिभाषा सुनी होगी, उसके कारण प्रश्न उठ आया है। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति स्वभावत: पूछेगा कि नास्तिक किसको कहें! साक्रेटीज ईश्वर को नहीं मानता, लेकिन मैं कहता हूं आस्तिक है। और करोड़ों—करोड़ों लोग ईश्वर को मानते हैं और आस्तिक नहीं हैं। और ये जो आस्तिक नहीं हैं और ईश्वर को मानते हैं, इनके कारण ही धर्म की नौका डूब रही है। नास्तिक मुखौटे लगाए हैं आस्तिक का।
मैंने सुना वह बड़े रस के साथ कृष्ण—लीला सुना रहे थे। उनके पान चबाने का ढंग निस्संदेह मोहक था। औरतों की तरफ मुंह करके उन्होंने कहना शुरू किया हां, तो गोपियों ने देख लिया कि कृष्ण भगवान वृक्ष पर उनके कपड़े लेकर बैठ गए थे! उनके हाथ में इतनी लंबी छड़ी थी कि सीधे नदी तक जाती थी। हमारे कपड़े दे दो न किशन! एक गोपी ने इतरा कर कहा। कृष्णजी महाराज को शरारत सूझी।

उन्होंने गोपी का चोली—घाघरा छड़ी के एक कोने में लपेट कर छड़ी नीचे नदी की तरफ कर दी। गोपी ने छड़ी पकड़ने के लिए हाथ ऊपर किए। उसकी नंगी बांहें बहुत सुडौल और गोरी थीं। किशन भगवान ने छड़ी और ऊपर कर दी। गोरी और ऊपर उठी। उसका जिस्म बड़ा पुष्ट था। छड़ी थोड़ी और ऊपर की। गोपी की कटि बड़ी मनमोहक थी। कृष्णजी महाराज ने छड़ी और ऊपर की।…
बस बे हरामजादे! कालेज के चार—पांच छोकरे चिल्लाए! फिर पंडित की पिटाई के बदले में लड़की को सारे बाजार में मुंह काला करके घुमाया गया और शहर के तमाम लोगों ने कहा कि ये नास्तिक हैं, इनको पत्थर मार—मार कर मार डाला जाना चाहिए।
कौन नास्तिक है? कौन आस्तिक है? आस्तिकता के नाम पर इतना पाखंड चला है कि अब तो नास्तिक ही कहीं ज्यादा बेहतर आदमी मालूम होता है— कम से कम साफ—सुथरा; कम से कम झूठे, उधार विश्वासों से मुक्त, कम से कम पंडितों के पाखंड से बाहर।
और एक बात और स्मरण रखना कि अगर सच में आस्तिक होना हो तो नास्तिकता की सीढ़ियों से गुजरना होता है। इसलिए मेरे लेखे आस्तिकता और नास्तिकता विरोधी नहीं है, नास्तिकता सीडी है, आस्तिकता मंजिल है। नास्तिकता साधन है, आस्तिकता साध्य है। जिसे हां कहना है उसकी नहीं में भी बल होना चाहिए। अगर तुम्हारी नहीं नपुंसक है तो तुम्हारी हां भी नपुंसक होगी।
अगर तुमने औपचारिकतावश हां कह दिया है, शिष्टाचार के कारण हां कह दिया है, कहना चाहिए था इसलिए हां कह दिया है— उस ही का क्या मूल्य है? उस ही में कितनी ऊर्जा होगी? उस ही के लिए तुम कितनी कुर्बानी कर सकोगे? नहीं कहना भी आना चाहिए। नहीं पर भी कुर्बान होने की हिम्मत होनी चाहिए।
तो अगर तुम्हें सच में आस्तिक होना है देवानंद, तो नास्तिक भी होना पड़ेगा। सच्चा नास्तिक ही सच्चा आस्तिक हो सकता है। सच्चे नास्तिक को सच्चा आस्तिक होना ही पड़ेगा। मेरा गणित तुम्हें बहुत विरोधाभासी लगेगा, क्योंकि अब तक तुमसे यही कहा गया है सदियों—सदियों तक कि अगर आस्तिक होना है तो नास्तिक मत हो जाना। और मैं तुमसे कहता हूं अगर आस्तिक होना है तो नास्तिकता की प्रक्रिया से गुजरना। नहीं तुम्हें निखार देगी। नहीं तुम्हें धार देगी। नहीं तुम्हारी प्रज्ञा को प्रखर करेगी। और जितनी तुम्हारी प्रज्ञा प्रखर होगी उतना ही हां करीब है, उतना ही तुम्हें हां कहना ही पड़ेगा। एक न एक दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ जाएगा कि नहीं तुम्हें हां की मंजिल पर ले आई है।
जीवन तर्क नहीं है। जीवन तर्कातीत है। इतना तर्कातीत है कि जो चीजें साधारणत: विरोधी दिखाई पड़ती हैं वे भी वस्तुत: विरोधी नहीं हैं, बल्कि सहयोगी हैं। रात और दिन एक—दूसरे के दुश्मन नहीं हैं, एक—दूसरे के संगी—साथी हैं, हमजोली हैं। जीवन और मृत्यु एक—दूसरे के विरोधी नहीं हैं। बिना एक के दूसरा नहीं हो सकता; दोनों ऐसे हैं जैसे पक्षी के दो पंख।
ऐसे ही आस्तिकता और नास्तिकता है। जो कभी नास्तिक नहीं हुआ उसकी आस्तिकता ऊपरी—ऊपरी रहेगी, चमड़ी से ज्यादा उसकी गहराई नहीं। शायद भय के कारण आस्तिक होगा। शायद लोभ के कारण आस्तिक होगा। या हो सकता है कभी सोचा ही न हो; बचपन से सिखा दिया गया है जो, उसी को तोतों की तरह दोहरा रहा हो। कभी पुनर्विचार ही न किया हो कि जो मुझे सिखाया गया है, उसमें कितना सच है कितना झूठ है। शायद फुर्सत ही न मिली हो। या इस योग्य भी न समझा हो इस बात को कि सोचने योग्य है।
लोग जब किसी बात को सोचने योग्य नहीं मानते तो हां—हूं करके निपटा लेते हैं।
मैंने सुना है कि एक आदमी ने सिंहों की बोली सीख ली। वह इतना कुशल हो गया सिंहों की बोली में— वर्षों मेहनत करके उसे बोली आई— कि जब वह कुशल हो गया तो जंगल गया। लेकिन जिस सिंह से उसने बात की, लगा कि बिलकुल बुद्ध है। वह पूछे कुछ, वे जवाब कुछ दें। उसने पता लगाया कि कोई बुद्धिमान सिंह भी है या नहीं। एक लोमड़ी ने उसे पता दिया कि अगर बुद्धिमान सिंह चाहिए तो वह तुम्हें गहन से गहन जंगल में मिलेगा, वह सब सिंहों का राजा है, धर्मगुरु भी वही है।
वह आदमी कठिनाइयों को पार करके उस सिंह तक पहुंचा। उससे उसने प्रश्न पूछे। वह पूछे पूरब की, सिंह बोले पश्चिम की। उत्तर कुछ, प्रश्न कुछ। उस आदमी ने तो सिर ठोक लिया, उसने कहा कि मैंने जिंदगी बर्बाद की तुम्हारी भाषा सीखने के लिए और अनेक बुद्धओं से मैं पहले बात कर चुका हूं। और तुम्हारा पता मिला, इसलिए तुम्हारे पास आया, तुम सबसे गए—बीते मालूम होते हो।
वह सिंह हंसने लगा। उसने कहा वे बुद्ध नहीं थे, वे सब मुझे मिल—जुल चुके हैं। जिन—जिन से तुमने बात की, वे सब मुझसे बात कर गए हैं। मैं उनका राजा हूं, धर्मगुरु भी। वे सब तुम पर हंस रहे हैं कि एक मूढ़ आदमी आ गया है जंगल में। मूढ़ इसलिए कि अब तक किसी सिंह ने आदमियों की भाषा सीखने की कोशिश नहीं की, क्योंकि इस योग्य ही नहीं समझा। और इस आदमी ने जिंदगी गवाई सिंहों की भाषा समझने के लिए; अब यह सीख कर आ गया है और उलटे—सीधे प्रश्न पूछता है कि ईश्वर है? आत्मा है? स्वर्ग होता है? नरक होता है? तो जिन—जिन से तुमने बात की है, वे सब बुद्धिमान सिंह हैं। वे तुम्हें उलटे—सीधे जवाब देकर टरका दिए और वही मैं कर रहा हूं। तुम पूछोगे कुछ हम जवाब कुछ देंगे, क्योंकि मूर्खतापूर्ण प्रश्नों का उत्तर सिर्फ मूर्खतापूर्ण ही ढंग से दिया जा सकता है। कुछ बुद्धिमानी की बात पूछो तो हम कुछ बुद्धिमानी की बात कहें। सिंहों की भाषा तो सीख गए, थोड़ी बुद्धिमानी भी सीख कर आओ।
ईश्वर है या नहीं— यह सच में तुम्हारा जीवन का प्रश्न है? इस प्रश्न पर तुम्हारा क्या अटका है? ईश्वर होगा तो फिर तुम क्या करोगे? और ईश्वर नहीं होगा तो फिर क्या तुम करोगे? तुम जैसे थे वैसे ही रहोगे, ईश्वर हो या न हो। उसी तरह दफ्तर जाओगे, उसी तरह पत्नी से लड़ोगे, उसी तरह बच्चों को मारोगे, उसी तरह दीवाली पर जुआ खेलोगे और होली पर गालियां बकोगे—ईश्वर हो तो, और ईश्वर न हो तो! क्या फर्क पड़ेगा? क्योंकि कोई फर्क नहीं पड़ता जिंदगी में, लोग सोचते हैं, इन बातों में पड़ना ही क्या! अगर सभी कहते हैं— है, तो ठीक ही कहते होंगे। मान ही लो। कौन झंझट करे! कौन समय खराब करे!
इसलिए न तो तुम कभी पुनर्विचार करते हो, न कभी अपनी मान्यताओं का ऊहापोह करते हो! न कभी खोद कर देखते हो कि हमने क्या—क्या मान रखा है, उसमें कितना अनुभव है और कितना बासा, उधार है!
सौ में निन्यानबे लोग आस्तिक हैं, मगर उन निन्यानबे में तुम्हें शायद ही एकाध आस्तिक मिले। मिलेंगे तो नास्तिक ही—चेहरे, मुखौटे आस्तिक के हैं। क्योंकि आस्तिक का चेहरा व्यावसायिक रूप से उपयोगी है। होशियार लोग ऐसे चेहरे लगा लेते हैं जिनसे लाभ हो। होशियार लोग नग्न नहीं जीते, वस्त्रों में छिपा कर अपनी जिंदगी को चलाते हैं।
मंत्री जी अपने खान—पान में गांधीवाद को निभाते हैं।
आइसक्रीम केवल बकरी के दूध की खाते हैं।
वे गांधी जी की सादगी को भीतर से अपनाते हैं
ऊपर लकदक  खादी का धोती—कुर्ता है तो क्या हुआ नीचे लंगोटी लगाते हैं।
गांधी जी की अहिंसा का अनुसरण कर वे मांस को हाथ नहीं लगाते हैं
उसे छुरी—कांटे से खा जाते हैं।
वे सत्य पर बहुत जोर देते हैं ऊपर से झूठ बोल कर
मन ही मन सच बात कह लेते हैं।
असली बात तो भीतर की है, ऊपर—ऊपर का क्या! आदमी धोखा देने में इतना होशियार है! और सबसे सुंदर धोखे और सबसे आसान धोखे वे हैं जो समाज ही चाहता है कि तुम स्वीकार करो। अगर तुम हिंदू घर में पैदा हुए हो तो यज्ञोपवीत डाल दिया। डाल लिए तीन धागे, क्या बिगड़ जाता है! मगर प्रतिष्ठा मिलती है, सम्मान मिलता है। लगा लिया तिलक—टीका, क्या बिगड़ता है! लेकिन धार्मिक समझे जाते हो। और धार्मिक समझे जाना व्यावसायिक रूप से उपयोगी है। लोग तुम्हारा भरोसा करेंगे। और लोग भरोसा करें तो तुम उन्हें धोखा दे सकते हो। तुम धोखा ही उन्हें दे सकते हो जो तुम्हारा भरोसा करें। जो भरोसा न करें उन्हें तुम धोखा कैसे दोगे?

पश्चिम के बहुत बड़े विचारक इमेनुअल कांट ने अपने नीति के सिद्धांतों में एक सिद्धांत की चर्चा की है, कि मैं उस बात को अनैतिक कहता हूं जिसको सभी लोग मान लें तो जिसका करना असंभव हो जाए। जैसे सभी लोग तय कर लें कि हम झूठ ही बोलेंगे। उदाहरण के लिए, सारी दुनिया तय कर ले कि हम झूठ ही बोलेंगे, सच कोई बोलेगा ही नहीं। बस झूठ बोलना बेकार हो जाएगा। जब सब ही झूठ बोलेंगे तो झूठ बोलने का सार क्या होगा? तुम भी जानते हो कि दूसरा झूठ बोल रहा है, दूसरा भी जानता है कि तुम झूठ बोल रहे हो। झूठ बोलने का उपयोग तभी तक है जब तक यह भ्रांति बनी रहती है कि झूठ नहीं है यह, सच है, जब तक कोई तुम पर भरोसा करने को राजी होता है। दुनिया में अनीति चल सकती है नीति के ही पैरों पर। झूठ के अपने पैर नहीं होते, उसे सत्य से उधार लेने होते हैं। झूठ का अपना चेहरा ही नहीं होता, उसे सत्य का मुखौटा लगाना पड़ता है।
तो तुम्हारी तथाकथित आस्तिकता मुखौटों से ज्यादा नहीं है। हटाओ ये मुखौटे! इससे बेहतर है अपना चेहरा हो— नास्तिक का ही सही। और हर बच्चा नास्तिक की तरह ही पैदा होता है। यही परमात्मा की प्रक्रिया है। इसलिए बच्चे इस दुनिया में जो सबसे पहला काम करते हैं, वह नहीं कहने का करते हैं। जैसे ही बच्चा थोड़ी उम्र पाता है— चार साल का, पांच साल का हुआ— कि वह नहीं कहने की धुन में पड़ जाता है। तुम जो भी उससे कहोगे, वह उसके विपरीत करेगा। तुम कहोगे कि सिगरेट मत पीना तो वह सिगरेट पीएगा। तुम कहोगे सिनेमा मत जाना तो वह सिनेमा जाएगा। वह तुम्हारी आशा का उल्लंघन करेगा। यह नैसर्गिक प्रक्रिया है। वह नहीं कह रहा है— अस्तित्वगत नहीं। और नहीं कह कर वह अपने व्यक्तित्व को तुमसे मुक्त कर रहा है।
जैसे नौ महीने के बाद बच्चे को मां के गर्भ के बाहर आना पड़ता है— उसके बाद मां के गर्भ में नहीं रह सकता, इतना बड़ा हो गया कि अब उसे गर्भ से मुक्त होना पड़ेगा— ऐसे ही चार—पांच साल का होते—होते नहीं सीखना पड़ता है उसे, क्योंकि अब वह तुम्हारे मनोवैज्ञानिक गर्भ से मुक्त होना चाहता है। अब वह चाहता है अपना व्यक्तित्व हो, अपनी निजता हो। और अपनी निजता तभी हो सकती है जब वह तुम्हारी आशाओं का उल्लंघन करे। धीरे— धीरे नहीं कह—कह कर वह तुमसे अपने को मुक्त कर लेगा। जवान होते—होते वह नहीं में पारंगत हो जाएगा।
इसलिए सभी जवान क्रांतिकारी होते हैं। यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। जवानी का यह अनिवार्य अंग है। जैसे जवानी में लोग प्रेम करते हैं वैसे ही जवानी में लोग क्रांति भी करते हैं। यह वैसा ही स्वाभाविक है, जैसा प्रेम। क्योंकि क्रांति का अर्थ होता है वे कहेंगे नहीं, हर चीज को नहीं, ताकि उनके अपने व्यक्तित्व की ठीक—ठीक परिभाषा हो सके कि मैं कौन हूं।
लेकिन खतरा यह है कि लोग उसी ‘नहीं’ में घिरे अगर रह जाएं तो खतरा है, अगर प्रौढ़ ही न हो पाएं। जैसे एक दिन नहीं कहना सीखते हैं वैसे ही एक दिन हां कहना भी सीखना चाहिए।
मेरे हिसाब में चौदह वर्ष की उम्र, अगर ठीक से व्यक्ति को मौका मिले तो उसकी नहीं पूर्ण हो जाती है, और बयालीस वर्ष की उम्र, अगर उसे ठीक से जीवन का मौका मिले तो हां का जन्म शुरू होता है। बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग ने कहा है कि मैंने हजारों मानसिक रोगियों के निरीक्षण के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि बयालीस साल के बाद जो लोग रोगग्रस्त हैं उनका असली रोग मानसिक नहीं है, धार्मिक है। बयालीस साल के हो गए और हां कहने की कला नहीं आई, अभी भी नहीं कहे चले जा रहे हैं— बचपना है!
बचपन में ठीक थी जो बात.. .जो पाजामा बिलकुल ठीक आता था बचपन में, उसी पाजामे को बयालीस साल में पहन कर चलोगे तो लगेगा कि हनुमान जी का जांघिया पहने हुए हो। और ऐसा नहीं था कि कभी वह काम का नहीं था, कभी काम का था— कभी वह पाजामा था, अब जांघिया हो गया है। वह तो वही है, तुम बदल गए, तुम बड़े हो गए।
एक दिन नहीं की जरूरत होती है। नहीं निखार देती है व्यक्तित्व को, धार देती है। और जो लोग नहीं कहना नहीं सीख पाते या जिनको मौका ही नहीं दिया जाता या जिनकी नहीं बिलकुल मार डाली जाती है, वे गोबर—गणेश रह जाते हैं। देखने भर के आदमी, बाकी भीतर बिलकुल फुस—फुस। उनके भीतर कुछ नहीं होता। उनके भीतर घास—फूस भरा होता है। वे धोखे के आदमी हैं, जैसा खेतों में खड़े रहते हैं। पशु— पक्षियों को शायद डरा लें तो डरा लें, लेकिन उनसे और कुछ नहीं हो सकता। खोपड़ी निकाल कर देखोगे तो हंडी— गांधी टोपी के नीचे हंडी! अचकन—कुर्ता निकाल कर देखोगे तो कुछ नहीं— डंडा! मगर शायद पशु—पक्षी रात के अंधेरे में भय खा जाते हों, डर जाते हों। मुझे तो शक है कि एक दिन धोखा खाएंगे, दो दिन धोखा खाएंगे, कितने दिन धोखा खाएंगे! आखिर पास आकर देखेंगे कि आदमी असली भी है कि गांधीवादी है! और जिस दिन देख लिया कि गांधीवादी है… क्योंकि मैंने ऐसा देखा है, इन्हीं गांधीवादियों के ऊपर पक्षी घोसले तक बना लेते हैं, डरने की तो बात दूसरी!
पक्षियों को भी इतना धोखा देना आसान नहीं है। एक—दो दिन ठीक है।
जो लोग जीवन में नहीं कहना नहीं सीख पाते, उनकी तलवार पर जंग जमी रह जाती है। तो मैं तो कहता हूं नास्तिक होना ही चाहिए। मगर एक उम्र है उसकी। चौदह साल की उम्र में जो नास्तिक नहीं है, वह आदमी गलत है। और बयालीस साल की उम्र के बाद भी जो नास्तिक है वह आदमी गलत है। एक घड़ी आनी चाहिए, जब तुम नहीं कहना सीख लिए, नहीं का लाभ ले लिए, नहीं की खाद बना लिए, अब तुम्हें हां का आनंद भी लेना चाहिए। अब तुम्हें यह भी पता चल जाना चाहिए कि नहीं दूसरों से तो तुम्हें मुक्त कर देती है, लेकिन स्वयं से मुक्त नहीं करती।
और दूसरों से तुम जितने मुक्त होते हो उतना ही स्वयं का अहंकार मजबूत हो जाता है। जरूरी था कि दूसरों से मुक्त होओ, नहीं तो तुम्हारा व्यक्तित्व ही नहीं होता। आज्ञाकारी बच्चों का कोई व्यक्तित्व नहीं होता। जितना आज्ञाकारी बच्चा उतना ही दो कौड़ी का। मां—बाप के लिए सुविधापूर्ण होता है कि कह दिया कोने में बैठो तो कोने में बैठा है, कहो कि होमवर्क करो तो होमवर्क कर रहा है, जो कहो वही करता है। मां—बाप के लिए सुविधापूर्ण है, लेकिन मां—बाप की सुविधा बड़ी कीमत पर मिल रही है— उस बच्चे की आत्मा खोई जा रही है। वह बच्चा मार डाला जा रहा है। उसकी भ्रूण—हत्या हो रही है। शरीर से ही वह रहेगा, आत्मा उसके भीतर नहीं होगी।
अगर सम्यक शिक्षण हो दुनिया में तो हर मां—बाप अपने बच्चे को नास्तिकता की शिक्षा देगा, कहेगा कि नहीं कहना सीखो, क्योंकि नहीं कहोगे तो सोचोगे, विचारोगे। नहीं कहोगे तो जूझना पड़ेगा, संघर्ष करना पड़ेगा। नहीं कहोगे तो अपने पैरों पर खड़े होने का पाठ सीखना होगा। नहीं कहोगे तो तुम समझ पाओगे कि तुम कौन हो, भीड़ से अपने को अलग कर सकोगे, भेड़ होने से मुक्त हो सकोगे।
एक स्कूल में पूछ रहा है शिक्षक बच्चों से कि समझ लो तुम्हारे बाड़े में दस भेड़ें बंद हैं, उनमें से एक बाड़े की छलांग लगा कर निकल गई तो भीतर कितनी बचेंगी? एक लड़का जोर—जोर से हाथ हिलाने लगा, जो कभी हाथ नहीं हिलाता था! शिक्षक चकित हुआ, उसने कहा कि बोलो—बोलो, तुम तो कभी हाथ नहीं हिलाते! उसने कहा कि आप प्रश्न ही ऐसे पूछते थे, जिनका मुझे कोई अनुभव नहीं। इसका मुझे अनुभव है। एक भी भेड़ नहीं बचेगी।
शिक्षक ने कहा. तेरे को जरा भी अकल है कि नहीं? दस भेड़ें बंद हैं मैंने कहा, एक छलांग लगा कर निकल गई, तो भीतर एक भी नहीं बचेगी? उस बच्चे ने कहा : आपको गणित का अनुभव होगा, मुझे भेड़ों का अनुभव है। मेरे घर में भेड़ें हैं। इसीलिए तो मैं इतने जोर से हाथ हिला रहा हूं कि इसका जवाब कोई दूसरा नहीं दे सके गा। और गणित के हिसाब से जो सही है वह कोई जिंदगी के हिसाब से सही हो, यह जरूरी थोड़े ही है। जब एक भेड़ निकल जाएगी तो बाकी नौ भेड़ भी उसके पीछे निकल जाएंगी। भेड़ें तो पीछे चलती हैं एक—दूसरे के। भेड़ों में कोई व्यक्तित्व नहीं होता।
तो जिस व्यक्ति ने नहीं कहना नहीं सीखा वह भीड़ का हिस्सा रह जाएगा, वह भेड़ रह जाएगा। भीड़ का जो हिस्सा है वह भेड़ है। भीड़ भेड़ों की है। और इसलिए भीड़ नहीं चाहती तुमसे कि तुम नहीं कहना सीखो। पंडित, पुजारी, राजनेता नहीं चाहते कि तुममें इतनी क्षमता आए कि तुम नहीं कह सको। वे तो तुम्हें पाठ पढ़ाए जाते हैं शुरू से ही— श्रद्धा, आस्था, आस्तिकता, विनम्रता, आज्ञाकारिता। ये शब्द बड़े प्यारे हैं, लेकिन एक खास उम्र के बाद प्यारे हैं, उसके पहले ये जहर हैं।
हर चीज का मौसम होता है, खयाल रखना। और मौसम में अगर पानी दोगे तो कभी फूल आएंगे वृक्षों में; बेमौसम पानी दे दिया तो हो सकता है वृक्ष की जड़ें भी सड़ जाएं। और गणित से मत चलना। जिंदगी गणित नहीं है
एक गणितज्ञ ने होटल खोली। खूबी यह थी कि होटल में सब्जियों के भाव बहुत ज्यादा थे। श्री भोंदूमल जब खाना खाने के लिए आए तो बिल देख कर घबड़ा गए। उन्होंने जाकर होटल मालिक से कहा, हद हो गई भाई! इतनी महंगी सब्जियों की प्लेट! आखिर बात क्या है, इस सब्जी में ऐसी कौन सी चीज है?

दिखता नहीं भोंदूमल जी, इस सब्जी में पचास प्रतिशत फल और पचास प्रतिशत तरकारी का मिश्रण है! फलों के कारण ही यह इतनी महंगी है।

मगर मुझे तो फल का एक टुकड़ा भी दिखाई नहीं दिया!

वह तो मुझे भी दिखाई नहीं देता— गणितज्ञ होटल मालिक बोला— क्योंकि यह सब्जी एक अंगूर और एक कदू को मिला कर जो बनाई गई है।

गणित का एक जगत है, वहां एक कदू और एक अगर…। जीवन गणित नहीं है और न जीवन विज्ञान है।

मुल्ला नसरुद्दीन ने एक अप्रैल के दिन अपने दोस्तों को अप्रैल—फूल बनाने की सोची। उसने अपने वैज्ञानिक मित्र चंदूलाल को, जो कि एक माह से कश्मीर सैर करने गए थे, एक टेलीग्राम किया। टेलीग्राम में उसने सिर्फ इतना लिखा प्रिय चंदूलाल, अब मेरी तबीयत ठीक है। घबड़ाने की कोई बात नहीं। तुम्हारा— मुल्ला नसरुद्दीन।

दूसरे ही दिन श्रीनगर से वीपी पी. द्वारा एक बहुत बड़ा तथा वजनदार पैकेट आया। नसरुद्दीन को इस पैकेट को छुड़ाने में पांच सौ अस्सी रुपये देने पड़े। जल्दी से उत्सुकतावश उसने पैकेट खोला। पैकेट में एक बड़ा पत्थर का टुकड़ा था, जिसके साथ रखी एक चिट पर लिखा था प्रिय नसरुद्दीन, तार पाकर छाती पर से इतना बोझ उतर गया। तुम्हारा— चंदूलाल।

जिंदगी सीधी—साफ नहीं है, जैसा गणित और वितान है। जिंदगी काव्य है, जिंदगी संगीत है। और संगीत बहुत स्वरों से मिल कर बनता है। जिंदगी इंद्रधनुष है— सप्तरंगी है। जिंदगी संगीत है—पूरा सरगम, सातों स्वर!

नास्तिकता से शुरू होती है जिंदगी और आस्तिकता पर पूर्ण होती है। नहीं कहने से शुरू करो और हां जब तक न आ जाए तब तक खोदते चले जाना, खोदते चले जाना। और मैं तुम्हें यह चकित करने वाली बात कहना चाहता हूं कि अगर तुम नहीं से खोदते चले गए तो तुम जरूर हां पर पहुंच जाओगे। नहीं की कुदाली बना लो और खोदो! और एक दिन हां के जलस्रोत तुम्हारे हाथ लग जाएंगे। हां मिले तो तृप्ति हो। हां मिले तो अहंकार जाए।

नहीं से अहंकार मिला, उससे भीड़ से तुम बचे। उसने एक सुरक्षा दी, एक कवच निर्मित हुआ। अब इस कवच में तुम घिर गए। अब इस कवच को भी उतारने की कला सीखनी होगी; वह ही से ही मिलेगी। पहले भीड़ से मुक्त हो जाओ, अहंकार का उपयोग कर लो, फिर अहंकार से मुक्त हो जाना। उस दिन तुम जानोगे अस्तित्व का रहस्य, आनंद, उत्सव! उसका ही दूसरा नाम परमात्मा है। आस्तिक परमात्मा में भरोसा नहीं करता— आस्तिक जानता है जीवन केउत्सव को! वही उसका परमात्म—अनुभव है।


ओशो

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