*1276 अवधू निरंजन जाल पसारा।।563।।

अवधू निरंजन जाल पसारा।।
स्वर्ग पाताल जीव मृत मंडल, तीन लोक विस्तारा 
ब्रह्मा विष्णु शिव प्रकट कियो है,यही दियो सिर भारा।।
ठांव ठाव तीर्थ वर्त थाप्यो, ठगने को संसारा।।
मायामोह कठिन विस्तारा, आप भयो करतारा।।
सतगुरु शब्द को चिन्हित नाही, कैसे होय उबारा।
जारी मूंज कोयला कर डारे, फिर फिर ले अवतारा।।
अमर लोक जहां पुरुष विराजे, तिन का मूंदा द्वारा।।
जिन साहब से भए निरंजन,  सो तो पुरुष है न्यारा।।
काठी काल से बचना चाहो, गाहो शब्द टकसारा।
कहे कबीर अमर कर रखो मानो वचन हमारा।।

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